[ ४१ ]
दोहा
श्रीराधामाधव जुगल दिब्य रूप-गुन-खान।
अविरत मैं करती रहूँ प्रेम-मगन
गुन-गान॥
राधागोबिंद नाम कौ करूँ नित्य उच्चार।
ऊँचे सुर तें मधुर मृदु,
बहै
दृगन रस-धार॥
करि करुना या अधम पर,
करौ
मोय स्वीकार।
पर्यौ रहूँ नित चरन-तल,
करतौ
जै-जैकार॥
मैं नहिं देखूँ और कौं,
मोय
न देखैं और।
मैं नित देख्यौई करूँ,
तुम
दोउनि सब ठौर॥
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