जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, अक्तूबर 03, 2019

सौन्दर्य-लालसा 2


सौन्दर्य-लालसा 2


सौन्दर्य-लालसा 2 Hanuman Prasad Poddar- Bhaiji


नेत्रों की ही क्यों- प्रत्येक इन्द्रिय की दर्शन-स्पृहा बढ़ रही है। सभी अंग उनके मधुर मिलन की उत्कट आकांक्षा से आतुर हैं। बार-बार मिलने पर भी वियोग की-विरह की ही अनुभूति होती है। वे फिर कहती हैं-

नदज्जलदनिःस्वनः श्रवणकर्षिसत्सिजिंतः सनर्मरससूचकाक्षरपदार्थभंगयुक्तिकः। रमादिकवरागनाहृदयहारिवंशीकलः स मे मदनमोहनः सखि तनोति कर्णस्पृहाम् ।।
 ‘सखि! जिनकी कण्ठध्वनि मेघ-गर्जन के सदृश सुगम्भीर है, जिनके आभूषणों की मधुर झनकार कानों को आकर्षित करती है, जिनके परिहास-वचनों में विविध भावभगिमाओं का उदय होता रहता है और जिनकी मुरलीध्वनि के द्वारा लक्ष्मी आदि देवियों का हृदय-हरण होता रहता है, वे मदनमोहन मेरे कानों की श्रवणस्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’


 कुरंगमदजिद्वपुःपरिमलोर्मिकृष्टांबनः स्वकांगनलिनाष्टके शशियूताब्जगन्धप्रथः। मदेन्दुवरचन्दनागुरुसुगन्धिचर्चार्चितः स मे मदनमोहनः सखि तनोति नासास्पृहाम्।।
सखि! जिनके मृगमदविजयी श्री अंग की सौरभतरंगों से अंगनाएँ वशीभूत हो जाती हैं, जो अपने देहस्थित अष्टकमल (दो चरणकमल, दो करकमल, दो नेत्रकमल, एक नाभिकमल और एक मुखकमल) के द्वारा कर्पूरयुक्त कमल की सुगन्ध का विस्तार कर रहे हैं और जो कस्तूरी, कर्पूर, उत्कृष्ट चन्दन, अगुरु आदि सुगन्धि-द्रव्यों के द्वारा निर्मित अंगराग से अंग-विलेपन किये हुए हैं, वे मदनमोहन मेरी नासिका की सुगन्ध-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’


हरिन्मणिकपाटिकाप्रततहारिवक्षःस्थलः
स्मरार्त्ततरूणीमनःकलुषहन्तृदोरर्गलः।
सुधांशुहरिचन्दनोत्पलसिताभ्रशीतांगकः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति वक्षःस्पृहाम्।।
सखि! जिनका विशाल वक्षःस्थल इन्द्रनीलमणि के कपाट के सदृश मनोहर है, जिनके अर्गलासदृश बाहुयुगल प्रेम-पीड़ित तरूणीसमुदाय के मानस क्लेश को नाश करने में समर्थ हैं और जिनका अंग चन्द्रमा, हरि-चन्दन, कमल, कर्पूर और बादल के सदृश सुशीतल है, वे मदनमोहन मेरे वक्षःस्थल की स्पर्श-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’


व्रजातुलकुलांगनेतररसालितृष्णाहर-
प्रदीव्यदधरामृतः सुकृतिलभ्यफेलालवः।
सुधाजिदहिवल्लिकासुदलवीटिकाचर्वितः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति जिह्वास्पृहाम्।।
सखि! जिनकी सुमधुर अधरसुधा उपमारहित व्रजकुलांगनाओं के इतर रस समूह की स्पृहा का अपहरण कर रही है तथा महान् पुण्यराशि होने पर ही प्राप्त की जा सकती है और जिनके द्वारा चर्वित ताम्बूल की बीड़ी अमृत को भी पराजित करती है, वे मदनमोहन मेरी जिह्वा की रस-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

पण्डितराज जगन्नाथ विषयविमुग्ध् मन को सावधान करते हैं–

रे चेतः कथयामि ते हितमिदं वृन्दावने चारयन् वृन्दं कोडवि गवां नवाम्गुदनिभो बन्धुर्न कार्यस्त्वया। 
सौन्दर्यामृतमुदिरदिरभितः सम्मोह्य मन्दस्मितै- रेष त्वां तव वल्लभांश्च विषयानाशु क्षयं नेष्यति।।
‘रे चित्त! मैं तेरे हित के लिये कहता हूँ। तू वृन्दावन में गायों को चराते हुए नवीन श्याममेघ के समान कान्ति वाले किसी को अपना बन्धु मत बना लेना। वह सौन्दर्यसुधा बरसाने वाली अपनी मन्द मुस्कान से तुझे मोहित करके तेरे प्रिय विषयों को भी तुरंत नष्ट कर डालेगा।’

इस रूपमाधुरी का जिसने पान किया, वही इस रस को जानता है। दूसरों को क्या पता। कहते हैं कि मुसल्मान भक्त रसखान किसी स्त्री पर आसक्त थे। पर वह बहुत मानिनी थी, बारम्बार इनका तिरस्कार किया करती थी। एक बार इन्होंने कहीं श्यामसुन्दरव्रजेन्द्रनन्दन आनन्दकन्द मदनमोहन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का मनोहर चित्र देख लिया और उसी क्षण से उन पर मोहित हो गये। लोगों से पूछा- ‘यह साँवरी सूरतवाला मेरा चित्तचोर कहाँ रहता है और इसका क्या नाम है?’ बताया गया यह श्रीवृन्दावनधाम में रहता है और इसका नाम है ‘रसखानि’। बस, वह उसी समय उन्मत्त-से होकर वृन्दावन पहुँच गये और उत्कट एंव अनन्य दर्शन-लालसा के फलस्वरूप गो-गोप-गोपी-परिवेष्टित निखिलसौन्दर्य-माधुर्य-रस-सुधा-सार-सर्वस्व परमानन्दघन व्रजचन्द्र के मन्मथ-मन्मथ रूप् के दर्शन पाकर सदा के लिये उन्हीं पर न्यौछावर हो गये।


       —परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी



पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर


गुरुवार, सितंबर 19, 2019

सौन्दर्य-लालसा 1


सौन्दर्य-लालसा


Hanuman prasad Poddar-Bhaiji Saundarya Lalsa Shri krishan


मनकी सौन्दर्य-लालसा को दबाइये मत, उसे खूब बढ़ने दीजिये; परंतु उसे लगाने की चेष्टा कीजिये परम सुन्दरतम पदार्थ में। जो सौंन्दर्य का परम अपरिमित निधि है, जिस सौन्दर्य-समुद्र के एक नन्हें-से कण को पाकर प्रकृति अभिमान के मारे फूल रही है और नित्य नये-नये असंख्य रूप धर-धरकर प्रकट होती और विश्व को विमुग्ध करती रहती है- आकाश का अप्रतिम सौन्दर्य, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु का सुख-स्पर्श-सौन्दर्य, अग्नि-जल-पृथ्वी का विचित्र सौन्दर्य, अनन्त विचित्र पुष्पों के विविध वर्ण और सौरभ का सौन्दर्य, विभिन्न पक्षियों के रंग-बिरंगे सुखकर स्वरूप और उनकी मधुर काकलीका सौन्दर्य, बालकों की हृदयहारिणी माधुरी, ललनाओं का ललित लावण्य तथा माता-पत्नि-मित्र आदि का मधुर स्नेह-सौन्दर्य- ये सभी एक साथ मिलकर भी जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक क्षुद्र सीकर की भी समता नहीं कर सकते, उस सौन्दर्यराशि को खोजिये। उसी के दर्शन की लालसा जगाइये, सारे अंगों में जगाइये। आपकी बुद्धि, आपका चित्त-मन, आपकी सारी इन्द्रियाँ, आपके शरीर के समस्त अंग-अवयव, आपका रोम-रोम उसके सुषमा-सौन्दर्य के लिये व्याकुल हो उठे। बस, यह कीजिये। फिर देखिये, आपकी सौन्दर्य-लालसा आपको किस चिन्मय दिव्य सौन्दर्य-साम्राज्य ले जाती है।


