जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, अप्रैल 29, 2020

श्रीभगवन्नाम - 4 श्रद्धा पर एक दृष्टान्त


श्रद्धा पर एक दृष्टान्त

श्रीभगवन्नाम श्रद्धा पर एक दृष्टान्त     एक समय शिवजी महाराज पार्वती के साथ हरिद्वार में घूम रहे थे। पार्वती ने देखा कि सहस्रों मनुष्य गंगा नहा-नहाकर हर-हर करते चले जा रहे हैं; परंतु प्रायः सभी दुःखों और पाप-परायण हैं। पार्वती ने बड़े आश्चर्य के साथ शिवजी से पूछा कि ‘हे देवदेव! गंगा में इतनी बार स्नान करनेपर भी इनके पाप और दुखों का नाश क्यों नहीं हुआ? क्या गंगा में सामर्थ्य नहीं रही?’ शिवजी ने कहा-’प्रिये! गंगा में तो वही सामर्थ्य है; परंतु इन लोगों ने पाप नाशिनी गंगा में स्नान ही नहीं किया है तब इन्हें लाभ कैसे हो?’ पार्वती ने साश्चर्य कहा कि ‘स्नान कैसे नहीं किया? सभी तो नहा-नहाकर आ रहे हैं? अभी तक उनका शरीर भी नहीं सूखे हैं।’ शिवजी ने कहा—‘ये केवल जल में डुबकी लगाकर आ रहे हैं। तुम्हें कल इसका रहस्य समझाऊँगा।’  दूसरे दिन बड़े जोर की बरसात होने लगी गलियाँ कीचड़ से भर गयी एक चौड़े रास्ते में एक गहरा गड्ढा था, चारों ओर लपटीला कीचड़ भर रहा था। शिवजी ने लीला से ही वृद्ध-रूप धारण कर लिया और दीन-विवश की तरह गड्ढे में जाकर ऐसे पड़ गये जैसे कोई मनुष्य चलता-चलता गड्ढे में गिर पड़ा हो और निकलने की चेष्टा करनेपर भी न निकल सकता है ।  पार्वती को यह समझाकर गड्ढे के पास बैठा दिया कि ‘देखो! तुम लोगों को सुना-सुनाकर यों पुकारती रहो कि मेरे वृद्ध पति अकस्मात् गड्ढे में गिर पड़े हैं, कोई पुण्यात्मा इन्हें निकाल कर इनके प्राण बचावे और मुझ असहाय की सहायता करे।’ शिवजी ने यह और समझा दिया कि जब कोई गड्ढे से मुझे निकालने को तैयार हो तब इतना और कह देना कि ‘भाई! मेरे पति सर्वथा निष्पाप हैं, इन्हें वही छुए जो स्वयं निष्पाप हो, यदि आप निष्पाप हैं तो इनके हाथ लगाओ, नहीं तो हाथ लगाते ही आप भस्म हो जायँगे।’ पार्वती ‘तथास्तु’ कहकर गड्ढेके किनारे बैठ गयीं और आने-जाने वालों को सुना-सुनाकर शिव जी की सिखायी हुई बात कहने लगीं। गंगा में नहाकर लोगों के दल-के-दल आ रहे हैं। सुन्दरी युवती को यों बैठी देखकर कइयों के मनमें पाप आया, कई लोक-लज्जा से डरे तो कइयों को कुछ धर्म का भय हुआ, कई कानून से डरे। कुछ लोगों ने तो पार्वती को यह सुना भी दिया कि मरने दे बुड्ढे को! क्यों उसके लिये रोती है? आगे और कुछ भी कहा, मर्यादा भंग होने के भयसे वे शब्द लिखे नहीं जाते। कुछ दयालु सच्चरित्र पुरुष थे, उन्होंने करुणा वश हो, युवती के के पति को निकालना चाहा, परंतु पार्वती के वचन सुनकर वे भी रुक गये। उन्होंने सोचा कि हम गंगा में नहाकर आये हैं तो क्या हुआ, पापी तो हैं ही, कहीं होम करते हाथ न जल जायँ। बूढ़े को निकालने जाकर इस स्त्री के कथनानुसार हम स्वयं भस्म न हो जायँ। सुतरां किसी का साहस नहीं हुआ। सैकड़ों आये, सैकड़ों ने पूछा और चले गये सन्ध्या हो चली। शिवजी ने कहा पार्वती ! देखा, आया कोई गंगा में नहाने वाला ?"   - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार  पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर    थोड़ी देर बाद एक जवान हाथ में लोटा लिये हर-हर करता हुआ निकला, पार्वती ने उससे भी वही बात कही। युवक का हृदय करुणा से भर आया। उसने शिवजी निकालने की तैयारी की। पार्वती ने रोककर कहा कि ‘भाई! यदि तुम सर्वथा निष्पाप नहीं होओगे तो मेरे पति को छूते ही जल जाओगे।’ उसने उसी क्षण बिना किसी संकोच के दृढ़ निश्चय के साथ पार्वती से कहा कि ‘माता! मेरे निष्पाप होने में तुझे संदेह क्यों होता है? देखती नहीं, मैं अभी गंगा नहाकर आया हूँ। भला गंगा में गोता लगाने के बाद भी कभी पाप रहते हैं? तेरे पति को निकालता हूँ।’ युवक ने लपककर बूढ़े को ऊपर उठा लिया। शिव-पार्वती ने उसे अधिकारी समझकर अपना असली स्वरूप प्रकट कर उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया। शिवजी ने पार्वती से कहा कि ‘इतने लोगों में से इस एक ने ही वास्तव में गंगा स्नान किया है।’ इसी दृष्टान्त के अनुसार जो लोग बिना श्रद्धा और विश्वास के केवल दम्भ के लिये नाम-ग्रहण करते हैं, उन्हें वास्तविक फल नहीं मिलता; परंतु इसका यह मतलब नहीं कि नाम-ग्रहण व्यर्थ जाता है।     - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार  पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर

