जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

सोमवार, जून 29, 2020

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

-नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

-नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप, स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो, जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम 'जप' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण, उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं–  विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है, उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप कहते हैं (परंतु यह कीर्तन नहीं है)। जिसमें जिह्वा और ओष्ठ तो हिलते हैं, परंतु शब्द अंदर ही रहता है वह उपांशु जप है और जिसमें न जीभ के हिलाने की आवश्यकता होती है और न होठ के, वह मानसिक जप कहलाता है। उच्च स्वर से उपांशु उत्तम और उपांशु से मानसिक उत्तम है। यह जप की विधि है, किसी भी देवता का कैसा ही मन्त्र क्यों न हो, यह विधि सबके लिये एक-सी है। परंतु भगवन्नाम-जप का तो कुछ विलक्षण ही फल होता है। यह नाम की अलौकिक महिमा है। दूसरे जपों में अनेक प्रकार के विधि-निषेध होते हैं, शुद्धि-अशुद्धि का बड़ा विचार करना पड़ता है, परंतु भगवन्नाम में ऐसी कोई बात नहीं। अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥   'अपवित्र हो, पवित्र हो, किसी भी अवस्थामें क्यों न हो भगवान् पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करते ही बाहर और भीतर की शुद्धि हो जाती है।' जल-मृत्तिका से केवल बाहर की ही शुद्धि होती है। परंतु भगवन्नाम अन्तर के मलों को भी अशेष रूप से धो डालता है, इसका किसी के लिये किसी अवस्था में भी कोई निषेध नहीं है। पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ। सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥ कलिसन्तरणोपनिषद् -में नाम-जप की विधि और उसके फल का बड़ा सुन्दर वर्णन है, पाठकों के लाभार्थ उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है। हरिः ॐ।  द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन कलिं सन्तरेयमिति ॥१॥ 'द्वापर के समाप्त होनेके समय श्रीनारद जी ने ब्रह्माजी के पास जाकर पूछा कि 'हे भगवन्! मैं पृथ्वी की यात्रा करनेवाला कलियुग को कैसे पार करूं'॥ १ ॥  स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्म सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं तच्छ्रुणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि। भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निधूतकलिर्भवति ॥२॥ ब्रह्माजी बोले कि तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। सम्पूर्ण श्रुतियों का जो गूढ़ रहस्य है, जिससे कलि संसार से तर जाओगे, उसे सुनो। उस आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण मात्र से ही कलि के पातकों से मनुष्य मुक्त हो सकता है॥२॥ नारदः पुनः पप्रच्छ। तन्नाम किमिति। स होवाच हिरण्यगर्भः।  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ इति षोडशकं नाम्नां कलि कल्मषनाशनम । नात: परतरोपाय सर्ववेदेषु दृष्यते॥ इति षोडशकलावृतस्य पुरुषस्य आवरणविनाशनम्। ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति॥३॥ 'श्री नारदजी ने फिर पूछा कि 'वह भगवान का नाम कौन-सा है?' ब्रह्मा ने कहा, वह नाम है-  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥* 'इन सोलह नामों के उच्चारण करनेसे कलि के सम्पूर्ण पातक नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों में इससे श्रेष्ठ और कोई उपाय नहीं देखने में आता। इन सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का आवरण (अज्ञान का परदा) नष्ट हो जाता है और मेघों के नाश होने से जैसे सूर्य-किरण समूह प्रकाशित होता है वैसे ही आवरण के नाश से ब्रह्म का प्रकाश हो जाता है'॥ ३॥ ____________________________________________ * इस मंत्र में भगवान के तीन नाम हैं हरि, राम और कृष्ण।' इनमें हरि शब्दका अर्थ है-'हरति योगिचेतांसीति हरिः' जो योगियोंके चित्तोंको हरण करता है वह हरि है। अथवा 'हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः। अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥' जैसे अनिच्छासे स्पर्श कर लेनेपर भी अग्नि जला देती है, इसी प्रकार दुष्टचित्तसे भी स्मरण किया हुआ जो हरि पापोंको हर लेता है उसे हरि कहते हैं। 'राम' शब्दका अर्थ है-'रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति रामः' जिसमें योगिगण रमण करते हैं, उसका नाम राम है, अथवा 'रमन्ते योगिनो ऽन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्म अभिधीयते॥' जिस अनन्त चिदात्मा परब्रह्ममें योगिगण रमण करते हैं वह है राम। 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है 'कर्षति योगिनां मनांसीति कृष्ण:' जो योगियोंके चित्तको आकर्षण करता है वह कृष्ण है। अथवा 'कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निवृत्तवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।' कृषि भू याने सत्तावाचक है और ण निर्वृत्तिवाचक है, इन दोनोंकी एकता होनेपर परब्रह्म कृष्ण कहलाता है।  ____________________________________________  पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति। तं होवाच नास्य विधिरिति।  सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मण: सलोकतां समीपतां सरूपतां सायुज्यतामेति ॥ ४ ॥ नारदजी ने फिर पूछा कि 'हे भगवान! इसकी क्या विधि है?' ब्रह्माजी ने कहा कि 'कोई विधि नहीं है। सर्वदा शुद्ध या अशुद्ध नामोच्चारण मात्र से ही सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है'॥४॥ यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटिर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति। स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। वृषलीगमनात् पूतो भवति। सर्वधर्मपरित्यागपापात्सद्यः शुचितामाप्नुयात्।  सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ५॥ 'ब्रह्माजी फिर कहने लगे कि 'यदि कोई पुरुष इन सोलह नामों के साढ़े तीन करोड़ जप कर ले तो वह ब्रह्म हत्या, स्वर्ण की चोरी, शूद्र स्त्री-गमन और सर्व धर्म त्याग रूपी पापों से मुक्त हो जाता है। वह तत्काल ही मुक्ति को प्राप्त होता है' ॥५॥

