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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, दशमी, मंगलवार, वि० स० २०७०
एक लालसा -५-
गत ब्लॉग से आगे..... प्राणी के अभिसार से दौड़ने वाली प्रणयिनी की तरह उसे रोकने में किसी भी
सांसारिक प्रलोभन की परबा शक्ति समर्थ नहीं होती, उस समय वह होता है अनन्त का
यात्री-अनन्त परमानन्द-सिन्धु-संगम का पूर्ण प्रयासी । घर-परिवार सबका मोह छोड़कर,
सब और से मन मोड़कर वह कहता है-
बन बन फिरना बेहतर इसको हमको रतं
भवन नही भावे है ।
लता तले पड़ रहने में सुख नाहिन सेज सुखावे है ।।
सोना कर धर शीश भला अति तकिया
ख्याल न आवे है ।
‘ललितकिशोरी’ नाम हरी है जपि-जपि
मनु सचु पावे है ।।
अबी विलम्ब जनि करों लाडिली
कृपा-द्रष्टि टुक हेरों ।
जमुना-पुलिन गलिन गहबर की विचरू
सांझ सवेरों ।।
निसदिन निरखों जुगल-माधुरी रसिकन
ते भट भेरों ।
‘ललितकिशोरी’ तन मन आकुल श्रीबन
चहत बसेरों ।।
एक नन्दनंदन प्यारे व्रजचन्द्र की
झांकी निरखने के सिवा उसके मन में फिर कोई लालसा नही रह जाती, वह अधीर होकर अपनी
लालसा प्रगट करता है-
एक लालसा मनमहूँ धारू ।
बंसीवट, कालिंदी तट, नट नागर नित्य
निहारूं ।।
मुरली-तान मनोहर सुनी सुनी
तनु-सुधि सकल बिसारूँ ।
छीन-छीन निरखि झलक अंग-अन्गनि
पुलकित तन-मन वारु ।।
रिझहूँ स्याम मनाई, गाई गुन,
गूंज-माल गल डारु ।
परमानन्द भूली सगरों, जग स्यामहि
श्याम पुकारूँ ।।
बस, यही तीव्रतंम शुभेच्छा है !
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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