एक समय शिवजी महाराज पार्वती के साथ हरिद्वार में घूम रहे थे। पार्वती ने देखा कि सहस्रों मनुष्य गंगा नहा-नहाकर हर-हर करते चले जा रहे हैंपरंतु प्रायः सभी दुःखों और पाप-परायण हैं। पार्वती ने बड़े आश्चर्य के साथ शिवजी से पूछा कि हे देवदेव! गंगा में इतनी बार स्नान करनेपर भी इनके पाप और दुखों का नाश क्यों नहीं हुआक्या गंगा में सामर्थ्य नहीं रही?’ शिवजी ने कहा-प्रिये! गंगा में तो वही सामर्थ्य हैपरंतु इन लोगों ने पाप नाशिनी गंगा में स्नान ही नहीं किया है तब इन्हें लाभ कैसे हो?’ पार्वती ने साश्चर्य कहा कि स्नान कैसे नहीं कियासभी तो नहा-नहाकर आ रहे हैंअभी तक उनका शरीर भी नहीं सूखे हैं।’ शिवजी ने कहा—‘ये केवल जल में डुबकी लगाकर आ रहे हैं। तुम्हें कल इसका रहस्य समझाऊँगा।
दूसरे दिन बड़े जोर की बरसात होने लगी गलियाँ कीचड़ से भर गयी एक चौड़े रास्ते में एक गहरा गड्ढा थाचारों ओर लपटीला कीचड़ भर रहा था। शिवजी ने लीला से ही वृद्ध-रूप धारण कर लिया और दीन-विवश की तरह गड्ढे में जाकर ऐसे पड़ गये जैसे कोई मनुष्य चलता-चलता गड्ढे में गिर पड़ा हो और निकलने की चेष्टा करनेपर भी न निकल सकता है ।
पार्वती को यह समझाकर गड्ढे के पास बैठा दिया कि देखो! तुम लोगों को सुना-सुनाकर यों पुकारती रहो कि मेरे वृद्ध पति अकस्मात् गड्ढे में गिर पड़े हैंकोई पुण्यात्मा इन्हें निकाल कर इनके प्राण बचावे और मुझ असहाय की सहायता करे।’ शिवजी ने यह और समझा दिया कि जब कोई गड्ढे से मुझे निकालने को तैयार हो तब इतना और कह देना कि भाई! मेरे पति सर्वथा निष्पाप हैंइन्हें वही छुए जो स्वयं निष्पाप होयदि आप निष्पाप हैं तो इनके हाथ लगाओनहीं तो हाथ लगाते ही आप भस्म हो जायँगे। पार्वती तथास्तु’ कहकर गड्ढेके किनारे बैठ गयीं और आने-जाने वालों को सुना-सुनाकर शिव जी की सिखायी हुई बात कहने लगीं। गंगा में नहाकर लोगों के दल-के-दल आ रहे हैं। सुन्दरी युवती को यों बैठी देखकर कइयों के मनमें पाप आयाकई लोक-लज्जा से डरे तो कइयों को कुछ धर्म का भय हुआकई कानून से डरे। कुछ लोगों ने तो पार्वती को यह सुना भी दिया कि मरने दे बुड्ढे को! क्यों उसके लिये रोती हैआगे और कुछ भी कहामर्यादा भंग होने के भयसे वे शब्द लिखे नहीं जाते। कुछ दयालु सच्चरित्र पुरुष थेउन्होंने करुणा वश होयुवती के के पति को निकालना चाहापरंतु पार्वती के वचन सुनकर वे भी रुक गये। उन्होंने सोचा कि हम गंगा में नहाकर आये हैं तो क्या हुआपापी तो हैं हीकहीं होम करते हाथ न जल जायँ। बूढ़े को निकालने जाकर इस स्त्री के कथनानुसार हम स्वयं भस्म न हो जायँ। सुतरां किसी का साहस नहीं हुआ। सैकड़ों आयेसैकड़ों ने पूछा और चले गये सन्ध्या हो चली। शिवजी ने कहा पार्वती ! देखाआया कोई गंगा में नहाने वाला ?"

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेसगोरखपुर 


थोड़ी देर बाद एक जवान हाथ में लोटा लिये हर-हर करता हुआ निकलापार्वती ने उससे भी वही बात कही। युवक का हृदय करुणा से भर आया। उसने शिवजी निकालने की तैयारी की। पार्वती ने रोककर कहा कि भाई! यदि तुम सर्वथा निष्पाप नहीं होओगे तो मेरे पति को छूते ही जल जाओगे।’ उसने उसी क्षण बिना किसी संकोच के दृढ़ निश्चय के साथ पार्वती से कहा कि माता! मेरे निष्पाप होने में तुझे संदेह क्यों होता हैदेखती नहींमैं अभी गंगा नहाकर आया हूँ। भला गंगा में गोता लगाने के बाद भी कभी पाप रहते हैं? तेरे पति को निकालता हूँ।’ युवक ने लपककर बूढ़े को ऊपर उठा लिया। शिव-पार्वती ने उसे अधिकारी समझकर अपना असली स्वरूप प्रकट कर उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया। शिवजी ने पार्वती से कहा कि इतने लोगों में से इस एक ने ही वास्तव में गंगा स्नान किया है।’ इसी दृष्टान्त के अनुसार जो लोग बिना श्रद्धा और विश्वास के केवल दम्भ के लिये नाम-ग्रहण करते हैंउन्हें वास्तविक फल नहीं मिलतापरंतु इसका यह मतलब नहीं कि नाम-ग्रहण व्यर्थ जाता है।