जपस्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि होजो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम 'जप' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारणउपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं

 विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः।

उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥

दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ हैउपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है।

जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप कहते हैं (परंतु यह कीर्तन नहीं है)। जिसमें जिह्वा और ओष्ठ तो हिलते हैंपरंतु शब्द अंदर ही रहता है वह उपांशु जप है और जिसमें न जीभ के हिलाने की आवश्यकता होती है और न होठ केवह मानसिक जप कहलाता है। उच्च स्वर से उपांशु उत्तम और उपांशु से मानसिक उत्तम है। यह जप की विधि हैकिसी भी देवता का कैसा ही मन्त्र क्यों न होयह विधि सबके लिये एक-सी है। परंतु भगवन्नाम-जप का तो कुछ विलक्षण ही फल होता है। यह नाम की अलौकिक महिमा है। दूसरे जपों में अनेक प्रकार के विधि-निषेध होते हैंशुद्धि-अशुद्धि का बड़ा विचार करना पड़ता हैपरंतु भगवन्नाम में ऐसी कोई बात नहीं।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

 

'अपवित्र होपवित्र होकिसी भी अवस्थामें क्यों न हो भगवान् पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करते ही बाहर और भीतर की शुद्धि हो जाती है।जल-मृत्तिका से केवल बाहर की ही शुद्धि होती है। परंतु भगवन्नाम अन्तर के मलों को भी अशेष रूप से धो डालता हैइसका किसी के लिये किसी अवस्था में भी कोई निषेध नहीं है।

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।

सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥

कलिसन्तरणोपनिषद् -में नाम-जप की विधि और उसके फल का बड़ा सुन्दर वर्णन हैपाठकों के लाभार्थ उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है।

हरिः ॐ।

द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन कलिं सन्तरेयमिति ॥१॥

'द्वापर के समाप्त होनेके समय श्रीनारद जी ने ब्रह्माजी के पास जाकर पूछा कि 'हे भगवन्! मैं पृथ्वी की यात्रा करनेवाला कलियुग को कैसे पार करूं'॥ १ ॥

 स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्म सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं तच्छ्रुणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि।

भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निधूतकलिर्भवति ॥२॥

ब्रह्माजी बोले कि तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। सम्पूर्ण श्रुतियों का जो गूढ़ रहस्य हैजिससे कलि संसार से तर जाओगेउसे सुनो। उस आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण मात्र से ही कलि के पातकों से मनुष्य मुक्त हो सकता है॥२॥

नारदः पुनः पप्रच्छ। तन्नाम किमिति। स होवाच हिरण्यगर्भः।

 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

इति षोडशकं नाम्नां कलि कल्मषनाशनम । नात: परतरोपाय सर्ववेदेषु दृष्यते॥

इति षोडशकलावृतस्य पुरुषस्य आवरणविनाशनम्।

ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति॥३॥

'श्री नारदजी ने फिर पूछा कि 'वह भगवान का नाम कौन-सा है?' ब्रह्मा ने कहावह नाम है-

 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥*

'इन सोलह नामों के उच्चारण करनेसे कलि के सम्पूर्ण पातक नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों में इससे श्रेष्ठ और कोई उपाय नहीं देखने में आता। इन सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का आवरण (अज्ञान का परदा) नष्ट हो जाता है और मेघों के नाश होने से जैसे सूर्य-किरण समूह प्रकाशित होता है वैसे ही आवरण के नाश से ब्रह्म का प्रकाश हो जाता है'॥ ३॥

____________________________________________

इस मंत्र में भगवान के तीन नाम हैं हरिराम और कृष्ण।इनमें हरि शब्दका अर्थ है-'हरति योगिचेतांसीति हरिः' जो योगियोंके चित्तोंको हरण करता है वह हरि है। अथवा 'हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः। अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥' जैसे अनिच्छासे स्पर्श कर लेनेपर भी अग्नि जला देती हैइसी प्रकार दुष्टचित्तसे भी स्मरण किया हुआ जो हरि पापोंको हर लेता है उसे हरि कहते हैं। 'रामशब्दका अर्थ है-'रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति रामः' जिसमें योगिगण रमण करते हैंउसका नाम राम हैअथवा 'रमन्ते योगिनो ऽन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्म अभिधीयते॥जिस अनन्त चिदात्मा परब्रह्ममें योगिगण रमण करते हैं वह है राम। 'कृष्णशब्द का अर्थ है 'कर्षति योगिनां मनांसीति कृष्ण:' जो योगियोंके चित्तको आकर्षण करता है वह कृष्ण है। अथवा 'कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निवृत्तवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।कृषि भू याने सत्तावाचक है और ण निर्वृत्तिवाचक हैइन दोनोंकी एकता होनेपर परब्रह्म कृष्ण कहलाता है।

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 पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति। तं होवाच नास्य विधिरिति।

 सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मण: सलोकतां समीपतां सरूपतां सायुज्यतामेति ॥ ४ ॥

नारदजी ने फिर पूछा कि 'हे भगवान! इसकी क्या विधि है?' ब्रह्माजी ने कहा कि 'कोई विधि नहीं है। सर्वदा शुद्ध या अशुद्ध नामोच्चारण मात्र से ही सालोक्यसामीप्यसारूप्य और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है'॥४॥

यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटिर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति। स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। वृषलीगमनात् पूतो भवति। सर्वधर्मपरित्यागपापात्सद्यः शुचितामाप्नुयात्।

 सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ५॥

'ब्रह्माजी फिर कहने लगे कि 'यदि कोई पुरुष इन सोलह नामों के साढ़े तीन करोड़ जप कर ले तो वह ब्रह्म हत्यास्वर्ण की चोरीशूद्र स्त्री-गमन और सर्व धर्म त्याग रूपी पापों से मुक्त हो जाता है। वह तत्काल ही मुक्ति को प्राप्त होता है॥५॥

