जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, फ़रवरी 02, 2014

वशीकरण -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ शुक्ल, तृतीया, रविवार, वि० स० २०७०

वशीकरण  -६-
द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
 

गत ब्लॉग से आगे....मेरे पति महाराज युधिष्ठर के महल में पहले प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों और हजारों स्नातक सोने के पात्रों में भोजन किया करते और रहते । हजारों दासियाँ उनकी सेवा में रहती । दुसरे दस हज़ार आजन्म ब्रह्मचारियों को सोने के थालों मेंउत्तम उत्तम भोजन परोसे जाते थे । वैश्वदेव होने के अनन्तर मैं उन सब ब्राह्मणों को नित्य अन्न, जल और वस्त्रों से यथायोग्य सत्कार करती थी ।

महात्मा युधिष्ठर के एक लाख नृत्य-गीतविशारदा वस्त्राभूषणों से अलंकृत दासियाँ थीं । उन सब दासियों के नाम, रूप और प्रत्येक काम के करने-न-करने का मुझे सब पता रहता था और मैं उनके खाने-पीने और कपडे-लत्ते की व्यवस्था किया करती थी । महान बुद्धिमान महाराज युधिष्ठर की वे सब दासियाँ दिन-रात सोने के थाल लिए अतिथियों को भोजन कराने के काम में लगी रहती थी । जब महाराज नगर में रहते थे तब एक लाख हाथी और एल लाख घोड़े उनके साथ चलते थे, यह सब विषय धर्मराज युधिष्ठर के राज्य करने के समय था ।
 
मैं सबकी गिनती और व्यवस्था करती थी और सबकी बात सुनती थी ।  महलों और बाहर के नौकर, गौ और भेड़ चरानेवाले ग्वाले क्या काम करते है, क्या नही करते है, इसका ध्यान रखती थी । पाण्डवों की कितनी आमदनी और कितना खर्च है तथा कितनी बचत होती है, इसका सारा हिसाब मुझे मालूम था ।  ...शेष अगले ब्लॉग में                                                      
 
 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

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