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेसगोरखपुर 


शुक्रवार, अप्रैल 17, 2020

श्रीभगवन्नाम -3 नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं

नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं


श्रीभगवन्नाम Hanuman Prasad Poddar नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं—  यह सर्वथा यथार्थ तत्व है। बड़े-बड़े ऋषियों और संत-महात्माओं ने नाम-महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव करके ही उसके गुण गाये हैं। अब भी ऐसे लोग मिल सकते हैं जिन्हें नाम की प्रबल शक्ति का अनेक बार, अनेक तरहसे अनुभव हो चुका है। परन्तु वे लोग उन सब रहस्यों को अश्रद्धालु और नामापमानकारी लोगों के सामने कहना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी एक नामका अपराध है— अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराध:। 'अश्रद्धालु, नाम विमुख और सुनना न चाहने वाले को नाम का उपदेश करना कल्याण रूप नाम का एक अपराध है।'  जो नाम के रसिक हैं, जिन्हें इसमें असली रसास्वाद का कभी अवसर प्राप्त हो गया है वे तो फिर दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकते। न उन्हें शरीर की कुछ परवा रहती है और न जगत् की। मतवाले शराबी की तरह नाम प्रेम में मस्त हुए वे कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी नाचते हैं। उनके लिये फिर कोई अपना-पराया नहीं रह जाता। ऐसे ही प्रेमियों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी लिखते हैं  प्रेम लग्यो परमेश्वरसों तब भूलि गयो सिगरो घरबारा। ज्यों उन्मत्त फिरे जित ही तित नेकु रही न सरीर सँभारा॥ स्वास उस्वास उठे सब रोम चले दृग नीर अखंडित धारा। सुन्दर कौन करै नवधाविधि छाकि परयो रस पी मतवारा॥ वास्तव में ऐसे ही पुरुष नाम के यथार्थ भक्त हैं और इन्हीं लोगों द्वारा किया हुआ नामोच्चारण जगत को पावन कर देता है, जहाँतक ऐसी प्रेमकी मस्ती न प्राप्त हो, वहाँ तक प्रेम मार्ग में भी शास्त्रों की मर्यादा का पूरा रक्षण करना चाहिये। भगवान नारद कहते हैं—  अन्यथा पातित्याशङ्कया ।      (नारद भक्ति सूत्र १३) 'नहीं तो पतित होनेकी आशंका है', अतएव आरम्भ में अपने-अपने वर्णाश्रमानुमोदित सन्ध्या-वन्दन, पिता-माता आदि की सेवा, परिवार संरक्षण आदि वैदिक और लौकिक कार्य को करते हुए श्रीभगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्मृति कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं है, यथासमय और यथास्थान उनका आचरण अवश्य करना चाहिये। रामनाम ऐसा धन नहीं है जो ऐसे-वैसे कामोंमें खर्च किया जाय। जो मनुष्य मामूली-सा काँच का टुकड़ा खरीदने जाकर बदले में बहुमूल्य हीरा दे आता है वह कभी बुद्धिमान् नहीं कहलाता। इसी प्रकार जो कार्य लौकिक या स्मृति विहित कर्मों के आचरण से सिद्ध हो सकता है, उसमें नाम का प्रयोग करना राजाधिराज से झाड़ दिलवाने के समान है सोने मिट्टी के भाव बेचने के समान है; अतएव नाम-जप में स्मृति विहित कर्मों के त्याग की कोई आवश्यकता नहीं।  कुछ लोगोंकी यह आशंका है कि आजकल नाम लेने वाले तो बहुत लोग देखे जाते हैं, परंतु उनकी दशा देखते हैं तो मालूम होता है कि उनको कोई लाभ नहीं हुआ। जिस नामके एक बार उच्चारण करने मात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश होना बतलाया जाता है, उस नाम को लाखों बार आवृत्ति करनेपर भी लोग पापों में प्रवृत्त और दुःखी देखे जाते हैं, इसका क्या कारण है? इसके उत्तर में पहली बात तो यह है कि लाखों बार नाम की आवृत्ति उनके द्वारा वस्तु: होती नहीं, धोखे से समझ ली जाती है। दूसरा कारण यह है कि उनकी नाममें यथार्थ श्रद्धा नहीं है। नाम के इस माहात्म्य में उन्हें स्वयं ही संशय है। भगवान् ने गीता में कहा है-'संशयात्मा विनश्यति', इसलिए उन्हें पूरा लाभ नहीं होता। भजन में श्रद्धा ही फल सिद्धि का मुख्य साधन है। अवश्य ही भजन करने वाले में श्रद्धा का कुछ अंश तो रहता ही है। यदि श्रद्धा का सर्वथा अभाव हो तो भजन में प्रवृत्ति ही न हो। बिना किंचित् श्रद्धा हुए किसी कार्य विशेष में प्रवृत्त होना बड़ा कठिन है। अतएव का नाम ग्रहण करते हैं उनमें श्रद्धाका कुछ अंश तो अवश्य है, परंतु श्रद्धा के उस क्षुद्र अंश की अपेक्षा संशय की मात्रा कहीं अधिक है, इसलिए उन्हें वास्तविक फल से वंचित रहना पड़ता है। गंगा स्नान पापों का अशेष नाश होना बताया गया है; परन्तु नित्य गंगा स्नान करने वाले लोग भी पाप में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं (यद्यपि एक बार का भी भगवन्नाम - हजारों बार के गंगा स्नान से बढ़कर है)।   - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर

यह सर्वथा यथार्थ तत्व है। बड़े-बड़े ऋषियों और संत-महात्माओं ने नाम-महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव करके ही उसके गुण गाये हैं। अब भी ऐसे लोग मिल सकते हैं जिन्हें नाम की प्रबल शक्ति का अनेक बारअनेक तरहसे अनुभव हो चुका है। परन्तु वे लोग उन सब रहस्यों को अश्रद्धालु और नामापमानकारी लोगों के सामने कहना नहीं चाहतेक्योंकि यह भी एक नामका अपराध है—
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराध:
'अश्रद्धालुनाम विमुख और सुनना न चाहने वाले को नाम का उपदेश करना कल्याण रूप नाम का एक अपराध है।'
जो नाम के रसिक हैंजिन्हें इसमें असली रसास्वाद का कभी अवसर प्राप्त हो गया है वे तो फिर दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकते। न उन्हें शरीर की कुछ परवा रहती है और न जगत् की। मतवाले शराबी की तरह नाम प्रेम में मस्त हुए वे कभी हँसते हैंकभी रोते हैंकभी गाते हैंकभी नाचते हैं। उनके लिये फिर कोई अपना-पराया नहीं रह जाता। ऐसे ही प्रेमियों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी लिखते हैं
प्रेम लग्यो परमेश्वरसों तब भूलि गयो सिगरो घरबारा।
ज्यों उन्मत्त फिरे जित ही तित नेकु रही न सरीर सँभारा॥
स्वास उस्वास उठे सब रोम चले दृग नीर अखंडित धारा।
सुन्दर कौन करै नवधाविधि छाकि परयो रस पी मतवारा॥
वास्तव में ऐसे ही पुरुष नाम के यथार्थ भक्त हैं और इन्हीं लोगों द्वारा किया हुआ नामोच्चारण जगत को पावन कर देता है, जहाँतक ऐसी प्रेमकी मस्ती न प्राप्त होवहाँ तक प्रेम मार्ग में भी शास्त्रों की मर्यादा का पूरा रक्षण करना चाहिये। भगवान नारद कहते हैं—
अन्यथा पातित्याशङ्कया ।      (नारद भक्ति सूत्र १३)
'नहीं तो पतित होनेकी आशंका है', अतएव आरम्भ में अपने-अपने वर्णाश्रमानुमोदित सन्ध्या-वन्दनपिता-माता आदि की सेवापरिवार संरक्षण आदि वैदिक और लौकिक कार्य को करते हुए श्रीभगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्मृति कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं हैयथासमय और यथास्थान उनका आचरण अवश्य करना चाहिये। रामनाम ऐसा धन नहीं है जो ऐसे-वैसे कामोंमें खर्च किया जाय। जो मनुष्य मामूली-सा काँच का टुकड़ा खरीदने जाकर बदले में बहुमूल्य हीरा दे आता है वह कभी बुद्धिमान् नहीं कहलाता। इसी प्रकार जो कार्य लौकिक या स्मृति विहित कर्मों के आचरण से सिद्ध हो सकता हैउसमें नाम का प्रयोग करना राजाधिराज से झाड़ दिलवाने के समान है सोने मिट्टी के भाव बेचने के समान हैअतएव नाम-जप में स्मृति विहित कर्मों के त्याग की कोई आवश्यकता नहीं।

