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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, पन्चमी, गुरूवार,
वि० स० २०७०
गृहस्थ के धर्म
गत
ब्लॉग से आगे...जिस
ब्राह्मण को अधिक अर्थकष्ट हो, वह या तो वणिक्-वृतिके द्वारा व्यापार आदि से उसको
पार करे अथवा खडगधारण पूर्वक क्षत्रिय-वृति का अवलंबन करे; लेकिन किसी भी दशा में नीच-सेवा रूप
श्र्व-वृति का आश्रय न ले । क्षत्रिय को यदि दारिद्रय से कष्ट हो तो या तो
वैश्यवृति या मृगया (शिकार) और या ब्राह्मणवृति (पढ़ाने) से कालयापन करे किन्तु
नीच-सेवा का आश्रय कभी न ले । इसी प्रकार आपतिग्रस्त वैश्य शूद्रवृति रूप सेवा का
और शूद्रप्रतिलोम (उच्च वर्ण की स्त्री में नीच वर्ण के पुरुष से उत्पन्न ) जाति
के कारू (धुना) आदि की चटाई आदि बुनने की वृतिका आश्रय ले ।(ये सब विधान आपतकाल के
लिए ही है ) । आपति से मुक्त होने पर लोभ पूर्वक नीचवृति का आवलंबन कोई न करे |
गृहस्थ पुरुष को चाहिये की
वेदाध्यन्न, स्वधा(पितृ यज्ञ), बलिवैस्व्देव तथा अन्न-दानादि के द्वारा मेरे ही
रूप देव, ऋषि, पितर और अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति पूजा करता रहे । स्वयं प्राप्त अथवा शुद्ध वृति के द्वारा उपार्जित धन से
तथा अपने द्वारा जिनका भरण-पोषण होता हो, उन लोगो को कष्ट न पहुचाकर न्याय-पूर्वक
यज्ञादि शुभ कर्म करता रहे । अपने कुटुम्ब में ही आसक्त न हो जाय, बड़ा कुटुम्बी होकर प्रमादवश भगवद-भजन
को न भुलाये ।
बुद्धिमान विवेकी को उचित है की प्रयत्क्ष प्रपंच के सामान स्वर्गादी को भी नाशवान
जाने । यह पुत्र-स्त्री-कुटुम्ब आदि का संयोग मार्ग में चलने वाले पथिकों के संयोग
के सामान आगमापायी है । निंद्रावश होने पर स्वप्न के समान जन्म-जन्मान्तर में ऐसे
नाना संयोग-वियोग होते रहते है ।ऐसा विचार करके मुमुक्षु पुरुष को चाहिये की घर
में अतिथि के समान ममता और अहंकार से रहित होकर रहे, असक्तिव्श उसमे लिप्त न हो
जाये ।
गृह्स्थोचित कर्मो
के द्वारा मेरा यजन करता हुआ मेरी भक्ति से युक्त होकर चाहे घर में रहे, चाहे
वानप्रस्थ होकर वन में बसे अथवा पुत्रवान हो तो (स्त्री के पालन-पोषण का भार पुत्र
को सौपकर) सन्यास ले ले । किन्तु जो गृह में आसक्त है, पुत्रैश्ना और वितैष्णा से
व्याकुल है, स्त्री-लम्पट, लोभी और मंदमति है, वह मूढ़ ‘मै’ और ‘मेरा’ इस मोह बन्धन
में बंध जाता है । वह सोचता है ‘अहो
! मेरे माता-पिता बूढ़े है, स्त्री बाला (छोटी अवस्था की) है, बाल-बच्चे है; मेरे
बिना ये अति दीन, अनाथ और दुखी होकर कैसे जियेंगे?’ इस प्रकार गृहासक्ति से विक्षिप्त-चित हुआ यह
मूढ़-बुद्धि विषय भोगो से कभी तृप्त नहीं होती और इसी चिंता में पड़ा रह कर एक दिन
घोर-अन्धकार में पडता है |.... शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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