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विषय और भगवान -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, नवमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 विषय और भगवान -९-

गत ब्लॉग से आगे.....हमलोग बहुत ही भूल में है जो सर्वाधार भगवान् को छोड़कर बाह्य विनाशी वस्तुओं के पीछे भटक-भटक कर अपना अमूल्य मानव-जीवन व्यर्थ खो रहे है | कामना के इस दासत्व ने आठों पहर के भिखमंगेपन ने हमे बहुत ही नीचाशय बना दिया है | हम बड़े ही अभिमान से अपने को ‘महत्वाकांक्षा’ वाला प्रसिद्ध करते है, परन्तु हमारी वह महत्वाकांक्षा होती है प्राय: उन्ही पदार्थों के लिए जो विनाशी और वियोगशील है | असत और अनित्य की आकांक्षा  महत्वाकांक्षा कदापि नहीं है | हमे उस अनन्त, महान की  आकांक्षा करनी चाहिये, जिसके संकल्प मात्र से विश्व-चराचर की उत्पति और लय होता है और जो सदा सबमे समाया हुआ है | जब तक मनुष्य उसे पाने की इच्छा नहीं करता, तब तक उसकी सारी इच्छाएँ तुच्छ और नीच ही है | इन तुच्छ और नीच इच्छाओं के कारण ही हमे अनेक प्रकार की याचनाओं का शिकार बनना पडता है | यदि किसी प्रकार भी हम अपनी इच्छाओं का दमन न कर सके तो कम-से-कम हमे अपनी इच्छाओं की पूर्ती चाहनी चाहिये-भक्तराज ध्रुव की भाँती-उस परम सुहृद एक परमात्मा से ही | माँगना ही है तो फिर उसी से माँगना चाहिये | उसी का ‘अर्थार्थी’ भक्त बनना चाहिये, जिसके सामने इंद्र, ब्रह्मा सभी हाथ पसारते है और जो अपने सामने हाथ पसारनेवाले को अपनाकर उसे बिना पूर्णता की प्राप्ति कराये, बिना अपनी अनूप-रूप-माधुरी दिखाये कभी छोड़ना ही नहीं चाहता |

परम भक्तवर गोसाई श्री तुलसीदास जी महाराज कहते है

जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहै सुरलोक सुठोरहि |

सो कमला तजि चंचलता, करी कोटि कला रिझवै सिरमौरही ||

ताकों कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि |

जानकी-जीवन को जनु  है जरि जाऊसो जीह जो जाचत औरही ||

जग जाचिअ कोऊ न, जाचिअ जौ, जियँ जाचिअ जानकीजानहि रे |

जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे ||

गति देखु बिचारी विभीषनकी, अरु आनु हियँ हनुमानहि रे |

तुलसी ! भजु दारिद-दोष-दवानल, संकट-कोटि-कृपानही रे ||

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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