सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गुरु, साधु, महापुरुष






          जो साधु, गुरु या आचार्य किसी भी हेतु को बतलाकर परस्त्रियों के साथ दूषित सम्बन्ध रखते हैं, में तो उनको साधु, गुरु या आचार्य कहलाने लायक नहीं समझता l शिष्य अपनी श्रद्धा से गुरु का सब कुछ क्षम्य मान सकता है, यह किसी अंश में किसी सीमा तक  उसके लिए ठीक कहा जाने पर भी न्यायकर्ता ईश्वर के यहाँ उसका सब कुछ क्षम्य नहीं हो सकता l वरं उस पर तो अधिक जिम्मेवारी है l पुलिस की चपरास लगाकर चोरी करनेवाला पुलिस का  कर्मचारी अधिक दण्ड का पात्र होता है, इसी प्रकार दूसरे लोगों को परमार्थ के मार्ग पर ले जाने के लिए जिन लोगों ने गुरु या आचार्य का पद स्वीकार किया है, या जो शुद्ध सात्विक मार्ग पर चलने वाले सर्वत्यागी सन्त का बाना धारण करके साधु बने हैं, वे तो असाधुता का आचरण करने पर विशेष दण्ड के पात्र होते हैं l  मन्दिर, मठ, आश्रम कोई भी स्थान हो तथा उनमें रहनेवाले पुरुष चाहे कैसे भी प्रसिद्ध साधु, महात्मा या गुरु अथवा आचार्य कहलाते हों, यदि वे व्यभिचारी हैं, परस्वका हरण करनेवाले हैं तो उसका संग तो नि:संदेह छोड़ ही देना चाहिए, बल्कि ऐसे प्रयत्न करना भी धर्मसंगत ही है कि जिसमें उनके जाल में भोले-भाले नर-नारी न फंसें, वस्तुत: वे साधु-महात्मा या गुरु-आचार्य नहीं हैं, वे तो सन्त के वेष में कालनेमि हैं जो दण्ड के ही पात्र हैं l वास्तव में ऐसे ही लोगों के कारण धर्म से लोगों की श्रद्धा उठी जा रही है l
            जब सभी क्षेत्रों में अनुभवी और जानकार पुरुषों की सहायता आवश्यक है तब पारमार्थिक क्षेत्र में अनुभवी गुरु की आवश्यकता क्यों न होगी ? गुरु की अत्यंत आवश्यकता है; परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि चाहे जिससे और चाहे जो मन्त्र ले लिया जाये l अनुभवी परमार्थ तत्व के ज्ञाता, त्यागी, शिष्य के कल्याणकारी गुरु की आवश्यकता है l ऐसे गुरु न मिलें तो खोज करनी चाहिए l गुरु प्राप्ति की चाह प्रबल होगी और इसके लिए भगवान् से प्रार्थना की जाएगी तो भगवान् स्वयं ऐसे गुरु से आपकी भेंट करा देंगे या वे स्वयं ही गुरु रूप में आप के सामने प्रकट होकर आपके जीवन को सफल कर देंगे l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)  

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,