जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, मार्च 24, 2020

श्रीभगवन्नाम-चिन्तन एवं नाम-महिमाके कुछ श्लोक 1


श्रीभगवन्नाम-चिन्तन एवं नाम-महिमाके कुछ श्लोक


श्रीभगवन्नाम-चिन्तन एवं नाम-महिमाके कुछ श्लोक Shri Bhagwannam Chintan Naam Mahima Ke kuch Shlok  gitapress india hanuman prasad poddar


भगवानका नाम भगवानका ही अभिन्न स्वरूप है और वह भगवान की ही शक्ति से भगवान से भी अधिक शक्तिशाली और ऐश्वर्यवान् है। जैसे किसी महान् वैभवशाली सम्राट को अपने खजानेकी असंख्य धन-राशि संख्याका पता नहीं रहता, इसी प्रकार नामी भगवान भी अपने नामकी अनन्त गुणावलियोंका पता रखना नहीं चाहते। यह भी उनका एक महान् गुण है। भगवान के जिस मंगलमय नामसे पंचम पुरुषार्थ भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है, उसके बदलेमें में मोक्ष की चाह करना भी प्रेमियोंने कामना माना है। अतएव लोक-परलोककी किसी भी क्षुद्र-महान् कामनामें नामका प्रयोग करना एक प्रकारसे अविवेक या मूर्खता ही है। लोक-परलोकके जो भोग हैं, सभी दुःखयोनि और विनाशी हैं, ऐसे मधुर विषरूप विषयोंकी चाह करना और नामके बदले में उन्हें चाहना महान् मूर्खता है।

तुलसीदास 'हरिनाम' सुधा तजि सठ
हठि पियत बिषय बिष माँगी।

अतएव बुद्धिमान् और अपना यथार्थ कल्याण चाहनेवाले वाले पुरुष का यही कर्तव्य है कि वह अपने जीवनको भगवन्नाममय बना दे और नामके फलस्वरूप उत्तरोत्तर बढ़ती हुई नामनिष्ठाकी ही कामना करे। यही नामका आदर है और इसी भावसे नामका सेवन भी करना चाहिये।

परंतु जबतक यह भाव जाग्रत् न हो, तबतक किसी भी भावसे किसी भी सत्कामनाको लेकर नामका आश्रय लेने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा करना मूर्खता होनेपर भी पाप नहीं है, वरं कर्तव्य है। अवश्य ही जिसमें किसी दूसरेका जरा भी अहित होता हो और परिणाममें अपना भी अहित होता हो, ऐसे किसी कार्य की सिद्धि के लिये भगवानके नाम का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये।

जबतक भगवान के नाममें 'रति' न पैदा हो जाय, तबतक 'रुचि' के साथ भगवान का नाम लेना चाहिये, जबतक रुचि न पैदा हो तबतक भगवानके नामका 'अभ्यास' करना चाहिये और अभ्यासकी दृढ़ता न होनेतक 'अमोघ औषधि' के रूप में भगवान का नाम लेना चाहिये। भगवान का नाम नित्य मधुर और दिव्य अमृतरूप है। उदाहरणके लिये मिश्री मीठी होनेपर भी पित्तके रोगीकी जीभ कड़वी होनेके कारण मिश्री कड़वी लगती है; परंतु मिश्री पित्त-नाशकी दवा है। मिश्रीके सेवनसे पित्तका शमन होनेपर जब जीभ का कालापन मिट जाता है, तब मिश्री मीठी लगने लगती है; क्योंकि वह मीठी ही है। इसी प्रकार पूर्वसंचित कर्म-मलके कारण हमारी दूषित आवृत्ति जब तक भगवान के नाम के माधुर्यका अनुभव नहीं करती, बल्कि उसे कड़वा समझती है, तबतक दवाके रूपमें जबरदस्ती उसे लेते रहना चाहिये। लेते-लेते कर्म-मलका शमन होते ही भगवान की सहज नाम-माधुरीका स्वाद आने लगेगा।

परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि नामका आश्रय कलियुगमें सबसे बड़ा आश्रय है। इस एक ही आश्रयसे सर्वांगीण पूर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है। अतएव नित्य-निरन्तर नामका सेवन करना चाहिये और जहाँतक बने नामका सेवन 'नाम-प्रेमकी वृद्धि' के लिये ही करना चाहिये; किसी भी लौकिक-पारलौकिक इच्छाकी पूर्तिके लिये नहीं। नामका फल अचिन्त्य और अमूल्य है। उनकी वास्तविकता पर ध्यान न देकर उसमें भरे वास्तविक सत्यको ग्रहण करना चाहिये।

     नामका जप मानसिक, उपांशु और वाचिक-तीनों तरहसे हो सकता है। नाम-जप जितनी सूक्ष्मता हो, उतना ही वह श्रेष्ठ है। पर नाम-कीर्तनमें जितना ही वाणीका स्पष्ट उच्चारण और उद्घोष हो, उतना ही श्रेष्ठ है। अपनी-अपनी स्थिति और रुचि के अनुसार जप कीर्तन करना चाहिये।
    
  - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर 

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

जय श्रीमन्नारायण

बेनामी ने कहा…

जय श्रीमन्नारायण