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर

शुक्रवार, मई 15, 2020

श्रीभगवन्नाम- 7 भगवन्नाम के मूल्य पर एक दृष्टान्त

भगवन्नाम के मूल्य पर एक दृष्टान्त

एक श्रद्धालु भक्त प्रतिदिन गांव के बाहर एक महात्मा के पास जाया करता था। जब महात्मा की सेवा करते-करते उसे बहुत दिन बीत गये तब महात्मा ने उसे अधिकारी समझकर कहा कि 'वत्स! तेरी मति भगवान में है, तू श्रद्धालु है, गुरु सेवापरायण है, कुतार्किक आलसी नहीं है, शास्त्र वचनों में विश्वास है, किसी का बुरा नहीं चाहता, किसी से घृणा और द्वेष नहीं करता, सरल-चित्त है, काम, क्रोध, लोभ से डरता है, संतों का उपासक है और जिज्ञासु है; इसलिये तुझे एक ऐसा गोपनीय मन्त्र देता हूँ जिसका पता बहुत ही थोड़े लोगों को है। यह मन्त्र परम गुप्त और अमूल्य है, किसी से कहना नहीं!' यों कहकर महात्मा ने उसके कान धीरे से कह दिया 'राम' श्रद्धालु भक्त मन्त्रराज 'राम' का जप करने लगा।

वह एक दिन गंगा नहाकर लौट रहा था तो उसका ध्यान उन लोगोंकी तरफ गया तो हजारों की संख्या में उसी की तरह गंगा नहाकर जोर-जोर से 'राम-राम' पुकारते चले आ रहे थे। सुनता तो रोज ही था परंतु कभी इस ओर उसका ध्यान नहीं गया था। आज ध्यान जाते ही उसके मन में यह विचार आया कि महात्मा तो राम मंत्र को बड़ा गुप्त बतलाते थे, मुझसे कह भी दिया था कि किसी से कहना नहीं, परंतु इसको तो सभी जानते हैं, हजारों मनुष्य 'राम-राम' पुकारते हुए चलते हैं। उसके मन में कुछ संशय उत्पन्न हो गया। वह अपने घर न जाकर सीधे गुरु के समीप गया।

महात्मा ने कहा कि 'वत्स! आज इस समय कैसे आया?' उसने अपना संशय सुनाकर कहा कि 'प्रभो! मेरे समझने में भ्रम हुआ है या इसका और कोई मतलब है? अपनी दिव्यवाणी से मेरा संदेह दूर करने की कृपा कीजिए।' महात्मा ने उसके मन की बात जान ली और कहा कि 'भाई! तेरे प्रश्न का उत्तर पीछे दिया जायगा। पहले तू मेरा एक काम कर।' महात्मा ने झोली में से एक चमकती हुई कांच की- सी गोली निकाली और उसे भक्त के हाथ में देकर कहा कि 'बाजार में जाकर इसकी कीमत करवा के लौट आ। बेचना नहीं है, सिर्फ कीमत जाननी है। सावधान! कीमत अँकाने में कहीं भूल न हो जाय।

भक्त श्रद्धालु था, आजकल का - सा कोई होता तो पहले ही गुरु महाराज को आड़े हाथों लेता और कहता कि मैं तुम्हारे काँच के टुकड़े की कीमत जँचवाने नहीं आया हूँ, तुम्हारा कोई गुलाम नहीं हूँ। पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो, नहीं तो मेरे साथ छल करने के अपराध तुमपर कोर्ट में नालिश की जायगी।' वह समय दूसरा था। भक्त अपना प्रश्न वहीं छोड़कर गुरु का काम करनेके लिये बाजार में गया।

सबसे पहले एक शाक बेचने वाली वाली मिली। भक्त ने गुरु की चीज उसे दिखलाकर कहा कि 'इसकी क्या कीमत देगी?' शाक बेचने वाली ने पत्थर की चमक और सुन्दरता देखकर सोचा कि बच्चों के खेलने के लिये काँच की बड़ी सुन्दर गोली है। बाजार में कहीं ऐसी नहीं मिलती। उसने कहा-'सेर-दो-सेर आलू या बैंगन ले लो।' वह आगे बढ़ा, एक सुनारकी दूकान थी वहाँ ठहरा। सुनार को गोली दिखलाकर पूछा-'भाई! इसकी क्या कीमत दोगे?' सुनार ने हाथ में लेकर देखा और उसे अच्छा पुखराज (नकली हीरा) समझकर सौ रुपये देने को कहा। भक्तकी भी दिलचस्पी बढ़ी, वह और आगे बढ़ा।

