|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण, चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०
पाप और उसका फल
मनुष्य जब रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श – इन्द्रियों के इन पाँच विषयों में से किसी एक में भी आसक्त हो जाता है, तब उसे राग-देष के पंजे मे फँस जाना पढता है | फिर वह जिसमे राग होता है उसको पाना और जिसमे देष होता है उसका नाश करना चाहता है | यो करते-करते वह बड़े-बड़े भयानक काम कर बैठता है और निरंतर इन्द्रियों के भोगो में ही लगा रहता है | इसमें उसके ह्रदय में लोभ-मोह, राग-देष छा जाते है | इसके प्रभाव से उसकी धर्म-बुधि, जो समय-समय पर उसे चेतावनी देकर पाप से बचाया करती थी, नष्ट हो जाति है | तब वह छल-कपट और अन्याय से धन कमाने में लगता है |
जब दूसरो को धोखा देकर, अन्याय और अधर्म से कुछ कमा लेता है, तब फिर इसी रीती से धन कमाने में उसे रस आने लगता है | उसके सुहृद और बुद्धिमान लोग उसके इस काम को बुरा बतलाते और उसे रोकते है, तब वह भांति-भांति की बहानेबाजियाँ करने लगता है | इस प्रकार उसका मन सदा पाप में ही लगा रहता है, उसके शरीर और वाणी से भी पाप होते है | वह पापी जीवन होकर फिर पापिओ के साथ ही मित्रता करता है और इसके फलस्वरूप न तो इस लोक में सुख पाता है और न परलोक में ही उसे सुख-शांति की प्राप्ति होती है | (महाभारत, शांतिपर्व)
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—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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