जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, जुलाई 02, 2014

भोगो के आश्रय से दुःख -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २०७१

 
भोगो के आश्रय से दुःख  -६-

गत ब्लॉग से आगे.......अमुक आदमी यों करे तो सुख मिले, अमुक आदमी इस प्रकार मिले तो सुख मिले, अमुक पदार्थ ऐसे प्राप्त हो तो सुख हो । अमुक का वर्ताव बदले, अमुक का व्यवहार बदले, अमुक की हमारे साथ जो बातचीत हो रही है, वह अगर इस रूप में होने लगे, मकान ऐसा हो, जूते-जैसी मामूली वस्तु भी यदि मन के मुताबिक न मिले तो दुखी हो जाता है आदमी । कहीं धोबी के यहाँ से कपडा धुल के आया और जरा सा कही दाग रह गया और अगर मन को ठीक नही लगा तो दुखी हो गया आदमी, उसका बुरा फल ।

जरा-जरा सी बात पर आदमी अपने को क्षुब्ध कर लेता और उसका बड़ा बुरा परिणाम हो जाता है तो संसार की बात चाहे जरा-सी बड़ी हो, चाहे बहुत बड़ी बात-ये जब तक हम पर अधिकार किये हुए है, तब तक हम उनके वश में है, पराधीन है । हमारा सुख स्वतन्त्र नही, हमारी शान्ति स्वतन्त्र नही, हम सर्वथा पराधीन है और परायी आशा करते है ।

परायी आशा-दूसरों की आशा पूरी न हो, उलटा हो जाय तो ये आत्मसुख जो है, जो निरन्तर अपने पास है, जो निरन्तर अपनी संपत्ति है, जो प्रत्येक अवस्था में अपन एको प्राप्त है, जिसे कभी कोई छीन नही सकता, कोई बाहर की अवस्था जिसमे परिवर्तन नही ला सकती । इस प्रकार जो नित्य, अखण्ड, आत्मसुख भगवतसुख है-वह है अपने पास । वह कही गया नही, कही जाता नही, वह कही बाहर से आता नही । बस उस अखण्ड अनित्य आत्मसुख की तरफ यदि हम देख लें, उसको अपना बना ले , उसके हम हो जाय तो कोई भी बाहरी अवस्था हमे विचलित नही कर सकती ।.... शेष अगले ब्लॉग में          

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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