अहा! यदि आपको एक बार उसकी जरा-सी झाँकी भी हो गयी तो आप निहाल हो जाइयेगा। फिर सौन्दर्य-लालसा मिटानी नहीं होगी। वह अमर हो जायगी और इतनी बढ़ेगी- इतनी बढ़ेगी कि मुक्ति सुख को भी खोकर स्वंय जीती-जागती बनी रहेगी और आप फिर उस सौन्दर्य-समुद्र में नित्य डूबते-उतराते रहेंगे। वह ऐसा सौन्दर्य है कि जिस दिन-रात अनन्त काल तक अविरत देखते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती, दर्शन की प्यास कभी मिटती ही नहीं, ‘अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी’ ही बनी रहती हैं। प्यास के बुझने की तो कल्पना ही नहीं, वरं ईंधनयुक्त घृत की आहुति से बढ़ती हुई अग्नि की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई वह अनन्त की ओर अग्रसर होती रहती है। पर यह प्यास-- यह दर्शन की बढ़ी हुई लालसा दर्शन से भी अधिक सुखदायिनी होती है। यह वह सौन्दर्य है, जिसे देखकर मुनियों के मरे हुए मनों में भी जीवन का संचार हो जाता है।


श्रीवृषभानुनन्दिनी श्री श्रीराधिकाजी कहती हैं-
नवाम्बुदलसद्द्युतिर्नवतडिन्मनोज्ञाम्बरःसुचित्रमुरलीस्फुरच्छरदमन्दचन्द्राननः।मयूरदलभूषितः सुभगतारहारप्रभःस मे मदनमोहनः सखि तनोति नेत्रस्पृहाम्।।
‘सखी! नव जलधर की अपेक्षा जिनकी सुन्दर कान्ति है, नवीन विद्युत-माला से भी अधिक चमकीला जिनका मनोज्ञ पीताम्बर है, जिनका वदनचन्द्र निर्मल शारदीय पूर्ण चन्द्रमा की अपेक्षा भी समुज्ज्वल तथा चित्र-विचित्र सुन्दर मुरली के द्वारा सुशोभित है, जो मयूरपिच्छ से सुभूषित हैं और जिनके गले में निर्मल कान्तियुक्त श्रेष्ठ मोतियों की माला चमक रही है, वे मदनमोहन मेरे नेत्रों की दर्शन-स्पृहा बढ़ा रहे हैं।’


       —परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी

पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर

शनिवार, सितंबर 14, 2019

श्रीकृष्णदर्शन की साधना 2


श्रीकृष्णदर्शन की साधना

ShriKrishanDarsahnKiSadhna श्रीकृष्णदर्शन की साधना
श्री राधा-कृष्ण 

हम लोग धन-संतान और मान-कीर्ति के लिये जितना जी-तोड़ परिश्रम और सच्चे मन से प्रयत्न करते हैं जितना छटपताते हैं उतना परमात्मा के लिये क्या अपने जीवनभर में कभी किसी दिन भी हमने प्रयत्न किया है या हम छटपटाते हैं? तुच्छ धन-मान के लिये तो हम भटकते और रोते फिरते हैं; क्या परमात्मा के लिये व्याकुल होकर सच्चे मन से हमने कभी एक भी आँसू गिराया है? इस अवस्था में हम कैसे कह सकते हैं कि परमात्मा के दर्शन नहीं होते। हमारे मन में परमात्मा के दर्शन की लालसा ही कहाँ है। हमने तो अपना सारा मन अनित्य सांसारिक विषयों के कूड़े-कर्कट से भर रखा है। जोर की भूख या प्यास लगने पर क्या कभी कोई स्थिर रह सकता है? परंतु हमारी भोग-लिप्सा और भगवान् के प्रति उदासीनता इस बात को सिद्ध करती है कि हम लोगों को भगवान् के लिय जोर की भूख या प्यास नहीं लगी। जिस दिन वह भूख लगेगी, उस दिन भगवान् को छोड़कर दूसरी कोई वस्तु हमें नहीं सुहायेगी।  उस दिन हमारा चित्त सब ओर से हटकर केवल उसी के चिन्तनमें तल्लीन हो जायेगा। जिस प्रकार विशाल साम्राज्य के प्राप्त हो जाने पर साधारण कौड़ियों के तुच्छ व्यापार से स्वाभाविक ही मन हट जाता है, उसी प्रकार जगत् के बड़े-से-बड़े भोग हमें तुच्छ और नीरस प्रतीत होने लगेंगे। उस समय हम अनायास ही कह उठेंगे-

