जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, अक्तूबर 24, 2013

वर्णाश्रम धर्म -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, पन्चमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

गृहस्थ के धर्म

             गत ब्लॉग से आगे...जिस ब्राह्मण को अधिक अर्थकष्ट हो, वह या तो वणिक्-वृतिके द्वारा व्यापार आदि से उसको पार करे अथवा खडगधारण पूर्वक क्षत्रिय-वृति का अवलंबन करे; लेकिन किसी भी दशा में नीच-सेवा रूप श्र्व-वृति का आश्रय न ले । क्षत्रिय को यदि दारिद्रय से कष्ट हो तो या तो वैश्यवृति या मृगया (शिकार) और या ब्राह्मणवृति (पढ़ाने) से कालयापन करे किन्तु नीच-सेवा का आश्रय कभी न ले । इसी प्रकार आपतिग्रस्त वैश्य शूद्रवृति रूप सेवा का और शूद्रप्रतिलोम (उच्च वर्ण की स्त्री में नीच वर्ण के पुरुष से उत्पन्न ) जाति के कारू (धुना) आदि की चटाई आदि बुनने की वृतिका आश्रय ले ।(ये सब विधान आपतकाल के लिए ही है ) । आपति से मुक्त होने पर लोभ पूर्वक नीचवृति का आवलंबन कोई न करे |

                गृहस्थ पुरुष को चाहिये की वेदाध्यन्न, स्वधा(पितृ यज्ञ), बलिवैस्व्देव तथा अन्न-दानादि के द्वारा मेरे ही रूप देव, ऋषि, पितर और अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति पूजा करता रहे । स्वयं प्राप्त अथवा शुद्ध वृति के द्वारा उपार्जित धन से तथा अपने द्वारा जिनका भरण-पोषण होता हो, उन लोगो को कष्ट न पहुचाकर न्याय-पूर्वक यज्ञादि शुभ कर्म करता रहे । अपने कुटुम्ब में ही आसक्त न हो जाय, बड़ा कुटुम्बी होकर प्रमादवश भगवद-भजन को न भुलाये बुद्धिमान विवेकी को उचित है की प्रयत्क्ष प्रपंच के सामान स्वर्गादी को भी नाशवान जाने । यह पुत्र-स्त्री-कुटुम्ब आदि का संयोग मार्ग में चलने वाले पथिकों के संयोग के सामान आगमापायी है । निंद्रावश होने पर स्वप्न के समान जन्म-जन्मान्तर में ऐसे नाना संयोग-वियोग होते रहते है ।ऐसा विचार करके मुमुक्षु पुरुष को चाहिये की घर में अतिथि के समान ममता और अहंकार से रहित होकर रहे, असक्तिव्श उसमे लिप्त न हो जाये ।

                            गृह्स्थोचित कर्मो के द्वारा मेरा यजन करता हुआ मेरी भक्ति से युक्त होकर चाहे घर में रहे, चाहे वानप्रस्थ होकर वन में बसे अथवा पुत्रवान हो तो (स्त्री के पालन-पोषण का भार पुत्र को सौपकर) सन्यास ले ले । किन्तु जो गृह में आसक्त है, पुत्रैश्ना और वितैष्णा से व्याकुल है, स्त्री-लम्पट, लोभी और मंदमति है, वह मूढ़ ‘मै’ और ‘मेरा’ इस मोह बन्धन में बंध जाता है । वह सोचता है ‘अहो ! मेरे माता-पिता बूढ़े है, स्त्री बाला (छोटी अवस्था की) है, बाल-बच्चे है; मेरे बिना ये अति दीन, अनाथ और दुखी होकर कैसे जियेंगे? इस प्रकार गृहासक्ति से विक्षिप्त-चित हुआ यह मूढ़-बुद्धि विषय भोगो से कभी तृप्त नहीं होती और इसी चिंता में पड़ा रह कर एक दिन घोर-अन्धकार में पडता है |.... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!        

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