जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शुक्रवार, मई 31, 2013

भक्त के लक्षण -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग में .. अंत में भगवान सर्व्गुह्तम आज्ञा देते है – ‘तू चिन्ता न कर, एकमात्र मेरी शरण आ जा, मैं तुझे सारे पापो से बचा लूँगा |’ 

तू मुझमे मन को लगा,मेरा भक्त बन,मेरी पूजा कर,मुझे नमस्कार कर,तू मेरा प्रिय है, इससे मैं तुझसे प्रतिज्ञा करके कहता हूँ की ऐसा करने से तू मुझको ही प्राप्त होगा | सारे धर्मो के आश्रयों को छोडकर तू केवल एक मेरी ही शरण में आ जा | मैं तुझको सब पापो से छुड़ा दूंगा | तू चिन्ता न कर |’ (गीता १८ |६५-६६)

इसलिए हमलोगो को नित्य-निरंतर श्रीभगवान का चिन्तन करना चाहिये | भक्तो के और भी अनेको गुण है, कहाँ तक कहा बखाने जाएँ |

अन्त में एक-दो बाते कीर्तन के सम्बन्ध में निवेदन करता हूँ | याद रखें, ‘कीर्तन बाजारी वस्तु नहीं है |’ यह भक्त की परम आदरणीय प्राण-प्रिय वस्तु है | इसलिये कीर्तन करने वाले इतना ध्यान रखे की कही यह बाजारू लोकमनोरंजन की चीज न बन जाये | इसमें कही दिखलाने का भाव न आ जाये | कीर्तन करने वाला भक्त केवल यह समझे की ‘बस, मैं केवल अपने भगवान के सामने ही कीर्तन कर रहा हूँ, यहाँ और कोई दूसरा है, इस बात की स्मृति भी उसे न रहे | दो बाते कभी नहीं भूलनी चाहिये | मन में भगवान के स्वरुप का ध्यान और प्रेम भरी वाणी के द्वारा मुख से अपने अपने प्रभु के पवित्र नाम की ध्वनि | ऐसा करते-करते वास्तविक प्रेम की दशाएं प्रगट होंगी और भगवान कहते है की फिर मेरा भक्त त्रिभुवन को तार देगा | 

प्रेम से उसकी वाणी गद-गद हो जाती है, चित द्रवीभूत हो जाता है, वह कभी जोर-जोर से रोता है, कभी हसता है, कभी लज्जा छोड़ कर गाता है, कभी नाचने लगता है, ऐसा मेरा परम भक्त त्रिभुवन को पवित्र कर देता है |’ (श्री मदभागवत ११|१४|२४)

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

गुरुवार, मई 30, 2013

भक्त के लक्षण -८-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, षष्ठी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में .. तुलसीदास जी ने कहा है –

कामहि नारी पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||

भक्त निरंतर अपने भगवान के लिए कामी और लोभी की दशा को प्राप्त रहता है | वह  कैसे उनको भुलावे ? और कैसे दुसरे विषय के लिए कामना या लोभ करे?

अत एव भक्त सदा-सर्वदा भगवान के चिन्तन में ही चित को लगाये रखता है | भगवान ने भी गीता में स्थान-स्थान पर नित्य-निरंतर चिन्तन करने की आज्ञा दी है | आठवे अध्याय में कहा है –

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय || (५)

‘जो मनुष्य मृत्यु के समय मुझको स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है , इसमें संदेह नहीं है |’  इस पर लोग सोचते है फिर जीवनभर भगवान का स्मरण करने की क्या जरुरत है | मरने के समय भगवान को याद कर लेंगे | याद करने मरने पर भगवत-प्राप्ति का वचन भगवान ने दे ही दिया है | इसी भ्रांत धारणा को दूर करने के लिए भगवान ने फिर कहा है –

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाबभावित: || (६)

यह नियम है की ‘मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर छोडकर जाता है, उसी-उसी को प्राप्त होता है; परन्तु अन्तकाल में भाव वही याद आता है, जिसका जीवनभर चिन्तन किया गया हो |’

यह नही कि जीवनभर तो मन से धन, मान कि रटन लगाते रहे और अन्तकाल में भगवान कि स्मृति अपने-आप हि हो जाये | इसलिये श्रीभगवान ने फिर आज्ञा कि –

तस्मात्सर्वेसु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पित्मनोबुद्धिर्मामेवैस्य्स संशयं || (७)

 अत एव हे अर्जुन ! तु सब समय (निरंतर) मेरा स्मरण करता हुआ ही युद्ध कर | इस प्रकार मुझमे अर्पित मन-बुद्धि  होने से तू निसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा |’ निरंतर स्मरण का महत्व तो देखिये, भगवान ने यही कहकर संतोष नहीं कर लिया  की ‘मुझको प्राप्त होगा’ ‘निसंदेह’ (असंशयम) और ‘ही’ (एव) ये दो निश्चय दृढ करानेवाले शब्द और जोड़े | इतने पर भी हम भगवान का स्मरण न करे तो हमारे समान मुर्ख  और कौन होगा ! |... शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!       

बुधवार, मई 29, 2013

भक्त के लक्षण -७-


    || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, पंचमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में .. एक बार ब्रह्मा जी भगवान के द्वार पर पहुचे, भगवान ने द्वारपाल के द्वारा उन्हें पुछवाया की ‘आप कौन से ब्रह्मा हैं ?’ ब्रह्मा को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ | वे सोचने लगे की ‘कहीं ब्रह्मा भी दस-बीस थोड़े ही है |’ उन्होंने कहा,जाओ  कह दो चतुर्मुख ब्रह्मा आये है |’ भगवान ने उनको अंदर बुलवाया | ब्रह्मा का कौतुहल शान्त नहीं हुआ, उन्होंने पूछा ‘भगवन ! आपने यह कैसे पुछा की कौन-से ब्रह्मा है ? क्या मेरे अतिरिक्त और भी कोई ब्रह्मा है ?’ भगवान् हँसे, उन्होंने विभिन्न  ब्रह्माण्ड के ब्रह्माओ का आवाहन किया | तत्काल वह वहाँ पर चार से लेकर हज़ार मुख तक के अनेको ब्रह्मा आ पहुचे | भगवान ने कहा, ‘देखो, ये सभी ब्रह्मा है, अपने-अपने ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा है |’ तब ब्रह्मा जी का संदेह दूर हुआ | ऐसे ब्रह्माओ के एकमात्र स्वामी जिसके प्राणप्रिय हो, वह  भक्त किस वस्तु की कामना करे |

पाँच सखियाँ थीं, पाँचों श्री कृष्ण की भक्त थी | एक समय वे वन में बैठी फूलों की माला गूँथ रही थी | उधर से एक साधु आ निकले | साधु को रोककर बालाओ ने कहा – ‘महात्मन ! हमारे प्राणनाथ  श्रीकृष्ण वन में कही खो गए है, उन्हें आपने देखा हो तो बतलाईये |’ इस पर साधुने कहा – ‘री पगलियो ! कही श्रीकृष्ण यों मिलते है | उनके लिए घोर तप करना चाहिये | वे राजराजेश्वर है, नाराज़ होते है तो दण्ड देते है और प्रसन्न होते है तो पुरूस्कार |’ सखियों ने कहा – ‘महात्मन ! आपके वे श्रीकृष्ण दुसरे होंगे, हमारे श्रीकृष्ण तो राजराजेश्वर नहीं है, वे तो हमारे प्राणपति है, वे हमे पुरूस्कार क्या देते? उनके खजाने की कुंजी तो हमारे पास रहती है | दण्ड तो वे कभी देते ही नहीं, यदि हम कभी कुपथ्य कर ले और वे कडवी दवा पिलावे तो यह तो  दण्ड नहीं है, प्रेम है |’ साधु उनकी बात सुनकर मस्त हो गए | वे अपने श्रीकृष्ण को याद करके नाचने लगी  और साथ ही साधु भी तन्मय होका नाचने लगे | यह कथा बहुत लम्बी है, मैंने बहुत संक्षेप में कही है | सारांश यह ही ऐसा भक्त प्रभु से क्या मांगे ? ऐसा भक्त तो निष्काम भाव से नित्य-निरंतर अति प्रेम के साथ उनका चिन्तन ही करता रहता है |... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!  

मंगलवार, मई 28, 2013

भक्त के लक्षण -६-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ..फिर वह चाहे भी क्या है ? जगत का सारा ऐश्वर्य जिसके सामने एक कण भी नहीं है, वह सर्वलोकमहेश्वर श्याम-सुन्दर उसका प्रियतम स्वामी है, उसकी सेवा को छोड़ कर वह क्या चाहे | इसलिए ललित किशोरी जी ने गया है –

अष्टसिद्धि नवनिधि हमारी मुटठी में हरदम रहती  |
नहीं जवाहिर सोना चाँदी त्रिभुवन की सम्पति चहतीं ||

भावें न दुनिया की बाते दिलवर की चरचा सहती |
‘ललितकिशोरी’ पार लगावे माया की सरिता बहती ||

भक्त तो केवल अपने प्रियतम स्वामी की सेवा में ही रहना चाहता है, वह सेवा को छोड़कर मुक्ति भी नहीं ग्रहण करता | करे भी कैसे? भगवान के उस अनन्य सेवक के लिए माया का बंधन तो है ही नहीं, जिससे व मुक्त होना चाहे | उसके तो केवल भगवत-सेवा का बन्धन है, भक्त इस प्यारे बन्धन से मुक्ति क्यों चाहेगा ? श्रीमदभागवत में भगवान कहते है –

‘मेरी सेवा को छोड़ कर मेरे भक्त सालोक्य, शर्ष्टि, सामीप्य, सारुप्य, एकत्व-इन मुक्तियो को देने पर भी नहीं लेते है |’ (३|२९|१३) 

भक्त जानता है, मेरे प्रभु समस्त ब्रह्मांडो के एकमात्र स्वामी है, मुक्ति उनके चरणों की दासी है | वह कहता है –

अब तो बंध मोक्ष की इच्छा व्याकुल कभी न करती है |
मुखड़ा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणों से झरती है ||

मुक्तिदायिनी गंगाजी श्रीभगवान् के चरणों का ही तो धोवन है |... शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

सोमवार, मई 27, 2013

भक्त के लक्षण -५-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ...५. भक्त किसी ने द्वेष नहीं करता या किसी पर क्रोध नहीं करता | किससे करे ? किस पर करे ? सारा जगत तो उसे स्वामी का स्वरुप दीखता है | शिवजी महाराज कहते है –

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध |
निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करही बिरोध ||

  भक्त विनय, नम्रता और प्रेम की मूर्ति होता है |

६. भक्त किसी वस्तु की कामना नहीं करता,उसे वह वस्तु प्राप्त है जिसके सामने सब कुछ तुच्छ है,तब व किसकी कामना करे और क्यों करे ? वस्तुत: प्रेम में कोई कामना रहती ही नहीं | प्रेम में देना है, वहाँ लेने का कोई नाम ही नहीं है | यही काम और प्रेम का बड़ा भरी भेद है | काम में प्रेमास्पद के द्वारा अपने सुख की चाह है और प्रेम में अपने द्वारा प्रेमास्पद को सुखी बनाने की उत्कट इच्छा है | उसके लिए वही सबसे बड़ा सुख है, जिससे उसके प्रेमास्पद को सुख मिले, चाहे वह अपने लिये कितने ही भयानक कष्ट का कारण हो | प्रेमास्पद के सुख को देख कर प्रेमी की भयानक पीड़ा तुरंत महान सुख के रूप में परिणत हो जाती है | अत एव भगवान का भक्त कभी कामी नहीं होता, वह तो चातक की भातीं मेघ रूप भगवान की और सदा एकटक दृष्टि से निहारा करता है | बदल यदि न बरसे या जल के बदले ओले बरसावे, तो भी व प्रेम के नेम का पक्का पपीहा उधर से मुँह नही मोड़ता |

रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गये अंग |
‘तुलसी’ चातक प्रेम को, नित नूतन रूचि रंग ||

बरषि परुष पाहन पयद, पंख करे टुक टुक |
‘तुलसी’ परी न चाहिये, चतुर चातकहि चूक ||

 यही दशा भक्त की है |... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     

रविवार, मई 26, 2013

भक्त के लक्षण -४-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, प्रतिपदा, रविवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ... ४.भक्त में अभिमान नहीं होता, वह तो सारे जगत में अपने स्वामी को व्याप्त देखता है और अपने को उनका सेवक समझता है | सेवक के लिए अभिमान का स्थान कहाँ? उसके द्वारा जो कुछ होता है सो सब उसके भगवान की शक्ति और प्रेरणा से होता है | ऐसा विनम्र भक्त सदा सावधानी से इस बात को देखता रहता है की कही मेरे किसी कार्यद्वारा या चेष्टाद्वारा मेरे विश्व्व्याप्त  स्वामी का तिरिष्कार न हो जाये | मेरे द्वारा सदा-सर्वदा उनकी आज्ञा का पालन होता रहे, मैं सदा उनकी रूचि के अनुकूल चलता रहू | वह अपने को उस सूत्रधार के हाथ की कठपुतली समझता है | सूत्रधार जैसे नचाता है, पुतली वैसे ही नाचती है, वह इसमें अभिमान क्या करे ? अथवा यो समझिये की सारा संसार स्वामी का नाट्यमंच है, इसमें हम सभी लोग नट है, जिसको स्वामी ने जो स्वांग दिया है, उसी के अनुसार सांगोपांग खेल खेलना, अपना पार्ट करना अपना कर्तव्य है | जो आदमी मालिक की रूचि के अनुसार उसका काम नहीं करता वह नमकहराम है और जो मालिक की संपत्ति को अपनी मान लेता है वह बइमान है |

नट पार्ट करता है, स्टेज पर किसी के साथ पुत्रका सा, किसी के साथ पिताका सा, किसी के साथ मित्र का सा यथायोग्य वर्ताव करता है , परन्तु वस्तुत: किसी भी वस्तु को  अपनी पोशाक तक को अपनी नहीं सझता | इसी प्रकार भगवान का भक्त उनकी नाट्यशाला इस दुनिया में उनके संकेतानुसार उन्ही के दिए हुए स्वांग को लेकर आलस्यरहित हो उन्ही की शक्ति से कर्म किया करता है | इसमें वह अभिमान किस बात का करे?  वह मालिक का विधान किया हुआ है – बताया हुआ अभिनय करता है न की अपनी और से कुछ | पार्ट करने में चूकता नहीं, क्योकि इसमें मालिक का खेल बिगढ़ता है; और अपना कुछ मानता नहीं, क्योकि वह जानता है की सब मालिक का खेल है, मेरा कुछ भी नहीं | वह मालिक को ही सबका नियंत्रण करना वाला और सर्वर्त्र व्याप्त देखता है और अपने को उसका अनन्य सेवक समझता है |

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ||... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शनिवार, मई 25, 2013

भक्त के लक्षण -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, पूर्णिमा, शनिवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ...३. भक्त का किसी विषय में ममत्व नहीं होता | उसका सारा ममत्व एकमात्र अपने प्राण आराध्य भगवान में हो जाता है | फिर जगत के पदार्थो में कही उसका ममत्व रहता है तो उसको भगवान के पूजन की सामग्री या भगवान की वस्तु समझकर ही रहता है | अपने या अपने भोगो के सम्बन्ध में नहीं | रामचरितमानस में भगवान के कहा है जननी जनक बन्धु सुत दारा | तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ||
सब कै ममता ताग बटोरी  | मम पद मनही बाध बरि डोरी ||
अस सज्जन मम उर बस कैसे | लोभी ह्रदय बसई धनु जैसे ||

संसार में मनुष्य चारो और ममता के बन्धन से जकड़ा हुआ है | उसका एक-एक रोम ममत्व के धागे से बंधा है | भगवान कहते है-‘मनुष्य माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, मकान, सुहृद परिवार आदि सबमेसे ममता के सूत्रों को अलग करके उनकी एक मजबूत डोरी ब ले और उस डोरी के द्वारा अपने मन को मेरे चरणों से बाँध दे, तो वह सज्जन मेरे मन-मदिर में उसी प्रकार निवास करता है जिस प्रकार लोभी के मन में धन |’ यह ममता का बंधन इसलिए कच्चे धागे का बतलाया गया है की इसके टूटते देर नहीं लगती | जहा कही स्वार्थ में बाधा आई की ममता का धागा टुटा, विषयजनित सारा प्रेम अपने लिए होता है  न की प्रेमास्पद के लिए | इसलिए वह टूटता भी शीघ्र है; परन्तु जैसे धागों की मजबूती रस्सी बट लेने पर वह नहीं टूटती, इसी प्रकार जगत की सारी ममता सब जगह से बटोर कर एक भगवान के चरणों में लगा दी जाये तो फिर उसके नष्ट होने की कोई सम्भावना नहीं है | इसलिए यह कहा गया है की भगवान के प्रति होने-वाला सच्चा प्रेम सदा बढ़ता ही रहता है, कभी हटता नहीं |

संसार के दुखो का एक प्रधान कारण ममता है, न मालूम कितने लोग रोज मरते है और कितने लोगो का धन का नित्य नाश होता है, पर हम किसी के लिए नहीं रोते ! लेकिन यदि कोई हमारे घर का आदमी मर जाए तो या कुछ धन नष्ट हो जाये तो शोक होता है | इसका कारण ममता ही है | मान लीजिये हमारा एक मकान है , अगर कोई आदमी उसकी एक ईट निकल दे तो हमे बहुत बुरा मालूम होता है | हमने उस मकान को बेच दिया और उसकी कीमत का चेक ले लिया | अब उस मकान की एक-एक ईट से ममता निकल कर हमारी जेब में रखे हुए कागज के  टुकड़े में आ गयी | अब चाहे मकान में आग लग जाये, हमे कोई चिन्ता नहीं | चिंता है अब कागज के चेक की | बैंक में गए, चेक के रूपये हमारे खाते में जमा हो गए | अब भले ही बैंक का क्लर्क उस कागज के टुकड़े को फाड़े डाले, हमे कोई चिंता नहीं | अब उस बैंक की चिंता है की कही वह फेल न हो जाए; क्योकि उसमे हमारे रूपये जमा है | इस प्रकार जहा ममता है वही शोक है | यदि हमारी सारी ममता भगवान में अर्पित हो जाये, फिर शोक का जरा भी कारण न रहे | भक्त तो सर्वस्व अपने प्रभु के अर्पण कर उसको अपना बना लेता है और आप उसका बन जाता है | उसमे कही दुसरे के लिए ममता रहती ही नहीं, इसलिये शोक रहित होकर सर्वदा आनन्द में मग्न रहता है |... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   

शुक्रवार, मई 24, 2013

भक्त के लक्षण -२-



        || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
 
गत ब्लॉग में ...२. भगवान का भक्त निर्भय होता है | वह जानता है की समस्त विश्व के स्वामी, यमराज का भी शासन करने वाले भगवान श्यामसुन्दर हर घडी मेरे साथ है, मेरे रक्षक है | फिर उसे डर किस बात का हो? भगवान की शरण जिसने ले ली, वही निर्भय हो गया | लंका में रावण के द्वारा अपमानित होकर जब विभीषण नाना प्रकार के मनोरथ करते हुए भगवान की शरण में आये, तब उन्हें द्वार पर खड़े रखकर सुग्रीव इस बात की सूचना देने भगवान श्रीराम के पास गये | श्री राम ने सेनापति सुग्रीव से पूछा-‘क्या करना चाहिये?’ राजनीति कुशल सुग्रीव ने उतर दिया –

जानी न जाय निसाचर माया | कामरूप केहि कारन आया ||
भेद हमार लेन सठ आवा | राखिअ बाँधी मोहि अस भावा ||

समीप में बैठे हुए भक्तराज हनूमान ने मन-ही-मन सोचा, ‘सुग्रीव क्या कह गए | अरे, जिसका नाम भूल से निकल जाने पर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाता है, उस मेरे राम के चरणों में आने वाले के लिए बंधन की बात कैसी !’ परन्तु स्वामी और सेनापति के बीच में बोलना अनुचित समझकर हनूमान चुप रहे |

शरणागतवत्सल भगवान श्रीराम ने सुग्रीव की प्रसशा करते हुए अपना व्रत बतलाया-

सखा नीति तुम्ह नीकि विचारी | मम पशरनागत भय हारी ||

 हनूमान का मन खिल उठा | वाल्मीकि रामायण में भी भगवान श्रीराम से ऐसी ही बात कही है –

सकृदेव प्रपत्राय तवास्मीति च याचते |
अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद्वत्व्रतं मम ||   ( ६|१८|३३)

‘जो एक बार भी मेरी शरण होकर यह  कह देता है की ‘मै तेरा हुँ, मै उसको सम्पुर्ण भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ भला ऐसी हालत में भगवान का सच्चा भक्त निर्भय क्यों न होगा ?’... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, मई 23, 2013

भक्त के लक्षण -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, त्रयोदशी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

भगवान को भक्तो का बड़ा महत्व है | वे जगत के लिए आदर्श होते है; क्योकि भगवद्भक्ति के प्रताप  से उनमे दुर्लभ दैवी गुण अनिवार्यरूप से प्रकट हो जाते है, जो उनके लिए स्वाभाविक लक्षण होते है | भक्त का स्वरुप जानने के लिये उन लक्षणों का जानना आवश्यक है | उनमे से कुछ ये है -

१. भक्त अज्ञानी नहीं होता, वह भगवान के प्रभाव, गुण, रहस्य को तत्व से जानने वाला होता है | प्रेम के लिए ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है | किसी न किसी अंश में जाने बिना उससे प्रेम नहीं हो सकता और प्रेम होने पर ही उसका गुह्तम यथार्थ रहस्य जाना जाता है | भक्त भगवान के गुह्तम रहस्य को जानता है, इसलिए भगवान के प्रति उसका प्रेम उतरोतर बढ़ता ही रहता है | भगवान रससार है | उपनिष भगवान को ‘रसो वै स:’ कहते है | इस प्रेम में भी द्वैत  नहीं भासता ! प्रेम की प्रबलता से ही राधा जी कृष्ण बन जाती है और श्री कृष्ण राधा जी | कबीर साहब कहते है – 

जब में था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नायँ |
प्रेम-गली अति साँकरी, यामे दो न समायँ ||

वस्तुत: ज्ञानी और भक्त की स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता | भेद इतना ही है, ज्ञानी ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ कहता है और भक्त ‘वासुदेव: सर्वमिति’ अथवा गोसाइजी की भाषा में वह कहता है –

सिय राममय सब जग जानी |
करऊँ प्रनाम जोरि जग पानी || .........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!