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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण, सप्तमी, रविवार,
वि० स० २०७०
परदोष-दर्शन तथा पर-निंदासे हानि -१-
गत
ब्लॉग से आगे ...१०.याद रखो
-मनुष्यमें एक बड़ी मानसिक दुर्बलता यह है की वह अपनी प्रशंसा
सुनकर और दूसरोंकी निंदा सुनकर प्रसन्न होता है । अपनी प्रशंसामें
और परनिंदामें उसे निरंतर बढ़नेवाली एक ऐसी मिठास आने लगती है की वह कभी अघाता ही
नहीं और फिर स्वयं ही अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने लगता है ।
याद रखो -जगत में गुण-दोष भरे हैं, पर जिसकी वृत्ति दोष देखने की हो जाती है,
उसे पर-दोषों को ढूँढ-ढूँढकर देखने तथा उनका बढ़ा-चढ़ाकर बखान करनेमें रस आने लगता
है ।
यह बहुत बुरी वृत्ति होती है । इस वृत्तिके हो जानेपर पर-दोष
देखना और पर-निंदा करना ही उसका प्रधान कार्य हो जाता है । फिर, वह जैसे
अपने अति आवश्यक कामको मन लगाकर तथा विभिन्न साधानोंसे संपन्न करना चाहता है,
वैसेही पर-दोष दर्शन तथा पर-निंदामें अपने तमाम साधनों को लगा देता है । यही उसका स्वभाव
बन जाता है ।
याद रखो -जिसका दोष देखनेका स्वभाव हो जाता है, उसकी आँखें बदल जाती है, उसे
गुणमें भी दोष दिखाई देते हैं और वह गुणको भी दोष बताकर निंदा करने लगता है । इसीको ‘असूया’
दोष कहते हैं।
याद रखो -मनुष्य अपने सच्चे दोषोंकी भी निंदा सुनना नहीं चाहता, यद्यपि यह उसकी
कमजोरी है, फिर झूठी निंदा सुननेपर तो उसे क्षोभ होता ही है और निंदा करनेवालेके
प्रति द्वेष-द्रोह हो जाता है ।
उस द्वेष-द्रोहके कारण वह भी
अपने निंदक की निंदा करता है और उससे कलह करता है । परिणाम यह होता
है – आपसमें दोनों का वैर बंध जाता है और दोनों ही एक दुसरेका अनिष्ट करनेमें लग
जाते हैं ।
दोनोंके ही अपने-अपने बंधू-बांधव होते हैं; अतएव इनके वैरका विष उन लोगोंमें भी फैलता
है और परस्पर विरोधी दल बन जाते हैं, जिसका परिणाम झगड़ा ही नहीं, हिंसा-ह्त्या तक
हो जाता है और कैद-फांसीकी भी नौबत आ जाती है । फिर पीढ़ियों तक
वैर चलता है।.... शेष
अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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