कुछ लोगोंकी यह आशंका है कि आजकल नाम लेने वाले तो बहुत लोग देखे जाते हैंपरंतु उनकी दशा देखते हैं तो मालूम होता है कि उनको कोई लाभ नहीं हुआ। जिस नामके एक बार उच्चारण करने मात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश होना बतलाया जाता हैउस नाम को लाखों बार आवृत्ति करनेपर भी लोग पापों में प्रवृत्त और दुःखी देखे जाते हैंइसका क्या कारण है? इसके उत्तर में पहली बात तो यह है कि लाखों बार नाम की आवृत्ति उनके द्वारा वस्तु: होती नहींधोखे से समझ ली जाती है। दूसरा कारण यह है कि उनकी नाममें यथार्थ श्रद्धा नहीं है। नाम के इस माहात्म्य में उन्हें स्वयं ही संशय है। भगवान् ने गीता में कहा है-'संशयात्मा विनश्यति', इसलिए उन्हें पूरा लाभ नहीं होता भजन में श्रद्धा ही फल सिद्धि का मुख्य साधन है। अवश्य ही भजन करने वाले में श्रद्धा का कुछ अंश तो रहता ही है। यदि श्रद्धा का सर्वथा अभाव हो तो भजन में प्रवृत्ति ही न हो। बिना किंचित् श्रद्धा हुए किसी कार्य विशेष में प्रवृत्त होना बड़ा कठिन है। अतएव का नाम ग्रहण करते हैं उनमें श्रद्धाका कुछ अंश तो अवश्य हैपरंतु श्रद्धा के उस क्षुद्र अंश की अपेक्षा संशय की मात्रा कहीं अधिक है, इसलिए उन्हें वास्तविक फल से वंचित रहना पड़ता है। गंगा स्नान पापों का अशेष नाश होना बताया गया हैपरन्तु नित्य गंगा स्नान करने वाले लोग भी पाप में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं (यद्यपि एक बार का भी भगवन्नाम - हजारों बार के गंगा स्नान से बढ़कर है)।

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर 


मंगलवार, अप्रैल 14, 2020

श्रीभगवन्नाम 2 सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?


सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?

सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?  विशेष इसका उत्तर यह है कि नाम परायण होना जितना मुख से सहज कहा जाता है, वास्तव उतना सहज नहीं है। बड़े पुण्य बल से नाम में रुचि होती है। शास्त्र पढ़ना, उपदेश देना, बड़े-बड़े शास्त्रार्थ करना सही है; परन्तु निश्चिन्त मन से विश्वास पूर्वक भगवान् का नाम लेना बड़ा कठिन है।  जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥  कुछ लोग तो इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते, जो कुछ ध्यान देते हैं उन्हें इसका सुकरत्व (सहजपन) देख कर अश्रद्धा हो जाती है। वे समझते हैं कि जब बड़े-बड़े यज्ञ, तप, दानादि सत्कर्मों से ही पाप वासना का नाश होकर मन की वृत्तियाँ शुद्ध और सात्त्विक नहीं बनतीं, तब केवल शब्दोच्चारण या शब्द स्मरण मात्र से क्या हो सकता है? वे लोग इसे मामूली शब्द समझकर छोड़ देते हैं। कुछ लोग पण्डिताई के अभिमान से, शास्त्रों के बाह्य अवलोकन से केवल वाग्वितण्डार्थ शास्त्रार्थ पटु होकर नाम का आदर नहीं करते। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त पुरुष तो प्रायः आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता माया मरीचिका में पड़कर ऐसी बातोंको केवल गपोड़ा ही समझते हैं। कुछ सुधार का दम भरने वाले लोग (‘संसार का सुधार केवल हमारे बलपर होगा, ईश्वर वस्तु ही क्या है? उसकी आवश्यकता तो घर-बार रहित संन्यासियों को है, हमें उससे क्या मतलब? अच्छा काम करेंगे, अच्छा फल आप ही होगा’ ऐसी भावना से) नाम का तिरस्कार करते हैं।  भगवन् नाम का स्मरण प्राय: विपत्ति काल में ही हुआ करता है। जब मनुष्य के सब सहारे छूट जाते हैं, कहीं से कोई आशा नहीं रहती, किसी से कोई आश्वासन नहीं मिलता, जगत् के लोग मुख से नहीं बोलना चाहते; निर्धनता, निर्धनता, आरोग्य हीनता और अपमान से मन घबड़ा उठता है, दुःख की विष मयी ज्वाला से हृदय दग्ध होने लगता है; मित्र, स्नेही, सुहृद् और घर वालों का एकान्त अभाव हो जाता है, तब प्राण रो उठते हैं। हृदय खोजता है किसी ऐसी शीतल सुरम्य वस्तु को, जिसे पाकर उसे कुछ शीतलता, कुछ शान्ति प्राप्त हो सके। ऐसे दुःसमय में छटपटाते हुए व्याकुल प्राण स्वाभाविक ही उस अनजाने और अनदेखे हुए प्रीतम की की गोद का आश्रय ढूँढ़ते हैं, ऐसे अवसरपर बड़े-बड़े शास्त्राभिमानी, शास्त्रार्थ में तर्कयुक्तियों से ईश्वर का खण्डन करने वाले, धन और पद के मत में ईश्वर को तुच्छ समझने वाले, विषयोंकी प्रमाद मदिरा के अविरत पान से उन्मत्त होकर विचरने वाले मनुष्यों के मुँह से भी सहसा ऐसे उद्गार निकल पड़ते हैं कि ‘हे राम! हे ईश्वर! तू ही बचा! तेरे बिना अब और कोई सहारा नहीं है।’ ऐसे ही विपद्-संकुल समय में जिह्वा स्वच्छन्दतासे भगवन्नामका उच्चारण करने लगती है और ऐसे ही शोक मोह पूर्ण समय में मन और प्राण भी उसका स्मरण करने लग जाते हैं। इसी लोभ से तो माता कुंती भगवान् श्रीकृष्ण विपत्ति का वरदान माँगा था। उसने कहा था कि ‘हे कृष्ण ! तेरा स्मरण विपत्ति में ही होता है, इसलिये मुझे बार-बार विपत्ति के जाल में डालता रह!’     तात्पर्य यह कि भगवन्नामका स्मरण प्राय: दु:ख काल में होता है दु:खी, अनाश्रित और दीन जन ही प्राय: उसका नाम लिया करते हैं इसलिये कुछ लोग जो विषयोंके बाहुल्यसे मोहवश अपनेको बड़ा, बुद्धिमान्, धन-जनवान् और सुखी मानते हैं, भगवन्नाम लेकर अपनी समझसे दीन-दु:खी और अनाश्रितोंकी श्रेणीमें सम्मिलित होना नहीं चाहते।  कुछ ज्ञान अभिमानी लोग ज्ञान अभिमानमें हरि नाम को गौण या मन्द साधन समझकर त्याग देते हैं। जनता अधिकतर संसार में बड़े लोग कहलाने वालों के पीछे ही चला करती है। यही सब कारण है कि सब लोग हरि नाम के परायण नहीं होते।  एक कारण और है जिससे नामके विस्तार में बड़ी बाधा पड़ती है, वह है नाम को पाप का साधन बना लेना। ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं जो पाप करने में जरा-सा भी संकोच नहीं करते और समझ बैठते हैं कि नाम लेते ही पाप का नाश हो जायगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरिनाम पाप रूपी घास के बड़े ढेर को जलाने के लिये साक्षात् अग्नि है। बड़े-से-बड़े पाप नाम के उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। वैशम्पायन संहिता में कहा है-  सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापरतस्तथा।  मुच्यते नात्र सन्देहो विष्णोर्नामानु कीर्तनात् ॥   सर्वधर्म त्यागी और सर्व पाप निरत पुरुष भी यदि हरि-नाम-कीर्तन करता है तो वह पापों से छूट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्व के पापों का नाश करनेके लिये हरिनाम सबसे बड़ा और शीघ्र फलदायक प्रायश्चित्त है। नाम के प्रतापसे  पापी-से-पापी मनुष्य भी भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है, परंतु जो मनुष्य जान-बूझ कर हरि-नाम की दुहाई देकर मनमें दृढ़ संकल्प करके पापों में प्रवृत्त होता है उसका कहीं निस्तार नहीं होता। रोग निवृत्ति के लिये ही औषध का सेवन किया जाता है; परंतु जो लोग बीमारी बढ़ाने के लिये दवा लेते हैं उनके सिवा मरने के और क्या फल मिल सकता है? पद्म पुराण का वचन है—  नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः।  ‘जो नामका सहारा लेकर पापों में प्रवृत्त होता है वह अनेक प्रकार की यम-यातना भोग करनेपर भी शुद्ध नहीं होता।’  जे नर नामप्रताप बल, करत पाप नित आप।  बज्रलेप है जायँ ते, अमिट सुदुष्कर पाप॥  इसमें कोई सन्देह नहीं कि—  परदारतो वापि परापकृतिकारकः।  संशुद्धो मुक्तिमाप्नोति हरेर्नामानुकीर्तनात्॥  (मत्स्यपुराण)  ‘परस्त्रीगामी और पर पीडन कारी मनुष्य भी हरि-नाम-कीर्तन से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।’ इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भागवत के कथनानुसार चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, स्त्री, राजा, पिता, गौ तथा ब्राह्मण की हत्या करनेवाला, गुरु पत्नी गामी और अन्यान्य बड़े-बड़े पापों में रत रहनेवाला पुरुष भी भगवान् के नाम ग्रहण मात्र से तत्काल मुक्त हो जाता है—  पातक उप-पातक महा, जेते पातक और।  नाम लेत तत्काल सब, जरत खरत तेहि ठौर॥  पहले के कितने भी बड़े-बड़े पाप संचित क्यों न हों, सच्चे मनसे भगवन्नाम लेते ही वे सब अग्नि में ईंधन की तरह जल जाते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भगवन्नाम लेनेवालोंको पाप करनेके लिये छूट मिल जाती है। भगवान् का नाम भी लेंगे और साथ-ही-साथ मनमाने पाप भी करते रहेंगे, इस प्रकारकी जिनकी कुवासना है, उनके लिये तो फल उलटा ही होता है। नाम-महिमाकी दुहाई देकर पाप करनेवालेको नरकमें भी जगह नहीं मिलती। जो लोग जान-बूझकर धनके लोभसे चोरी करके, परस्त्री गमन करके, क्रोध या लोभ वश हिंसा करके, गुरु-शास्त्रों का अपमान करके, मद्यपान-म्लेच्छ-भोजनादि करके, स्त्री-हत्या, भ्रूण हत्या करके और झूठी गवाही देकर या झूठा मामला सजा करके ‘राम-राम’ कह देते हैं और अपना छुटकारा मान लेते हैं। उनके पापोंका नाश नहीं होता। उनके पाप तो वज्रलेप हो जाते हैं। ऐसे ही लोगों को देखकर अच्छे लोग भी नाम महिमा को अर्थवाद (स्तुतिमात्र) समझकर नामपरायण नहीं होते। परन्तु यह उनकी भूल है ।      - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार  पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर

विशेष इसका उत्तर यह है कि नाम परायण होना जितना मुख से सहज कहा जाता है, वास्तव उतना सहज नहीं है। बड़े पुण्य बल से नाम में रुचि होती है। शास्त्र पढ़ना, उपदेश देना, बड़े-बड़े शास्त्रार्थ करना सही है; परन्तु निश्चिन्त मन से विश्वास पूर्वक भगवान् का नाम लेना बड़ा कठिन है।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
कुछ लोग तो इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते, जो कुछ ध्यान देते हैं उन्हें इसका सुकरत्व (सहजपन) देख कर अश्रद्धा हो जाती है। वे समझते हैं कि जब बड़े-बड़े यज्ञ, तप, दानादि सत्कर्मों से ही पाप वासना का नाश होकर मन की वृत्तियाँ शुद्ध और सात्त्विक नहीं बनतीं, तब केवल शब्दोच्चारण या शब्द स्मरण मात्र से क्या हो सकता है? वे लोग इसे मामूली शब्द समझकर छोड़ देते हैं। कुछ लोग पण्डिताई के अभिमान से, शास्त्रों के बाह्य अवलोकन से केवल वाग्वितण्डार्थ शास्त्रार्थ पटु होकर नाम का आदर नहीं करते। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त पुरुष तो प्रायः आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता माया मरीचिका में पड़कर ऐसी बातोंको केवल गपोड़ा ही समझते हैं। कुछ सुधार का दम भरने वाले लोग (संसार का सुधार केवल हमारे बलपर होगा, ईश्वर वस्तु ही क्या है? उसकी आवश्यकता तो घर-बार रहित संन्यासियों को है, हमें उससे क्या मतलब? अच्छा काम करेंगे, अच्छा फल आप ही होगाऐसी भावना से) नाम का तिरस्कार करते हैं।
भगवन् नाम का स्मरण प्राय: विपत्ति काल में ही हुआ करता है। जब मनुष्य के सब सहारे छूट जाते हैं, कहीं से कोई आशा नहीं रहती, किसी से कोई आश्वासन नहीं मिलता, जगत् के लोग मुख से नहीं बोलना चाहते; निर्धनता, निर्धनता, आरोग्य हीनता और अपमान से मन घबड़ा उठता है, दुःख की विष मयी ज्वाला से हृदय दग्ध होने लगता है; मित्र, स्नेही, सुहृद् और घर वालों का एकान्त अभाव हो जाता है, तब प्राण रो उठते हैं। हृदय खोजता है किसी ऐसी शीतल सुरम्य वस्तु को, जिसे पाकर उसे कुछ शीतलता, कुछ शान्ति प्राप्त हो सके। ऐसे दुःसमय में छटपटाते हुए व्याकुल प्राण स्वाभाविक ही उस अनजाने और अनदेखे हुए प्रीतम की की गोद का आश्रय ढूँढ़ते हैं, ऐसे अवसरपर बड़े-बड़े शास्त्राभिमानी, शास्त्रार्थ में तर्कयुक्तियों से ईश्वर का खण्डन करने वाले, धन और पद के मत में ईश्वर को तुच्छ समझने वाले, विषयोंकी प्रमाद मदिरा के अविरत पान से उन्मत्त होकर विचरने वाले मनुष्यों के मुँह से भी सहसा ऐसे उद्गार निकल पड़ते हैं कि हे राम! हे ईश्वर! तू ही बचा! तेरे बिना अब और कोई सहारा नहीं है। ऐसे ही विपद्-संकुल समय में जिह्वा स्वच्छन्दतासे भगवन्नामका उच्चारण करने लगती है और ऐसे ही शोक मोह पूर्ण समय में मन और प्राण भी उसका स्मरण करने लग जाते हैं। इसी लोभ से तो माता कुंती भगवान् श्रीकृष्ण विपत्ति का वरदान माँगा था। उसने कहा था कि हे कृष्ण ! तेरा स्मरण विपत्ति में ही होता है, इसलिये मुझे बार-बार विपत्ति के जाल में डालता रह!

