जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, जनवरी 31, 2013

सद्गुरु -6-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण,पन्चमी,गुरुवार, वि० स० २०६९

January 31, 2013, Friday

 

सद्गुरु शिष्य के द्वारा यदि कोई पूजन चाहता है तो वह यही चाहता है | इसके विपरीत शिष्य की आत्मिक उन्नति का कुछ भी ख्याल न रख जो मान,बड़ाई के भूखे रहते है, केवल अपने पैर पुजवाने, आरती उतरवाने में जिसको प्रसन्नता होती है,वे कदापि सद्गुरु नही है | विशेषकर जो गुरु के आसन पर बैठ कर धन और स्त्री की इच्छा करते है उनसे तो बहुत ही सावधान रहना चाहिये |

भागवत में कहा है की सत्पुरुष धन और स्त्रियो के संगियो का संग भी दूर से त्याग दे | इसके विपरीत, जो अपने को सत्पुरुष मानते है और कहलाते हुए भी कामिनी-कान्न्चन में आसक्त रहते है, उनको साधु मानना बहुत ही जोखिम का काम है | कुछ वर्ष पूर्व गोरखपुर में एक विद्वान सन्यासी आये थे, वे आठ साल से सदगुरु की खोज में थे | खेद की बात है भाग्यवश उन्हें आरम्भ में ही बहुत कटु अनुभव हो गए, जिससे वे उस समय भी शंकाशील बनगए थे  और ‘दूध का जला छाछ का भी फूकं-फूँक कर  पीता है’ इस कहावत के अनुसार वे हर जगह केवल संदेह करते  और श्रधा छोड़ कर केवल परीक्षा के लिए जाते थे जिससे उनको यथार्थ का मिलना एक प्रकार से कठिन सा हो गया था, यहाँ तक की दैवी सम्पति के गुणों को भी वे कुछ-कुछ अव्यवहारिक मानने लगे थे | तथापि वे यथार्थ में बहुत ही सच्चे, सद्गुणी साधु प्रतीत होते थे |
 

शेष अगले ब्लॉग में ...

नारायण नारायण नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

 
नित्यलीलालीन श्रधेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवत्चर्चा, पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर