|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग
में ..फिर वह चाहे भी क्या है ? जगत का
सारा ऐश्वर्य जिसके सामने एक कण भी नहीं है, वह सर्वलोकमहेश्वर श्याम-सुन्दर उसका
प्रियतम स्वामी है, उसकी सेवा को छोड़ कर वह क्या चाहे | इसलिए ललित किशोरी जी ने
गया है –
अष्टसिद्धि नवनिधि हमारी मुटठी में
हरदम रहती |
नहीं जवाहिर सोना चाँदी त्रिभुवन की
सम्पति चहतीं ||
भावें न दुनिया की बाते दिलवर की चरचा
सहती |
‘ललितकिशोरी’ पार लगावे माया की सरिता
बहती ||
भक्त तो केवल अपने प्रियतम
स्वामी की सेवा में ही रहना चाहता है, वह सेवा को छोड़कर मुक्ति भी नहीं ग्रहण करता
| करे भी कैसे? भगवान के उस अनन्य सेवक के लिए माया का बंधन तो है ही नहीं, जिससे
वह मुक्त होना चाहे | उसके तो केवल भगवत-सेवा का
बन्धन है, भक्त इस प्यारे बन्धन से मुक्ति क्यों चाहेगा ? श्रीमदभागवत में भगवान
कहते है –
‘मेरी सेवा को छोड़ कर मेरे भक्त
सालोक्य,
शर्ष्टि, सामीप्य, सारुप्य,
एकत्व-इन मुक्तियो को देने पर भी नहीं लेते है |’
(३|२९|१३)
भक्त जानता है, मेरे प्रभु समस्त ब्रह्मांडो के
एकमात्र स्वामी है, मुक्ति उनके चरणों की दासी है | वह कहता है –
अब तो बंध मोक्ष की इच्छा व्याकुल कभी
न करती है |
मुखड़ा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणों
से झरती है ||
मुक्तिदायिनी
गंगाजी श्रीभगवान् के चरणों का ही तो धोवन है |... शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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