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राग जैतकल्याण—ताल मूल
आते हो तुम बार-बार प्रभु! मेरे
मन-मन्दिरके द्वार।
कहते—‘खोलो द्वार,
मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुन: खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर
पुकार॥
‘खोल जरा सा’ कहकर
यों—‘मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
फिर आना’—झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो
तुरत उबार॥
-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार
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