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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण, एकादशी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
भगवान् की उपासना का यथार्थ स्वरुप -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -तुम्हें मन मिला है सारी वासना-कामनाओंके जालसे मुक्त होकर समस्त
जागतिक स्फुरनाओंको समाप्तकर भगवान् के रूप-गुण-तत्त्वका मनन करनेके लिए और बुद्धि
मिली है – निश्चयात्मिका होकर भगवान् में लगी रहने के लिए । यही मन-बुद्धिका
समर्पण है ।
भगवान् यही चाहते हैं ।
इसलिए मनके द्वारा निरंतर अनन्य चित्तसे भगवान् का चिंतन करो और बुद्धिको एकनिष्ठ
अव्यभिचारिणी बनाकर निरन्तर भगवान् में लगाए रखो । यह भी भगवान् के
समीप बैठनेकी एक उपासना है ।
याद रखो -तुम्हें मनुष्य-जीवन मिला है केवल श्रीभगवान् का तत्त्व-ज्ञान, भगवान्
के दर्शन या भगवान् के दुर्लभ प्रेमकी प्राप्तिके लिए । यही मानव-जीवनका
परम साध्य है और इसी साध्यकी प्राप्तिके लिए सतत सावधान रहते हुए यथा-योग्य पूर्ण
प्रयत्न करते रहना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है । इस कर्तव्य
पालनमें सावधानीसे लगे रहना ही वास्तविक उपासना है । इसके विपरीत
भोगों-सुखकी
मिथ्या आशा-आस्था-आकांक्षाको लेकर जो प्रयत्न करना है, वह तो प्रमाद है और
आत्महत्याके सामान है ।
अतएव भोग-सुखकी मिथ्या आशा-आकांक्षाका सर्वथा त्याग करके मानव-जीवनको सदा-सर्वदा
सब प्रकारसे भगवत-प्राप्तिके साधनमें, अपनी स्थिति और रूचिके अनुसार
ज्ञान-कर्म-उपासना रूप किसीभी उपासनामें लगाए रखो । यही मानव-जीवनका
सदुपयोग है और इसीमें मानव-जीवनकी सफलता है । यही भगवान् के
समीप बैठना है और यही यथार्थ उपासना है ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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