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यद्यपि बाहरी खान-पान, वेष-भूषा, बातचीत से सच्चे साधु की पहचान नहीं होती तथापि सर्वसाधारण के लिए हितकर वे ही महात्मा हो सकते हैं, जिनके बाहरी आचरण भी आदर्श, अनुकरण के योग्य और परम हितकर हों l
बड़े रईसों की तरह बहुत आराम से रहने वाले, शरीर को खूब धो-पोंछकर तथा सजाकर रखनेवाले, सर्दी-गर्मी को न सह सकनेवाले, मान-बड़ाई को स्वीकार करनेवाले तथा खान-पान की वस्तुओं में आसक्त-से दीखनेवाले पुरुष, भगवत्प्राप्त महात्मा हो ही नहीं सकते, यह तो कदापि नहीं मानना चाहिए l परन्तु शोभा और आदर्श तो त्याग में ही है l तथा उपर्युक्त बातें जिनमें आसक्ति सहित होती हैं, वे वास्तव में भगवत्प्राप्त पुरुष होते भी नहीं l यह सत्य है कि बाहरी त्याग दिखानेवाले ढोंगी भी हो सकते हैं, परन्तु ऐसा कोई भी व्यभिचार आदि-जैसा बुरा आचरण तो नहीं ही होना चाहिए जो शास्त्र से निषिद्ध हो l
महापुरुष कि पहचान कोई क्या करे l हमारी बुद्धि का मापदण्ड ही ऐसा है जो उन लोगों की स्थिति को तौल सके l परन्तु यह निश्चय समझना चाहिए कि सच्चे महापुरुष किसी भी हेतु से जान-अनजान में जिसको मिल गए उसका जीवन अवश्य सफल हो गया l भगवान् के साधन-राज्य में दो ही वस्तुएं ऐसी हैं जो बिना भाव के केवल अपने स्वाभाविक गुण से ही मनुष्य का परम कल्याण कर देती है - १- महापुरुष का संग और २- श्री भगवन्नाम का उच्चारण l जैसे अग्नि कि दाहिका शक्ति अनजान में स्पर्श हो जानेपर भी अपना काम करती है, इसी प्रकार महापुरुष का अज्ञात संग भी तमाम पापों को जलाकर परम कल्याण की प्राप्ति करा देता है l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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