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परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -१-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
भगवत्प्राप्ति के साधक को या परमार्थ-पथ के पथिक को एक-एक पैर सँभालकर रखना चाहिये | इस मार्ग में अनेक विघ्न है | आज उनमे से आठ प्रधान विघ्नों के सम्बन्ध में कुछ आलोचना करते है-वे-आठ ये है-आलस्य, विलासिता, प्रसिद्धि, मान-बड़ाई, गुरुपन,बाहरी दिखावा, पर-दोष-चिन्तन और सांसारिक कार्यों की अत्यन्त अधिकता |

आलस्य-आलसी मनुष्य का जीवन तमोमय रहता है | वह किसी भी काम को प्राय: पूरा नहीं कर पाता | आज-कल करते-करते ही उसके जीवन के दिन पूरे हो जाते है | वह परमार्थ की बाते सुनता-सुनाता है, वे उसे अच्छी भी लगती है, परन्तु आलस्य उसे साधन में तत्पर नहीं होने देता | श्रद्धावान पुरुष भी आलस्य के कारण उदेश्य-सिद्धि तक नहीं पहुच पाता | इसलिए श्रद्धा के साथ ‘तत्परता’ की आवश्यकता भगवान ने गीता में बतलाई है | आलस्य से तत्परता का विरोध है, आलस्य सदा यही भावना उत्पन्न करता है की ‘क्या है, पीछे कर लेंगे |’ जब कभी उसके मन में कुछ करने की भावना होती है, तभी आलस्य प्रमाद, जम्हाई, तन्द्रा आदि के रूप में आकर उसे घेर लेता है | अतएव आलस्य को साधन-मार्ग का एक बहुत बड़ा शत्रु मानकर जिस किसी उपाय से भी उसका नाश करना चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ...     

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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