जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, जून 23, 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -23-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २०७०

एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -२-

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -जैसे एक ही सूर्य समस्त लोकोंको प्रकाशित करता है, उसी का प्रकाश प्राणिमात्रके नेत्रोंमें प्रकाश देता है और प्राणिमात्र उन्हीं नेत्रोंसे विभिन्न प्रकारके बाहरी दोषोंमें लिप्त होते हैं – गुण-दोषमय वस्तुओंको देखते हैं | प्राणी नेत्रोंकी सहायतासे विभिन्न प्रकारके गुण-दोषमय कार्य करते हैं, पर उन सबका प्रकाशक वह सूर्य जैसे किसीके उन गुण-दोषोंसे लिप्त नहीं होता, वैसे ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा परमात्मा (उन परमात्माकी ही शक्ति-सत्तासे क्रियाशील होकर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके द्वारा ) प्राणी अनंत प्रकारके जो शुभाशुभ जो कर्म करते हैं, उन क्रूर कर्मोंसे एवं उनके फल-रूप सुख-दुखसे लिप्त नहीं होते | वे सबमें रहते हुए ही सबसे पृथक तथा सर्वथा असंग रहते हैं |

 

याद रखो -ऐसे वे परमात्मा सदा ही सबके अन्तरात्मा हैं, एक अद्वितीय हैं | सबको सदा अपने वशमें रखते हैं | वे एक ही अपने रूपको अपनी लीला से बहुत प्रकारका बनाए हुए हैं | उन परमात्माको जो धीर-ज्ञानी पुरुष निरंतर अपने अंदर देखते हैं, उन्हींको नित्य सनातन सदा रहनेवाला आत्यांतिक सुख परमानंद मिलता है, दूसरोंको नहीं |

 

याद रखो -जो समस्त नित्योंके भी नित्य आत्मा हैं, जो समस्त चेतनोंके चेतन आत्मा हैं और जो एक होते हुए भी इन अनंत जीवोंकी कामनाओंको पूर्ण करते हैं, उन नित्य आत्मामें स्थित एक परमात्माको जो धीर-ज्ञानी पुरुष निरंतर देखते रहते हैं, उन्हींको नित्य सनातन (सदा रहनेवाली ) शान्ति मिलती है, दूसरोंको नहीं |

 

याद रखो -यह तत्त्व-ज्ञानी भगवत-प्राप्त पुरुषोंका अनुभव है | यह वेदवाणी है | यह उपनिषद्की घोषणा है | इसको समझो और इसके अनुसार साधन करके परमात्माको नित्य-निरंतर बाहर-भीतर देखो एवं अपने मानव-जीवनको सफल करो |.... शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!      

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