जो जितना दीन है, उसमें भगवान् की कृपाशक्तिका उतना ही अधिक प्रकाश है! 'दैन्य' भगवान् की कृपाके प्राकट्यके बीच लगे पर्देको फाड़ डालता है!
जैसे ब्रम्हाजीकी वाणी एक 'द' तीन अर्थ रखती है, वैसे ही गीता भगवान् श्री कृष्णकी वाणी है! उसके अनेक अर्थ अधिकारी-भेद से होते हैं! यही हेतु है कि विभिन्न आचार्यों, टीकाकारोंने गीताके अर्थ पृथक् -पृथक् किये हैं! अधिकारी-भेदसे उन सब अर्थोंका सामंजस्य है!
भगवान् की कृपा अधिकारी-भेद्की अपेक्षा नहीं रखती! वह केवल देखती है की यह एकमात्र कृपाका आकांक्षी है कि नहीं!
भगवान् की कृपा सबकी सम्पत्ति है, पर दोनोंकी सम्पत्ति विशेषरूपसे है; क्योंकि भगवान् 'दीनवत्सल' हैं!
अबोध बालक, जो बोलना नहीं जनता, किसी प्रकारका संकेत करना नहीं जानता, वह रोकर ही मनोव्यथा व्यक्त करता है! इसी प्रकार जिसके पास रोनेके सिवा कोई साधन नहीं, वह भगवान् के सामने कातर होकर रोये! जगतके सामने रोना अशुभ है, कायरता हैं; भगवान् के सामने रोना परम मंगलकारी है एवं परम बलका घोतक है!
भगवान् की कृपापर भरोसा करके दीनभावसे भगवान् के शरणापन्न हो जाना चाहिये! जब हम भगवान् के शरणापन्न हो जाते हैं और भगवान् पास आ जाते हैं, तब उनके दैवी गुण स्वतः हममें आविर्भूत होते हैं! फिर बंधनोंको काटना नहीं पड़ता, बंधन अकुलाकर स्वतः छिन्न हो जाते हैं; ग्रन्थि खोलनी नहीं पड़ती, वह स्वतः खुल जाती है!
हम कैसे भी हों, भगवान् की कृपा ऐसी विलक्षण है कि वह हमें सब प्रकारके दोषों- पापोंसे मुक्त करके भगवान् के चरणोंका आश्रय प्रदान कर देती है! अन्यथा दीन-हीनोंका काम कैसे बनता!