।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण,
सप्तमी, शनिवार, वि० स०
२०७०
संतोष
गत ब्लॉग से आगे ...संतोष ही परम कल्याण है । संतोष ही परम सुख है । संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है । संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते । संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ तिनके के समान होता है । विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता । सांसारिक भोग-सामग्री उसे विष के समान जन पढ़ती है । संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमड़ता हुआ समुद्र भी फीका पड़ जाता है । जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते । जब तक अन्तकरण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपतियाँ है । संतोषी चित निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है । संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलौकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दु:खी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है । संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पित्र और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है । भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवस्य करना चाहिये । (योगवसिष्ठ)
शेष अगले ब्लॉग में.....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा
पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर,
उत्तरप्रदेश, भारत
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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