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भक्त के लक्षण -६-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ..फिर वह चाहे भी क्या है ? जगत का सारा ऐश्वर्य जिसके सामने एक कण भी नहीं है, वह सर्वलोकमहेश्वर श्याम-सुन्दर उसका प्रियतम स्वामी है, उसकी सेवा को छोड़ कर वह क्या चाहे | इसलिए ललित किशोरी जी ने गया है –

अष्टसिद्धि नवनिधि हमारी मुटठी में हरदम रहती  |
नहीं जवाहिर सोना चाँदी त्रिभुवन की सम्पति चहतीं ||

भावें न दुनिया की बाते दिलवर की चरचा सहती |
‘ललितकिशोरी’ पार लगावे माया की सरिता बहती ||

भक्त तो केवल अपने प्रियतम स्वामी की सेवा में ही रहना चाहता है, वह सेवा को छोड़कर मुक्ति भी नहीं ग्रहण करता | करे भी कैसे? भगवान के उस अनन्य सेवक के लिए माया का बंधन तो है ही नहीं, जिससे व मुक्त होना चाहे | उसके तो केवल भगवत-सेवा का बन्धन है, भक्त इस प्यारे बन्धन से मुक्ति क्यों चाहेगा ? श्रीमदभागवत में भगवान कहते है –

‘मेरी सेवा को छोड़ कर मेरे भक्त सालोक्य, शर्ष्टि, सामीप्य, सारुप्य, एकत्व-इन मुक्तियो को देने पर भी नहीं लेते है |’ (३|२९|१३) 

भक्त जानता है, मेरे प्रभु समस्त ब्रह्मांडो के एकमात्र स्वामी है, मुक्ति उनके चरणों की दासी है | वह कहता है –

अब तो बंध मोक्ष की इच्छा व्याकुल कभी न करती है |
मुखड़ा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणों से झरती है ||

मुक्तिदायिनी गंगाजी श्रीभगवान् के चरणों का ही तो धोवन है |... शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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