अब आगे.........
किन्तु वह 'अनंग' कौन है ? भगवान् है - प्रेम है l और कोई भी अनंग है ही नहीं l इस अनंग की, इस प्रेम की वृद्धि करनेवाली वह वेणु-ध्वनि इनके कानों में पड़ी l किनके कानों में पड़ी ? एक शब्द बहुत सुन्दर है - 'कृष्णगृहीतमानसा:' जिनके मनों को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l गोपियों का मन अपने पास नहीं, वे 'कृष्णगृहीतमानसा:' हैं l जो कृष्णगृहीतमानसा: नहीं होगी, उनको भय के कारण मोह से छुटकारा नहीं मिल सकता , वे भगवान् के आहवान को नहीं सुन सकते, उनका मन तो घर में फँसा है l उनको तो घर की ही पुकार सुनाई देती है चारों तरफ से l मुरली की पुकार कहाँ से सुनाई देगी ? मुरली की पुकार तो सारे ब्रज में गयी किन्तु उन्हीं ब्रजबालाओं ने सुनी जो कृष्णगृहीतमानसा: थीं l घर के अन्य लोगों ने नहीं सुनी; क्योंकि घर में ही उनका मानस राम रहा था, घर ने ही उनके मानस को पकड़ रखा था l किन्तु ये कृष्णगृहीतमानसा: ब्रजबालाएं कैसी थीं - इनके मन को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l इनके पास इनका मन था ही नहीं l वैसे तो हमारे पास भी हमारा मन नहीं है l हमने भी खुला छोड़ ही रखा है उसे विषय के बीहड़ वन में विचारने के लिए l जहाँ चाहता है, हमको ले जाता है l विषयों से सर्वथा इसको विमुख करके खुला छोड़ दें l जब हम विषयों को मन से निकलकर, विषयों से मन को हटाकर मन को खुला छोड़ देंगे, जहाँ मन सचमुच निर्बन्ध हुआ कि 'भगवान् इसे ले जायेंगे' यह बिलकुल सच्ची बात है l
भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को खुला नहीं देखते l भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को किसी के द्वारा पकड़ा हुआ देखते हैं, हमारे मन में किसी को बैठा हुआ पाते हैं l तब भगवान् देखते हैं कि इसका मन तो अभी खाली नहीं है , बंधा हुआ है - तब वे लौट जाते हैं l किन्तु गोपियों ने मन को खुला छोड़ दिया था l सब चीज़ों से मन को खोल दिया था l मन के सारे बन्धनों को काट दिया था उन्होंने l जब मन इनका ऐसे हो गया, जिसमें संसार रहा नहीं तो भगवान् ने आकर उसको पकड़ लिया l और मन को पकड़ कर क्या किया ? गोपियों के मन को अपने मन में ले गए और अपने मन को उनके मन में बिठा दिया l
मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]
किन्तु वह 'अनंग' कौन है ? भगवान् है - प्रेम है l और कोई भी अनंग है ही नहीं l इस अनंग की, इस प्रेम की वृद्धि करनेवाली वह वेणु-ध्वनि इनके कानों में पड़ी l किनके कानों में पड़ी ? एक शब्द बहुत सुन्दर है - 'कृष्णगृहीतमानसा:' जिनके मनों को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l गोपियों का मन अपने पास नहीं, वे 'कृष्णगृहीतमानसा:' हैं l जो कृष्णगृहीतमानसा: नहीं होगी, उनको भय के कारण मोह से छुटकारा नहीं मिल सकता , वे भगवान् के आहवान को नहीं सुन सकते, उनका मन तो घर में फँसा है l उनको तो घर की ही पुकार सुनाई देती है चारों तरफ से l मुरली की पुकार कहाँ से सुनाई देगी ? मुरली की पुकार तो सारे ब्रज में गयी किन्तु उन्हीं ब्रजबालाओं ने सुनी जो कृष्णगृहीतमानसा: थीं l घर के अन्य लोगों ने नहीं सुनी; क्योंकि घर में ही उनका मानस राम रहा था, घर ने ही उनके मानस को पकड़ रखा था l किन्तु ये कृष्णगृहीतमानसा: ब्रजबालाएं कैसी थीं - इनके मन को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l इनके पास इनका मन था ही नहीं l वैसे तो हमारे पास भी हमारा मन नहीं है l हमने भी खुला छोड़ ही रखा है उसे विषय के बीहड़ वन में विचारने के लिए l जहाँ चाहता है, हमको ले जाता है l विषयों से सर्वथा इसको विमुख करके खुला छोड़ दें l जब हम विषयों को मन से निकलकर, विषयों से मन को हटाकर मन को खुला छोड़ देंगे, जहाँ मन सचमुच निर्बन्ध हुआ कि 'भगवान् इसे ले जायेंगे' यह बिलकुल सच्ची बात है l
भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को खुला नहीं देखते l भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को किसी के द्वारा पकड़ा हुआ देखते हैं, हमारे मन में किसी को बैठा हुआ पाते हैं l तब भगवान् देखते हैं कि इसका मन तो अभी खाली नहीं है , बंधा हुआ है - तब वे लौट जाते हैं l किन्तु गोपियों ने मन को खुला छोड़ दिया था l सब चीज़ों से मन को खोल दिया था l मन के सारे बन्धनों को काट दिया था उन्होंने l जब मन इनका ऐसे हो गया, जिसमें संसार रहा नहीं तो भगवान् ने आकर उसको पकड़ लिया l और मन को पकड़ कर क्या किया ? गोपियों के मन को अपने मन में ले गए और अपने मन को उनके मन में बिठा दिया l
मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]