॥श्रीहरि:॥
८३
प्रभु
! तुम अपनौ बिरद सँभारौ।
हौं
अति पतित,
कुकर्मनिरत, मुख मधु, मन
कौ बहु कारौ॥
तृस्ना-बिकल,
कृपन, अति पीडित, काम-ताप
सौं जारौ।
तदपि
न छुटत विषय-सुख-आसा, करि प्रयत्न हौं
हारौ॥
अब
तौ निपट निरासा छाई, रह्यौ न आन सहारौ।
एक
भरोसौ तव करुना कौ, मारौ चाहें तारौ॥
८४
प्रभु
! मोहि देउ साँचौ प्रेम।
भजौं
केवल तुमहि, तजि पाखंड, झूँठे नेम॥
जरै
बिषय-कुबासना, मन जगै सहज बिराग।
होय
परम अनन्य तुहरे पद-कमल-अनुराग॥
—परम
श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी
, पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर
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