जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, नवंबर 13, 2012

* दीपावली के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ *


* दिवाली *
जब समस्त जगत की घोर अमावस्या का नाश करने वाले भगवान् भास्कर, सुधावृष्टि से संसार का पोषण करने वाले चंद्रदेव और जगत के आधार अग्नि देवता उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित होते है – इन तीनो का त्रिविध प्रकाश उन्ही के प्रकाशाम्बुधि का एक क्षुद्र कण है, तब जहा वह स्वयं आ जाए,वहा के प्रकाश का तो ठिकाना ही क्या ! उनका वह प्रकाश केवल यहाँ तक परिमित नहीं है | ब्रह्मा की जगत-उत्पादनी बुद्धि में उन्ही के प्रकाश की झलक है | शिवकी संहार-मूर्ति में भी उन्ही के प्रकाश का प्रचण्ड रूप है | ज्ञानी मुनियों के ह्रदय भी उसी अलोक-कण से आलोकित है | जगत के समस्त कार्य,मन-बुद्धि की समस्त क्रियाये उसी नित्य प्रकाश के सहारे चल रही है |
अतएव पहले काम, क्रोध, लोभ रूप कूड़े को निकाल कर  घर साफ़ कीजिये,फिर देवी सम्पति की सुदर सामग्रियो से उसे सजाइए | तदन्तर प्रेम रुपी नित्य नवीन वस्तु का संग्रह कीजिये और उससे लक्ष्मीपति श्री नारायण देव को वश में कर ह्रदय के गम्भीर अन्त:स्थल में विराजित कीजिये , फिर देखिये – महालक्ष्मी देवी और अखंड अपार अलोकिक राशी स्वयमेव चली आएगी ! देवी का अलग आवाहन करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी |

 हां, एक यह बात आप और पूछ सकते है कि श्री नारायण को वश में कर देने वाला वह प्रेम कहा, किस बाजार में मिलता है ? इसका उत्तर यह है की वह किसी बाजार में नहीं मिलता –“प्रेम न वाणी निपजे, प्रेम न हाट बिकाय |” उसका भंडार तो अपने अंदर ही है |  ताला लगा है तो उसको खोल लीजिये,खोलने का उपाय –चाभी श्री भगवन्नाम-चिंतन है | प्रेम का कुछ अंश बाहर भी है परन्तु वह जगत के जड़-पदार्थो में लगा रहने से मलिन हो रहा है | उसका मुख श्री नारायण की और घुमा दीजिये | वह भी दिव्य हो जायेगा | उसी प्रेम से भगवान वश में होंगे | फिर लक्ष्मी-नारायण दोनों का एक साथ पूजन कीजियेगा | इस तरह नित्य ही दिवाली बनी रहेगी | टका लगेगा न पैसा,पर काम ऐसा दिव्य बनेगा की हम सदा के लिए सुखी – परम सुखी हो जायेंगे | इसी को कहते है –
         ‘सदा दिवाली संत के आठों पहर आनंद‘
भगवचर्चा,
हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रेस गोरखपुर,
कोड ८२०, पेज १६०