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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २०७१
भोगो के आश्रय से दुःख -६-
गत
ब्लॉग से आगे.......अमुक आदमी यों करे तो सुख मिले, अमुक आदमी इस प्रकार मिले तो सुख मिले,
अमुक पदार्थ ऐसे प्राप्त हो तो सुख हो । अमुक का वर्ताव बदले, अमुक का व्यवहार
बदले, अमुक की हमारे साथ जो बातचीत हो रही है, वह अगर इस रूप में होने लगे, मकान
ऐसा हो, जूते-जैसी मामूली वस्तु भी यदि मन के मुताबिक न मिले तो दुखी हो जाता है
आदमी । कहीं धोबी के यहाँ से कपडा धुल के आया और जरा सा कही दाग रह गया और अगर मन
को ठीक नही लगा तो दुखी हो गया आदमी, उसका बुरा फल ।
जरा-जरा सी बात पर आदमी अपने को
क्षुब्ध कर लेता और उसका बड़ा बुरा परिणाम हो जाता है तो संसार की बात चाहे जरा-सी
बड़ी हो, चाहे बहुत बड़ी बात-ये जब तक हम पर अधिकार किये हुए है, तब तक हम उनके वश
में है, पराधीन है । हमारा सुख स्वतन्त्र नही, हमारी शान्ति स्वतन्त्र नही, हम
सर्वथा पराधीन है और परायी आशा करते है ।
परायी आशा-दूसरों की आशा पूरी न हो,
उलटा हो जाय तो ये आत्मसुख जो है, जो निरन्तर अपने पास है, जो निरन्तर अपनी
संपत्ति है, जो प्रत्येक अवस्था में अपन एको प्राप्त है, जिसे कभी कोई छीन नही
सकता, कोई बाहर की अवस्था जिसमे परिवर्तन नही ला सकती । इस प्रकार जो नित्य,
अखण्ड, आत्मसुख भगवतसुख है-वह है अपने पास । वह कही गया नही, कही जाता नही, वह कही
बाहर से आता नही । बस उस अखण्ड अनित्य आत्मसुख की तरफ यदि हम देख लें, उसको अपना
बना ले , उसके हम हो जाय तो कोई भी बाहरी अवस्था हमे विचलित नही कर सकती ।.... शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस
गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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