सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सच्चा भिखारी -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, सप्तमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -८-

 
गत ब्लॉग से आगे....   हम दीन-हीन कंगाल हैं, द्वार पर पड़े रहना ही हमारा कर्तव्य है । उनका कर्तव्य वे जानते है, हमे उसके लिए क्यों चिंता करनी चाहिये ?  सेवक का दुःख-दर्द दूर करना चाहिये, इस बात को प्रभु स्वयं सोचेंगे, हमे तो मन में कुछ भी नहीं कहना चाहिये । यही निष्काम-भिखारी की भाषा है । यथार्थ भिखारी तो प्रभु के दर्शन पाने के लिए ही व्याकुल रहता है । उनका दर्शन होने पर माँगने की नौबत ही नहीं आती, सारे अभाव पहले ही मिट जाते है, समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती है  । भिखारी की घास-पात की झोपडी अमूल्य रत्नराशी से भर जाती है । फिर माँगने का मौका ही कहाँ रहता है ? श्रीमद्भागवत में कथा है-

सुदामा पण्डित लड़कपन से ही भगवान् श्रीकृष्ण के सखा थे-दोनों मित्र एक ही गुरूजी के यहाँ साथ ही पढ़ा करते थे । विद्या पढ़ लेने पर दोनों को अलग होना पड़ा । बहुत दिन बीत गए । परस्पर कभी मिलना नहीं हुआ । भगवान श्रीकृष्ण  द्वारका के राजराजेश्वर हुए और गरीब सुदामा अपने गाँव में भीख माँग कर काम चलाने लगा । सुदामा की गृहस्थी बड़ी ही कठिनता से चलती थी ।

एक दिन उनकी स्त्री ने कहा-‘आप इतने बड़े पण्डित होकर भी कुछ कमाई नहीं करते । फिर इस विद्या से क्या लाभ होगा ?’

सुदामा बोले-‘ब्राह्मणी ! मेरी विद्या इतनी तुच्छ नहीं है की मैं केवल नगण्य धन कमाने में लगाऊ ?’

इस पर ब्राह्मणी बोली,’अच्छी बात है आप इसे धन कमाने में मत लगाईये १ परन्तु आप कहाँ करते थे ‘श्रीकृष्ण मेरे बालमित्र है’, सुना है वे इस समय द्वारका के राजा है, उनसे मिलने पर तो सहज ही आपको खूब धन मिल सकता है ।’ सुदामा ने कहा, तुम तो खूब सलाह दे रही हों ! भगवान् से मेरी मित्रता है, इसलिए क्या मैं उनसे धन मांगूँ ? मुझसे ऐसा नहीं होगा । मैं भक्ति को इतनी छोटी चीज नहीं समझता, जो तुच्छ धन के बदले में उड़ा दी जाय ! तुम पगली हो रही हो इसी से ऐसा कह रही हो ।’ ......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।