 

एक महाजन के यहाँ गया। महाजन ने गोली देखकर मनमें विचार किया कि इतना बड़ा और ऐसा अच्छा हीरा तो जगत् में कहाँ से होगा? है तो पुखराज ही, परंतु हीरा-सा लगता है। बड़े घर में नकली भी असली ही समझा जाता है, उसने हजार रुपया में माँगा। भक्त ने सोचा कि हो-न-हो, है तो कोई बड़ी मूल्यवान् वस्तु। वह और आगे बढ़ा और एक जौहरी की दूकान पर गया। जौहरी ने परीक्षा की तो उसे हीरा ही मालूम दिया, परंतु इतना बड़ा और ऐसा हीरा कभी उसने देखा ही न था, इसलिये उसे कुछ सन्देह रहा तथापि उसने एक लाख रुपये में माँगा। भक्त 'बेचना नहीं है' कहकर एक सबसे बड़े जौहरी की दूकान पर गया। जब गुरु के पास से आया था तब तो उसे जौहरियों के पास जाने का साहस ही नहीं था, वह स्वयं उसे मामूली काँच समझता था, परंतु ज्यों-ज्यों कीमत बढ़ती गयी त्यों-त्यों उसका भी साहस बढ़ता गया। बड़े जौहरी ने हीरा देखकर कहा कि 'भाई! यह तो अमूल्य है। इस देश की सारी जवाहरात इसके मूल्य में दे दी जाय तब भी इसका मूल्य पूरा नहीं होता। इसे बेचना नहीं।' यह सुनकर भक्त ने विचार किया कि अब तो सीमा हो चुकी।

वह लौटकर महात्मा के पास गया और बोला कि 'महाराज! इसकी कीमत कोई कर ही नहीं सकता, यह तो अमूल्य वस्तु है।' गुरु ने पूछा कि 'तुमको यह किसने बताया?' भक्त ने कहा कि 'प्रभु! मैंने यहाँ से बाजार में जाकर पहले शाक वाली से पूछा तो सेर दो-सेर शाक देना स्वीकार किया, सुनार ने सौ रुपये कहे, महाजन ने हजार, जौहरी ने लाख और अन्त में सबसे बड़े जौहरी ने इसे अमूल्य बतलाते हुए यह कहा कि यदि देश की सारी जवाहरात इसके बदले में दे दी जाय तब भी इसका मूल्य पूरा नहीं होता।' महात्मा ने उससे रत्न लेकर अपनी झोली में रख लिया।

भक्त ने कहा कि 'महारानी ! अब मेरी शंका-निवारण कीजिये।' महात्मा ने कहा भाई! मैं तो तुझे शंका-निवारण के लिये दृष्टान्त सहित उपदेश दे चुका। तू अभी नहीं समझा, इसलिये फिर समझाता हूँ। इस रत्न की कीमत कराने में ही तेरी शंका दूर होनी चाहिये थी। रत्न अमूल्य था, परंतु उसकी असली पहचान केवल सबसे बड़े जौहरी को ही हुई, दूसरे नहीं पहचान सके। यदि मैंने तुझे बेचने के लिये आज्ञा दे दी होती तो तू दो सेर के बदले पाँच-सात सेर शाक के मूल्य पर इसे बेच ही देता आगे बढ़ता ही नहीं। अमूल्य वस्तु कौड़ी के मूल्य चली जाती। कितना बड़ा नुकसान होता। इसी प्रकार श्रीराम-नाम भी गुप्त और अमूल्य पदार्थ है, इसकी पहचान सबको नहीं है और न इसका मूल्य ही सब कोई जानते हैं। चीज हाथ में होनेपर भी जबतक उसकी पहचान नहीं होती, तबतक उसका असलीपन गुप्त ही रहता है। इसी तरह राम-नामके असली महत्त्व को भी बहुत कम लोग जानते हैं।

 जो राम-नामका व्यवसाय करते हैं वे बेचारे बडे दयाके पात्र हैं। क्योंकि वे इस अमूल्य धन राम-नामको कौड़ीके मूल्यपर बेच देते हैं। इसीसे परम मूल्यवान् रत्नको दो सेर शाकके बदलेमें बेच देनेवाले मूर्खके समान वे सदा ही भक्ति और प्रेममें दरिद्री ही रहते हैं।

भक्ति और प्रेम के हुए बिना परमात्मा नहीं मिलते और परमात्मा को प्राप्त किये बिना दुखों से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति परमात्मा को प्राप्त करने में ही है और उस-

परमात्मा की प्राप्ति का परम साधन श्रीभगवन्नाम है

 इसलिये भगवन्नाम का किसी भी दूसरे काम में प्रयोग नहीं करना चाहिये। भगवन्नाम लेना चाहिये केवल भगवान के लिये। भगवान् के लिये भी नहीं, उसके प्रेमके लिये-प्रेमके लिये भी नहीं, बल्कि इसलिये कि लिये बिना रहा नहीं जाता।

मनकी वृत्तियाँ ऐसी बन जानी चाहिये कि जिससे भजन हुए बिना एक क्षण भी चैन नहीं पड़े। जैसे श्वास रुकते ही गला घुट जाता है-प्राण अत्यन्त व्याकुल होकर छटपटाने लगते हैं, इसी प्रकार भजन में जरा-सी भी भूल होनेसे, क्षण भर के लिये भी भजन छूटने में प्राण छटपटाने लगें। इसलिए भगवान नारद कहते हैं—

अव्यावृत भजनात तैलधारावत्

निरन्तर भजन करनेसे ही प्रेमकी प्राप्ति होती है। भजन में सबसे पहले नामकी आवश्यकता है। जिसका भजन करना होता है, सर्वप्रथम उसका नाम जानना पड़ता है। इसलिये नाम ही भजन का मूल है।

 

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 
            पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर


शुक्रवार, मई 08, 2020

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं-

(१) सत्पुरुषों की निन्दा, (२) नामों में भेदभाव, (३) गुरु का अपमान, (४) शास्त्र-निन्दा, (५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना, (६) नामका सहारा लेकर पाप करना, (७) धर्म, व्रत, दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना, (८) अश्रद्धालु, हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना, (९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) 'मैं', 'मेरे' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।

 

यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण  का वचन है —

नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्।

अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥

नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके, नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये। यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार नाम-जप से कामना सिद्धि के सिवा अन्तःकरण की शुद्धि होकर भगवद्भक्ति रूप विशेष फल भी मिलता है, परंतु नियम यही है कि जैसी कामना हो—सांगोपांग कर्म होनेपर—वैसा ही फल मिल जाय। जो लोग भगवन्नाम का साधारण बातों में प्रयोग करते हैं वे वास्तव में भगवन्नाम की अपार महिमा से सर्वथा अनभिज्ञ हैं या उसपर उनका विश्वास नहीं है। जो रत्न मूल्य से अनभिज्ञ होगा वही उसे कांच मोल पर बेचेगा।


 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 
            पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर

 


बुधवार, मई 06, 2020

श्रीभगवन्नाम- ५ नामका फल अवश्य होता है

नामका फल अवश्य होता है


परंतु जैसा चाहिये वैसा नहीं होता। दम्भार्थ नाम लेने वाले भी संसार में पूजे जाते हैं। उनके पापोंका नाश भी होता ही है, परंतु अनन्त जन्मों के संचित और इस समय भी लगातार होनेवाले अनन्त पाप श्रद्धा रहित नाम से पूरे नष्ट नहीं हो पाते। नामसे पूरा फल प्राप्त न होने में श्रद्धा के अतिरिक्त एक और प्रधान कारण है –

साधक का सकाम भाव!

हम बहुत बड़ी मूल्यवान् वस्तु को बहुत सस्ते दामों पर बेच देते हैं। सिर में मामूली दर्द होता है तो उसे मिटाने के लिये "राम-राम" कहते हैं। सौ-पचास रुपये कमाई के लिये राम-नाम लेते हैं। स्त्री, बच्चों की आरोग्यता के लिये राम-नाम लेते हैं। मान-बड़ाई पाने के लिये राम-नाम कहते हैं। संतान-सुख के लिये राम-नाम कहते हैं। फल यह होता है कि हम राम-नाम लेनेपर भी कमाने के साथ ही लुटाने वाले मूर्ख के समान जैसे-के-तैसे ही रह जाते हैं। चलनी में जितना भी पानी भरते रहो, सभी निकल जायगा। हमारा अन्तःकरण भी कामनाओं के अनन्त छेद से चलनी हो रहा है। इसमें कुछ भी ठहरता नहीं। राम-नामका फल कैसे हो? प्यास लगी हुई है, जगत् में सुखकी पिपासा किसको नहीं है? पवित्र जल का भी झरना झर रहा है, राम-नामके झरने का प्रवाह सदा ही अबाधित रूप से बहता है, परंतु हम अभागे उस झरने के आगे अंजलि बाँधकर जल ग्रहण नहीं करते। हम उसके आगे रखते हैं हजारों छेदों वाली चलनी, जिसमें न तो कभी पानी ठहरता है और न हमारी प्यास ही बुझती है। सकाम भाव से लिये हुए नामसे भी, नाम के असली फल - आत्यन्तिक सुख से - हम इसी प्रकार वंचित रह जाते हैं। प्रथम तो कोई भगवन्नाम लेता ही नहीं और यदि कोई लेता है तो वह सकाम भाव से, धन-सन्तान, मान- बड़ाई की वृद्धि के लिये लेता है। नियमानुसार फल में जहाँ-का-तहाँ ही रहना पड़ता है। परंतु नाम की महिमा अपार है। इस प्रकार लिये हुए नामसे भी फल तो होता ही है। सकाम कर्म की सिद्धि भी होती है और आगे चलकर भगवद्भक्ति प्राप्त होती है।

जब इन पंक्तियों का क्षुद्र लेखक सकाम भाव से नाम-जप किया करता था तब कई बार उसकी ऐसी विपत्तियाँ टली हैं जिनके टलने की कोई भी आशा नहीं थी। केवल वह विपत्तियाँ ही नहीं टली, उसका और फल भी हुआ। नाममें रुचि बढ़ी और आगे चलकर निष्काम भाव भी हो गया। भगवन्नाम लेनेका अन्तिम परिणाम है भगवान् में एकान्त प्रेम हो जाना। एकान्त प्रेम होनेके बाद प्रेममयके मिलनेमें जरा-सा भी विलम्ब नहीं होता जैसे ध्रुव को और विभीषण को राज्य की भी प्राप्ति हुई और भगवत्प्रेमकी भी।

इसीलिये शास्त्रों में चाहे जैसे भगवन्नाम लेने वाले को भी बड़ा उत्तम बतलाया है, भगवान् ने गीता में इसीलिये अर्थार्थी भक्त को भी उदार और पुण्यात्मा बतलाया है और अन्त में 'मद्भक्ता यान्ति मामपि' कहकर चाहे जिस प्रकार भी भगवद्भक्ति करनेवालेको अपनी प्राप्ति कही है, क्योंकि सकाम भाव से अन्य सबकी आशा छोड़कर, अन्य सबका आश्रय त्यागकर केवल भगवान् की भक्ति के परायण होना भी बड़े भारी पुण्यों का फल है। अतएव सकाम भाव से भगवान् के नाम-ग्रहण करनेवाले लोग भी बड़े पूज्य और मान्य हैं; परंतु उनको सकाम भाव की प्रतिबन्धकता के कारण नाम के वास्तविक फल नामी के प्रेम की या स्वयं नामी की प्राप्ति में विलम्ब अवश्य हो जाता है। इससे यह सिद्ध हो गया कि नामसे फल तो अवश्य होता है, परंतु अश्रद्धा, अविश्वास और कामना के कारण उसके असली फल की प्राप्ति में देर हो जाती है। यदि साधक इस अपने दोषसे होने वाली देरी का दोष नामपर लगाकर उसे अर्थवाद कहता है तो यह भी उसका अपराध है।

 

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर