[ १९ ]
राग वसन्त—ताल
कहरवा
हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय
मन प्रपञ्च-रत,
नित्य
मलीन ॥
शुचितम, दिव्य
तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-ज्ञानी-योगीका भी नहीं यहाँ
प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें
करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये
सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे! यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय
दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें,
झाड़ू
दें—सौंपो
यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप
तमाम ॥
होगा दम्भ दूर,
फिर
पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव
पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं,
पर
स्वामिनि! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो,
फिर
दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि! दीनवत्सला!
ऐसा करो स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर
पद-पङ्कज-मधुका पान ॥
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