इस जगकी कोई वस्तु न हमें सुहाती।
पल-पल में श्यामल मूर्ति स्मरण है आती।।
   
  भगवान् के परम मधुर और परम आनन्दस्वरूप् होने पर भी हमारा उनकी ओर पूरा आकर्षण नहीं है, इसका कारण यही है कि हमने उनके महत्त्व को भली-भाँति समझा नहीं; इसीलिये अमृत को छोड़कर हम रमणीय विषयों के विष भरे लड्डुओं के लिये दिन-रात भटकते हैं और उन्हें खा-खाकर बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। भगवान् के दर्शन दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है उनके दर्शन की दम्भशून्य और एकान्त लालसा! जो भगवान् नित्य और सत्य हैं, सब समय सभी स्थानों में व्यापक हैं, किसी एक युग विशेष में उनके दर्शन न हों- यह बात कैसे मानी जा सकती है। ऐसा कहने वाले लोग या तो श्रद्धा से रहित हैं या भगवान् की महिमा का भाव समझने के लिये उन्हें कभी अवसर नहीं मिला।

       इसमें कोई संदेह नहीं कि इन नेत्रों की सफलता नित्य अतृप्तरूप से उस नवीन नीलनीरजकान्ति श्यामसुन्दर की विश्व-विमाहिनी रूपमाधुरी का दर्शन करने में ही है। परंतु जहाँ तक भगवत्कृपा से इन नेत्रों को दिव्य भाव नहीं प्राप्त होता, वहाँ तक ये नेत्र उस रूप-छटा के दर्शन से वंचित ही रहते हैं। नेत्रों को दिव्य बनाकर उन्हें सार्थक करने का ‘सिद्धमार्ग’ उपर्युक्त ‘परम व्याकुलता’ ही है। जिस महानुभाव के हृदय में श्री कृष्णदर्शन तीव्रतम विरहाग्नि जल रही है, वह सर्वथा स्तुति का पात्र है।

   विरहाग्नि प्रायः बाहर नहीं निकला करती और जब कभी वियोग-वेदना सर्वथा असह्य होकर बाहर फूट निकलती है, तब वह उसके सारे पाप-तापों को तुरंत जलाकर उसे प्रेम में पागल बना देती है। उस समय वह भक्त अनन्य प्रेम में मतवाला भक्त-व्रजगोपियों की भाँति सब कुछ भूलकर उस प्राणाधिक मनमोहन के दर्शन के लिये दौड़ पड़ता है और अपनी सारी शक्ति और सारा उत्साह लगाकर उसको पुकारता है। बस, इसी अवस्था में उसे भगवान के दर्शन प्राप्त होते हैं। दर्शन उसी रूप में होते हैं, जिस रूप में वह दर्शन करना चाहता है एंव व्यवहार, बर्ताव या वार्तालाप भी प्रायः उसी प्रकार का होता है, जिस प्रकार का उसने पहले चाहा है। ऐसी स्थिति को प्राप्त होने के लिये साधक को चाहिये कि पहले वह सत्संग के द्वारा भगवान् के अतुलनीय महत्त्व को कुछ समझे और उनके निरन्तर नाम-जप तथा ध्यान के द्वारा अपने अन्तर में उनके प्रति कुछ प्रेम उत्पन्न करे। ज्यों-ज्यों भगवत्-प्रेम से हृदय भरता जायगा, त्यों-ही-त्यों वहाँ से विषय हटते चले जायेंगे। यों करते-करते जिस दिन वह अपना हृदयासन केवल परमात्मा के लिये सजा सकेगा, उसी दिन और उसी क्षण उसके हृदय में परम व्याकुलता उत्पन्न होगी और वह व्याकुलता अत्यन्त तीव्र होकर भगवान् के हृदय में भी भक्त को दर्शन देने के लिये वैसी ही व्याकुलता उत्पन्न कर देगी। इसके बाद तत्काल ही वह शुभ समय प्राप्त होगा, जिसमें भक्त और भगवान् का परस्पर प्रत्यक्ष मिलन होगा और उससे भूमि पावन हो जायगी।

—परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी

पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर


बुधवार, सितंबर 11, 2019

श्रीकृष्णदर्शन की साधना 1


श्रीकृष्णदर्शन की साधना

श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार  श्रीकृष्णदर्शन की साधना

एक गुजराती सज्जन निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर बड़ी उत्कण्ठा के साथ चाहते हैं। नाम प्रकाश न करने के लिये उन्होंने लिख दिया है, इसलिये उनका नाम प्रकाशित नहीं किया गया है, प्रश्नों की रक्षा करते हुए कुछ शब्द बदले गये हैं।

  1. कई महात्मा पुरुष कहते हैं कि इस समय ईश्वर दर्शन नहीं हो सकता। क्या यह बात मानने योग्य है? यदि थोड़ी देर के लिये मान लें तो फिर भक्त तुलसीदास और नरसी मेहता आदि को इस कलियुग में उस श्याम सुन्दर की मनमोहिनी मूर्ति का दर्शन हुआ था, यह बात क्या असत्य है?
  2.   जैसे आप मेरे सामने बैठे हो और मैं आपसे बातें कर रहा हूँ, क्या प्यारे कृष्णचन्द्र का इस प्रकार दर्शन होना सम्भव है? यदि सम्भव है तो हमें क्या करना चाहिये कि जिससे हम उस मोहिनी मूर्ति को शीघ्र देख सकें?
  3. जहाँ तक ये चर्म-चक्षु उस प्यारे को तृप्त होने तक नहीं देख सकेंगेवहाँ तक ये किसी काम के नहीं हैं। नेत्रों को सार्थक करने का ‘सिद्ध-मार्ग’ कौन-सा हैवह बताइये।
  4.  कृष्णदर्शन की तीव्रतम विरहाग्नि हृदय में जल रही है, न जाने वह बाहर क्यों नहीं निकलती! इसी से मैं और भी घबरा रहा हूँ।

इन प्रश्नों के साथ उक्त सज्जन ने और भी बहुत-सी बातें लिखी हैं, जिनसे विदित होता है कि उनके हृदय में भगवद्दर्शन की अभिलाषा जाग्रत् हुई है। इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर तो उन पूज्य महापुरुष से मिलना सम्भव है, जो उस श्यामसुन्दर की मनोहर और दिव्य रूप-माधुरी का दर्शन करके धन्य हो चुके हैं। परंतु महापुरुषों की अनुभवयुक्त वाणी से जो कुछ सुनने में आया है, उसी के आधार पर इन प्रश्नों का उत्तर देने की कुछ चेष्टा की जाती है। प्रश्नकर्ता सज्जन ने ये प्रश्न करके मुझको जो भगवत्-चर्चा का शुभ अवसर प्रदान किया है, इसके लिये मैं उनका कृतज्ञ हूँ। चारों प्रश्नों का उत्तर पृथक्-पृथक् न लिखकर एक ही साथ लिखा जाता है।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस युग में भगवान् के दर्शन अवश्य हो सकते हैं, बल्कि अन्याय युगों की अपेक्षा थोड़े समय में और थोड़े प्रयास से ही हो सकते हैं। भक्तशिरोमणि तुलसीदास जी  और नरसी मेहता  आदि प्रेमियों को भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन हुए हैं, इस बातको मैं सर्वथा सत्य मानता हूँ। यदि भक्त चाहे तो वह दो मित्रों की भाँति एक स्थान पर मिलकर भगवान् से परस्पर वार्तालाप कर सकता है। अवश्य ही भक्त में वैसी योग्यता होनी चाहिये। भक्तों के ऐसे अनेक पुनीत चरित इस बात के प्रमाण हैं। भगवान् के शीघ्र दर्शन का सबसे उत्तम उपाय दर्शन की तीव्र और उत्कट अभिलाषा ही है। जिस प्रकार जल में डूबता हुआ मनुष्य ऊपर आने के लिये परम व्याकुल होता है, उसी प्रकार की परम व्याकुलता यदि भगवदर्शन के लिये हो तो भगवान् का दर्शन होना कोई बड़ी बात नहीं। व्याकुलता बनावटी न होकर असली होनी चाहिये। किसी का इकलौता पुत्र मर रहा हो या किसी की सैकड़ों वर्षों से बनी हुई इज्जत जाती हो, उस समय मन में जैसी स्वाभाविक और निष्कपट व्याकुलता होती है, वैसी ही व्याकुलता परमात्मा के दर्शन के लिये जिस परम भाग्यवान् भक्त के अन्तर में उत्पन्न होती है, उसको दर्शन दिये बिना भगवान् कभी नहीं रह सकते।