तात्पर्य यह कि भगवन्नामका स्मरण प्राय: दु:ख काल में होता है दु:खी, अनाश्रित और दीन जन ही प्राय: उसका नाम लिया करते हैं इसलिये कुछ लोग जो विषयोंके बाहुल्यसे मोहवश अपनेको बड़ा, बुद्धिमान्, धन-जनवान् और सुखी मानते हैं, भगवन्नाम लेकर अपनी समझसे दीन-दु:खी और अनाश्रितोंकी श्रेणीमें सम्मिलित होना नहीं चाहते।
कुछ ज्ञान अभिमानी लोग ज्ञान अभिमानमें हरि नाम को गौण या मन्द साधन समझकर त्याग देते हैं। जनता अधिकतर संसार में बड़े लोग कहलाने वालों के पीछे ही चला करती है। यही सब कारण है कि सब लोग हरि नाम के परायण नहीं होते।
एक कारण और है जिससे नामके विस्तार में बड़ी बाधा पड़ती है, वह है नाम को पाप का साधन बना लेना। ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं जो पाप करने में जरा-सा भी संकोच नहीं करते और समझ बैठते हैं कि नाम लेते ही पाप का नाश हो जायगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरिनाम पाप रूपी घास के बड़े ढेर को जलाने के लिये साक्षात् अग्नि है। बड़े-से-बड़े पाप नाम के उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। वैशम्पायन संहिता में कहा है-
सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापरतस्तथा।
मुच्यते नात्र सन्देहो विष्णोर्नामानु कीर्तनात् ॥
 सर्वधर्म त्यागी और सर्व पाप निरत पुरुष भी यदि हरि-नाम-कीर्तन करता है तो वह पापों से छूट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्व के पापों का नाश करनेके लिये हरिनाम सबसे बड़ा और शीघ्र फलदायक प्रायश्चित्त है। नाम के प्रतापसे  पापी-से-पापी मनुष्य भी भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है, परंतु जो मनुष्य जान-बूझ कर हरि-नाम की दुहाई देकर मनमें दृढ़ संकल्प करके पापों में प्रवृत्त होता है उसका कहीं निस्तार नहीं होता। रोग निवृत्ति के लिये ही औषध का सेवन किया जाता है; परंतु जो लोग बीमारी बढ़ाने के लिये दवा लेते हैं उनके सिवा मरने के और क्या फल मिल सकता है? पद्म पुराण का वचन है—
नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः।
‘जो नामका सहारा लेकर पापों में प्रवृत्त होता है वह अनेक प्रकार की यम-यातना भोग करनेपर भी शुद्ध नहीं होता।
जे नर नामप्रताप बल, करत पाप नित आप।
बज्रलेप है जायँ ते, अमिट सुदुष्कर पाप॥
इसमें कोई सन्देह नहीं कि—
परदारतो वापि परापकृतिकारकः।
संशुद्धो मुक्तिमाप्नोति हरेर्नामानुकीर्तनात्॥
(मत्स्यपुराण)
‘परस्त्रीगामी और पर पीडन कारी मनुष्य भी हरि-नाम-कीर्तन से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।’ इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भागवत के कथनानुसार चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, स्त्री, राजा, पिता, गौ तथा ब्राह्मण की हत्या करनेवाला, गुरु पत्नी गामी और अन्यान्य बड़े-बड़े पापों में रत रहनेवाला पुरुष भी भगवान् के नाम ग्रहण मात्र से तत्काल मुक्त हो जाता है
पातक उप-पातक महा, जेते पातक और।
नाम लेत तत्काल सब, जरत खरत तेहि ठौर॥
पहले के कितने भी बड़े-बड़े पाप संचित क्यों न हों, सच्चे मनसे भगवन्नाम लेते ही वे सब अग्नि में ईंधन की तरह जल जाते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भगवन्नाम लेनेवालोंको पाप करनेके लिये छूट मिल जाती है। भगवान् का नाम भी लेंगे और साथ-ही-साथ मनमाने पाप भी करते रहेंगे, इस प्रकारकी जिनकी कुवासना है, उनके लिये तो फल उलटा ही होता है। नाम-महिमाकी दुहाई देकर पाप करनेवालेको नरकमें भी जगह नहीं मिलती। जो लोग जान-बूझकर धनके लोभसे चोरी करके, परस्त्री गमन करके, क्रोध या लोभ वश हिंसा करके, गुरु-शास्त्रों का अपमान करके, मद्यपान-म्लेच्छ-भोजनादि करके, स्त्री-हत्या, भ्रूण हत्या करके और झूठी गवाही देकर या झूठा मामला सजा करके राम-रामकह देते हैं और अपना छुटकारा मान लेते हैं। उनके पापोंका नाश नहीं होता। उनके पाप तो वज्रलेप हो जाते हैं। ऐसे ही लोगों को देखकर अच्छे लोग भी नाम महिमा को अर्थवाद (स्तुतिमात्र) समझकर नामपरायण नहीं होते। परन्तु यह उनकी भूल है ।

  - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर 





मंगलवार, अप्रैल 07, 2020

श्रीभगवन्नाम


श्रीभगवन्नाम


Chaitanya Mahaprabhu chaitanya dev Hanuman Prasad Poddar श्रीभगवन्नाम  पापानलस्य दीप्तस्य मा कुर्वन्तु भयं नराः। गोविन्दनाममेघौधैर्नश्यते नीरबिन्दुभिः॥ (गरुडपुराण)  'हे मनुष्यो! प्रदीप्त पापाग्निको देखकर भय न करो, गोविन्दनामरूप मेघोंके के जलबिन्दु से इसका नाश हो जाएगा।"  पापों से छूटकर परमात्मा के परम पद को प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय बतलाये गये हैं। दयामय महर्षियों ने दुःख कातर जीवों के  कल्याणार्थ वेदों के आधार पर अनेक प्रकार की ऐसी विधियाँ बतलायी हैं, जिनका तथा अधिकार आचरण करने से जीव पाप मुक्त होकर सदा के लिये निरतिशयानन्द परमात्म सुख को प्राप्त कर सकता है। परंतु इस समय कलियुग है। जीवन की अवधि बहुत थोड़ी है। मनुष्य की आयु प्रतिदिन घट रही है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तापों की वृद्धि हो रही है। भोगों की प्रबल लालसा ने प्रायः सभीको विवश और उन्मत्त बना रखा है। कामना के अशेष कलंक से बुद्धि पर कालिमा छा गयी है। परिवार, कुटुम्ब, जाति या देश के नामपर होने वाली विविध भाँति की मोहमयी क्रियाओं के तीव्र धारा-प्रवाह में जगत् बह रहा है। देश और उन्नति के नामपर धर्म, अहिंसा, सत्य और मनुष्यत्व तक का विसर्जन किया जा रहा है। सारे जगत कुवासना मय कुप्रवृत्तियों का ताण्डव नृत्य हो रहा है। शास्त्रों के कथनानुसार युग प्रभाव से या हमारे दुर्भाग्य दोष से धर्म का एक पाद भी इस समय केवल नाम मात्र को रहा है। आजकल के जीव धर्म अनुमोदित सुख से सुखी होना नहीं चाहते।  सुख चाहते हैं-अटल, अखण्ड और आत्यन्तिक सुख चाहते हैं, परन्तु सुख का मूल भित्ति धर्म का सर्वनाश करनेपर तुले हुए हैं। ऐसी स्थिति में सुखके स्वप्न से भी जगत को केवल निराश ही रहना पड़ता है।  हमारी इस दुर्दशा को महापुरुषों ने और भगवद्भक्तों ने पहले से ही जान लिया था। इसी से उन्होंने दया परवश हो हमारे लिये एक ऐसा उपाय बतलाया जो इच्छा करनेपर सहज ही में काम में लाया जा सकता है। परंत जिसका वह महान् फल होता है जो पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञ, तप और दान से भी नहीं होता था। वह है श्रीहरि नाम का जप-कीर्तन और स्मरण!  वेदान्त दर्शन के निर्माता भगवान् व्यास देव रचित भागवत में ज्ञानी-श्रेष्ठ शुकदेव जी महाराज शीघ्र ही मृत्यु का आलिंगन करने के लिये तैयार बैठे हुए राजा परीक्षित पुकार कर कहते हैं — कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः। कीर्तन देव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत ॥ कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै । द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरी कीर्तनात ॥ (श्रीमद्भागवत १२ । ३। ५१-५२)  'हे राजन्! इस दोषोंसे भरे हुए कलयुग में एक महान् गुण यह है कि केवल श्रीकृष्ण के 'नाम-कीर्तन' से ही मनुष्य सारी आसक्तियों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञों से और द्वापर में परिचर्या से जो पद प्राप्त होता था वही कलियुग में केवल श्रीहरि नाम कीर्तन से प्राप्त होता है।’  इसलिये चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल के नवद्वीप नामक स्थान में प्रेमावतार श्रीश्रीचैतन्यदेव ने अवतीर्ण होकर मुक्त कण्ठ से इसी बात की घोषणा की थी कि 'भय न करो, सबसे बड़ा प्रायश्चित्त और परमात्मा प्रेम सम्पादन का परमोत्तम साधन ‘श्रीहरि नाम’ है, संसार वासना का परित्याग कर दृढ़ विश्वास के साथ इसीमें लग जाओ और अपना उद्धार कर लो।’ उन्होंने केवल ऐसा कहा ही नहीं, बल्कि स्वयं लोगों के घरों पर जा-जाकर और अपने परम भागवत साथियों को भेज-भेजकर येन-केन-प्रकारेण लोगों को हरि-नाम में लगाया। जगाई-मधाई-सरीखे प्रसिद्ध पात की हरि नाम परायण हो गये। लोगों को इस सन्मार्गमें लगानेके कार्य में उन्होंने गालियाँ सुनीं, कटुक्तियाँ सहीं, बल्कि श्री नित्यानंद और हरिदास आदि भक्तवरों ने तो भीषण प्रहार सहन करके पात्रापात्र का विचार छोड़कर जनता में हरि नाम वितरण किया। इसी प्रकार भक्त श्रेष्ठ कबीर, नानक, तुकाराम, रामदास, ज्ञानदेव, सोपानदेव, मीरा, तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, चरणदास, दादूदयाल, सुन्दरदास, सहजोबाई, दयाबाई, सखूबाई आदि भागवतों ने भी हरि नाम को ही जीवोंके के कल्याण के प्रधान उपाय समझा और अपनी दिव्य वाणीसे इसीका प्रचार किया। आधुनिक कालमें भी भारतवर्ष में जितने महात्मा संत हो गये हैं, सभीने एक स्वरसे मुक्त-कण्ठ होकर नाम महिमा का गान किया और कर रहे हैं। जिस नामका इतना प्रभाव, महत्त्व और विस्तार है उसपर मुझ जैसा रसानभिज्ञ मनुष्य क्या लिख सकता है? मेरा तो यह केवल एक तरह का दुःसाहस है, जो संतों की कृपा और प्रेमियों के प्रेम के भरोसे पर ही किया जा रहा है। मैं भगवन्नामकी महिमा क्या लिखू? मैं तो नाम का ही जिलाया जी रहा हूँ। शास्त्रों में नाम महिमा के इतने अधिक प्रसंग हैं कि उनकी गणना करना भी बड़ा कठिन कार्य है। इतना होते हुए भी जगत् के  सब लोग नाम पर विश्वास क्यों नहीं करते? नामका साधन तो कठिन नहीं प्रतीत होता। पूजा, होम, यज्ञ आदि में जितना अधिक प्रयास और सामग्रियोंका संग्रह करना पड़ता है, इसमें वह सब कुछ भी नहीं करना पड़ता।


