(९)
श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग गूजरी-ताल कहरवा)
राधे, हे प्रियतमे, प्राण-प्रतिमे, हे मेरी जीवन मूल !
पलभर भी न कभी रह सकता, प्रिये मधुर ! मैं तुमको भूल॥
श्वास-श्वासमें तेरी स्मृतिका नित्य पवित्र स्रोत बहता।
रोम-रोम अति पुलकित तेरा आलिंगन करता रहता॥
नेत्र देखते तुझे नित्य ही, सुनते शब्द मधुर यह कान।
नासा अंग-सुगन्ध सूँघती, रसना अधर-सुधा-रस-पान॥
अंग-अंग शुचि पाते नित ही तेरा प्यारा अंग-स्पर्श।
नित्य नवीन प्रेम-रस बढ़ता, नित्य नवीन हृदयमें हर्ष॥
(१०)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग गूजरी-ताल कहरवा)
मेरे धन-जन-जीवन तुम ही, तुम ही तन-मन, तुम सब धर्म।
तुम ही मेरे सकल सुखसदन, प्रिय निज जन, प्राणोंके मर्म॥
तुम्हीं एक बस, आवश्यकता, तुम ही एकमात्र हो पूर्ति।
तुम्हीं एक सब काल सभी विधि हो उपास्य शुचि सुन्दर मूर्ति॥
तुम ही काम-धाम सब मेरे, एकमात्र तुम लक्ष्य महान।
आठों पहर बसे रहते तुम मम मन-मन्दिरमें भगवान॥*
सभी इन्द्रियोंको तुम शुचितम करते नित्य स्पर्श-सुख-दान।
बाह्याभयन्तर नित्य निरन्तर तुम छेड़े रहते निज तान॥
कभी नहीं तुम ओझल होते, कभी नहीं तजते संयोग।
घुले-मिले रहते करवाते करते निर्मल रस-सभोग॥
पर इसमें न कभी मतलब कुछ मेरा तुमसे रहता भिन्न।
हुए सभी संकल्प भंग मैं-मेरेके समूल तरु छिन्न॥
भोक्ता-भोग्य सभी कुछ तुम हो, तुम ही स्वयं बने हो भोग।
मेरा मन बन सभी तुम्हीं हो अनुभव करते योग-वियोग॥
*(दूसरा पाठ) आठों पहर सरसते रहते तुम मन सर-वरमें रसवान ॥
-नित्यलीलालीन श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार भाईजी
Shri Hanuman Prasad Ji Poddar - bhaiji (First Editor of Kalyan Magzine, Gitapress) pravachan, literature, and book content is posted here.
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