ऐसी व्याकुलता तभी होती है, जब वह भक्त संसार के समस्त पदार्थों से परमात्मा को बड़ा समझता है, इस लोक और परलोक के समस्त भोगोंको अत्यन्त तुच्छ और नगण्य समझकर केवल एक परम प्यारे श्यामसुन्दर के लिये अपने जीवन, धन, ऐश्वर्य, मान, लोक-लज्जा, लोकधर्म और वेदधर्म सबको समर्पण कर चुकता है! देवर्षि नारद जी ने भक्ति का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा है-  

तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति।[1]
अपने समस्त कर्म भगवान् को अर्पण कर देना और उन्हें भूलते ही परम व्याकुल होना भक्ति है।’

जब तक जगत् के भोगों की इच्छा है, जब तक जगत् के अनित्य पदार्थ सुन्दर, सुखरूप और तृप्तिकर जान पड़ते हैं और जब तक उनमें रस आता है, तब तक हमारे हृदय का पूरा स्थान भगवान् के लिये ख़ाली नहीं।

गोसाईं तुलसीदासजी ने कहा है-
जे मोहिं राम लागते मीठे।तौ नवरस षटरस रस अनरस हले जाते सब सीठे।। 
‘यदि मुझे भगवान् राम प्यारे लगते तो श्रृंगारादि नवों रस और अम्ल आदि छओं रस नीरस होकर सीठे (सारहीन-फीके) हो जाते।’

 हम अपने अन्तर में भगवान् को जितना-सा स्थान देते हैं, उतना-सा उसका फल ही हमें प्राप्त होता है; परंतु जब तक हम अपने हृदय का पूरा आसन उस हृदयेश्वर के लिये सजाकर तैयार नहीं करते, जब तक हमारे अन्तःकरण में अनवरत और निरन्तर अटूट तैलधारा की भाँति भगवद्भाव का स्त्रोत नहीं बहता, तब तक उसके लिये व्याकुलता नहीं हो सकती और जब तक हम व्याकुल नहीं होते तब तक भगवान् भी हमारे लिये व्याकुल नहीं होते; क्योंकि भगवान् यह एक शर्त है-

ये यथां मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।[2]
 ‘जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’

जब भक्त प्रेम में तन्मय होकर मतवाले की तरह घर-बार, स्त्री-पुत्र, लोक-परलोक, हर्ष-शोक, मान-अपमान आदि सबका विसर्जन करके उस परमात्मा के लिये परम व्याकुल होता है, एक क्षण भर के विछोह से भी जो जल से अलग की हुई मछली के समान छटपटाने लगता है, भक्तिमती गोपियों की भाँति जिसके प्राण विरह-वेदना से व्याकुल हो उठते हैं, उसको भगवान् के दर्शन अत्यन्त शीघ्र हो सकते हैं; परंतु हम लोगों में वैसी अनन्य व्याकुलता प्रायः नहीं है। इसीलिये दर्शन में भी विलम्ब हो रहा है।

—परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी
पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2019

पदरत्नाकर


[ ४३ ]
तर्ज लावनीताल कहरवा

श्रीराधा-माधव!  यह मेरी सुन लो बिनती परम उदार।
मुझे स्थान दो निज चरणोंमें, पावन प्रभु!  कर कृपा अपार॥
भूलूँ सभी जगतको, केवल रहे तुम्हारी प्यारी याद।
सुनूँ जगतकी बात न कुछ भी, सुनूँ तुम्हारे ही संवाद॥
भोगोंकी कुछ सुधि न रहे, देखूँ सर्वत्र तुम्हारा मुख।
मधुर-मधुर मुसकाता, नित उपजाता अमित अलौकिक सुख॥
रहे सदा प्रिय नाम तुम्हारा मधुर दिव्य रसना रसखान।
मनमें बसे तुम्हारी प्यारी मूर्ती मञ्जु सौन्दर्य-निधान॥
तनसे सेवा करूँ तुम्हारी, प्रति इन्द्रियसे अति उल्लास।
साफ करूँ पगरखी-पीकदानी सेवा-निकुञ्जमें खास॥
बनी खवासिन मैं चरणोंकी करूँ सदा सेवा, अति दीन।
रहूँ प्रिया-प्रियतमके नित पद-पद्म-पराग-सुसेवन-लीन॥

बुधवार, फ़रवरी 27, 2019

पदरत्नाकर


[ ४१ ]
दोहा

श्रीराधामाधव जुगल दिब्य रूप-गुन-खान।
अविरत मैं करती रहूँ प्रेम-मगन गुन-गान॥
राधागोबिंद नाम कौ करूँ नित्य उच्चार।
ऊँचे सुर तें मधुर मृदु, बहै दृगन रस-धार॥
करि करुना या अधम पर, करौ मोय स्वीकार।
पर्यौ रहूँ नित चरन-तल, करतौ जै-जैकार॥
मैं नहिं देखूँ और कौं, मोय न देखैं और।
मैं नित देख्यौई करूँ, तुम दोउनि सब ठौर॥

मंगलवार, फ़रवरी 26, 2019

पदरत्नाकर

[ ३९ ]
राग माँड़ताल कहरवा

मोहन-मन-धन-हारिणी, सुखकारिणी अनूप।
भावमयी श्रीराधिका, आनन्दाम्बुधि-रूप॥
आकर्षक ऋषि-मुनि-हृदय अनुपम रूप ललाम।
कृष्णरसार्णव रस-स्वयं लोकोत्तर सुखधाम॥
दीन-हीन मति मलिन मैं असत-पंथ आरूढ़।
दु:खद भोगोंमें सदा अति आसक्त विमूढ़॥
युगल कृपानिधि!  कीजिये मुझपर कृपा उदार।
पद-रज-सेवाका सतत मिले मुझे अधिकार॥

सोमवार, फ़रवरी 25, 2019

पदरत्नाकर


[ ३५ ]
राग माँड़ताल कहरवा

राधा-माधव-जुगल के प्रनमौं पद-जलजात।
बसे रहैं मो मन सदा, रहै हरष उमगात॥
हरौ कुमति सबही तुरत, करौ सुमति कौ दान।
जातें नित लागौ रहै तुव पद-कमलनि ध्यान॥
राधा-माधव!  करौ मोहि निज किंकर स्वीकार।
सब तजि नित सेवा करौं, जानि सार कौ सार॥
राधा-माधव!  जानि मोहि निज जन अति मति-हीन।
सहज कृपा तैं करौ नित निज सेवा में लीन॥
राधा-माधव!  भरौ तुम मेरे जीवन माँझ।
या सुख तैं फूल्यौ फिरौं, भूलि भोर अरु साँझ॥
तन-मन-मति सब में सदा लखौं तिहारौ रूप।
मगन भयौ सेवौं सदा पद-रज परम अनूप॥
राधा-माधव-चरन रति-रस के पारावार।
बूड्यौ, नहिं निकसौं कबहुँ पुनि बाहिर संसार॥

रविवार, फ़रवरी 24, 2019

पदरत्नाकर


[ ३३ ]
राग-पीलूताल कहरवा

राधा-माधव-पद-कमल बंदौं बारंबार।
मिल्यौ अहैतुक कृपा तें यह अवसर सुभ-सार॥
दीन-हीन अति, मलिन-मति, बिषयनि कौ नित दास।
करौं बिनय केहि मुख, अधम मैं, भर मन उल्लास॥
दीनबंधु तुम सहज दोउ, कारन-रहित कृपाल।
आरतिहर अपुनौ बिरुद लखि मोय करौ निहाल॥
हरौ सकल बाधा कठिन, करौ आपुने जोग।
पद-रज-सेवा कौ मिलै, मोय सुखद संजोग॥
प्रेम-भिखारी पर्यौ मैं आय तिहारे द्वार।
करौ दान निज-प्रेम सुचि, बरद जुगल-सरकार॥
श्रीराधामाधव-जुगल हरन सकल दुखभार।
सब मिलि बोलौ प्रेम तें तिन की जै-जैकार॥