पापानलस्य दीप्तस्य मा कुर्वन्तु भयं नराः।
गोविन्दनाममेघौधैर्नश्यते नीरबिन्दुभिः॥
(गरुडपुराण)
'हे मनुष्यो! प्रदीप्त पापाग्निको देखकर भय न करोगोविन्दनामरूप मेघोंके के जलबिन्दु से इसका नाश हो जाएगा।"

पापों से छूटकर परमात्मा के परम पद को प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय बतलाये गये हैं। दयामय महर्षियों ने दुःख कातर जीवों के  कल्याणार्थ वेदों के आधार पर अनेक प्रकार की ऐसी विधियाँ बतलायी हैंजिनका तथा अधिकार आचरण करने से जीव पाप मुक्त होकर सदा के लिये निरतिशयानन्द परमात्म सुख को प्राप्त कर सकता है। परंतु इस समय कलियुग है। जीवन की अवधि बहुत थोड़ी है। मनुष्य की आयु प्रतिदिन घट रही है। आध्यात्मिकआधिभौतिक और आधिदैविक तापों की वृद्धि हो रही है। भोगों की प्रबल लालसा ने प्रायः सभीको विवश और उन्मत्त बना रखा है। कामना के अशेष कलंक से बुद्धि पर कालिमा छा गयी है। परिवारकुटुम्बजाति या देश के नामपर होने वाली विविध भाँति की मोहमयी क्रियाओं के तीव्र धारा-प्रवाह में जगत् बह रहा है। देश और उन्नति के नामपर धर्मअहिंसासत्य और मनुष्यत्व तक का विसर्जन किया जा रहा है। सारे जगत कुवासना मय कुप्रवृत्तियों का ताण्डव नृत्य हो रहा है। शास्त्रों के कथनानुसार युग प्रभाव से या हमारे दुर्भाग्य दोष से धर्म का एक पाद भी इस समय केवल नाम मात्र को रहा है। आजकल के जीव धर्म अनुमोदित सुख से सुखी होना नहीं चाहते।
सुख चाहते हैं-अटलअखण्ड और आत्यन्तिक सुख चाहते हैंपरन्तु सुख का मूल भित्ति धर्म का सर्वनाश करनेपर तुले हुए हैं। ऐसी स्थिति में सुखके स्वप्न से भी जगत को केवल निराश ही रहना पड़ता है।
हमारी इस दुर्दशा को महापुरुषों ने और भगवद्भक्तों ने पहले से ही जान लिया था। इसी से उन्होंने दया परवश हो हमारे लिये एक ऐसा उपाय बतलाया जो इच्छा करनेपर सहज ही में काम में लाया जा सकता है। परंत जिसका वह महान् फल होता है जो पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञतप और दान से भी नहीं होता था। वह है श्रीहरि नाम का जप-कीर्तन और स्मरण!

वेदान्त दर्शन के निर्माता भगवान् व्यास देव रचित भागवत में ज्ञानी-श्रेष्ठ शुकदेव जी महाराज शीघ्र ही मृत्यु का आलिंगन करने के लिये तैयार बैठे हुए राजा परीक्षित पुकार कर कहते हैं —
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तन देव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत ॥
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरी कीर्तनात ॥
(श्रीमद्भागवत १२ । ३। ५१-५२)
'हे राजन्! इस दोषोंसे भरे हुए कलयुग में एक महान् गुण यह है कि केवल श्रीकृष्ण के 'नाम-कीर्तन' से ही मनुष्य सारी आसक्तियों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सतयुग में ध्यान सेत्रेता में यज्ञों से और द्वापर में परिचर्या से जो पद प्राप्त होता था वही कलियुग में केवल श्रीहरि नाम कीर्तन से प्राप्त होता है।’
इसलिये चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल के नवद्वीप नामक स्थान में प्रेमावतार श्रीश्रीचैतन्यदेव ने अवतीर्ण होकर मुक्त कण्ठ से इसी बात की घोषणा की थी कि 'भय न करोसबसे बड़ा प्रायश्चित्त और परमात्मा प्रेम सम्पादन का परमोत्तम साधन ‘श्रीहरि नाम’ है, संसार वासना का परित्याग कर दृढ़ विश्वास के साथ इसीमें लग जाओ और अपना उद्धार कर लो।’ उन्होंने केवल ऐसा कहा ही नहींबल्कि स्वयं लोगों के घरों पर जा-जाकर और अपने परम भागवत साथियों को भेज-भेजकर येन-केन-प्रकारेण लोगों को हरि-नाम में लगाया। जगाई-मधाई-सरीखे प्रसिद्ध पात की हरि नाम परायण हो गये। लोगों को इस सन्मार्गमें लगानेके कार्य में उन्होंने गालियाँ सुनींकटुक्तियाँ सहींबल्कि श्री नित्यानंद और हरिदास आदि भक्तवरों ने तो भीषण प्रहार सहन करके पात्रापात्र का विचार छोड़कर जनता में हरि नाम वितरण किया। इसी प्रकार भक्त श्रेष्ठ कबीरनानकतुकारामरामदासज्ञानदेवसोपानदेवमीरातुलसीदाससूरदासनन्ददासचरणदासदादूदयालसुन्दरदाससहजोबाईदयाबाईसखूबाई आदि भागवतों ने भी हरि नाम को ही जीवोंके के कल्याण के प्रधान उपाय समझा और अपनी दिव्य वाणीसे इसीका प्रचार किया। आधुनिक कालमें भी भारतवर्ष में जितने महात्मा संत हो गये हैंसभीने एक स्वरसे मुक्त-कण्ठ होकर नाम महिमा का गान किया और कर रहे हैं। जिस नामका इतना प्रभावमहत्त्व और विस्तार है उसपर मुझ जैसा रसानभिज्ञ मनुष्य क्या लिख सकता हैमेरा तो यह केवल एक तरह का दुःसाहस हैजो संतों की कृपा और प्रेमियों के प्रेम के भरोसे पर ही किया जा रहा है। मैं भगवन्नामकी महिमा क्या लिखूमैं तो नाम का ही जिलाया जी रहा हूँ। शास्त्रों में नाम महिमा के इतने अधिक प्रसंग हैं कि उनकी गणना करना भी बड़ा कठिन कार्य है। इतना होते हुए भी जगत् के  सब लोग नाम पर विश्वास क्यों नहीं करतेनामका साधन तो कठिन नहीं प्रतीत होता। पूजाहोमयज्ञ आदि में जितना अधिक प्रयास और सामग्रियोंका संग्रह करना पड़ता हैइसमें वह सब कुछ भी नहीं करना पड़ता।

  - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 


पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर