जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

सोमवार, जून 29, 2020

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

-नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

-नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप, स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो, जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम 'जप' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण, उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं–  विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है, उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप कहते हैं (परंतु यह कीर्तन नहीं है)। जिसमें जिह्वा और ओष्ठ तो हिलते हैं, परंतु शब्द अंदर ही रहता है वह उपांशु जप है और जिसमें न जीभ के हिलाने की आवश्यकता होती है और न होठ के, वह मानसिक जप कहलाता है। उच्च स्वर से उपांशु उत्तम और उपांशु से मानसिक उत्तम है। यह जप की विधि है, किसी भी देवता का कैसा ही मन्त्र क्यों न हो, यह विधि सबके लिये एक-सी है। परंतु भगवन्नाम-जप का तो कुछ विलक्षण ही फल होता है। यह नाम की अलौकिक महिमा है। दूसरे जपों में अनेक प्रकार के विधि-निषेध होते हैं, शुद्धि-अशुद्धि का बड़ा विचार करना पड़ता है, परंतु भगवन्नाम में ऐसी कोई बात नहीं। अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥   'अपवित्र हो, पवित्र हो, किसी भी अवस्थामें क्यों न हो भगवान् पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करते ही बाहर और भीतर की शुद्धि हो जाती है।' जल-मृत्तिका से केवल बाहर की ही शुद्धि होती है। परंतु भगवन्नाम अन्तर के मलों को भी अशेष रूप से धो डालता है, इसका किसी के लिये किसी अवस्था में भी कोई निषेध नहीं है। पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ। सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥ कलिसन्तरणोपनिषद् -में नाम-जप की विधि और उसके फल का बड़ा सुन्दर वर्णन है, पाठकों के लाभार्थ उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है। हरिः ॐ।  द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन कलिं सन्तरेयमिति ॥१॥ 'द्वापर के समाप्त होनेके समय श्रीनारद जी ने ब्रह्माजी के पास जाकर पूछा कि 'हे भगवन्! मैं पृथ्वी की यात्रा करनेवाला कलियुग को कैसे पार करूं'॥ १ ॥  स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्म सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं तच्छ्रुणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि। भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निधूतकलिर्भवति ॥२॥ ब्रह्माजी बोले कि तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। सम्पूर्ण श्रुतियों का जो गूढ़ रहस्य है, जिससे कलि संसार से तर जाओगे, उसे सुनो। उस आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण मात्र से ही कलि के पातकों से मनुष्य मुक्त हो सकता है॥२॥ नारदः पुनः पप्रच्छ। तन्नाम किमिति। स होवाच हिरण्यगर्भः।  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ इति षोडशकं नाम्नां कलि कल्मषनाशनम । नात: परतरोपाय सर्ववेदेषु दृष्यते॥ इति षोडशकलावृतस्य पुरुषस्य आवरणविनाशनम्। ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति॥३॥ 'श्री नारदजी ने फिर पूछा कि 'वह भगवान का नाम कौन-सा है?' ब्रह्मा ने कहा, वह नाम है-  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥* 'इन सोलह नामों के उच्चारण करनेसे कलि के सम्पूर्ण पातक नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों में इससे श्रेष्ठ और कोई उपाय नहीं देखने में आता। इन सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का आवरण (अज्ञान का परदा) नष्ट हो जाता है और मेघों के नाश होने से जैसे सूर्य-किरण समूह प्रकाशित होता है वैसे ही आवरण के नाश से ब्रह्म का प्रकाश हो जाता है'॥ ३॥ ____________________________________________ * इस मंत्र में भगवान के तीन नाम हैं हरि, राम और कृष्ण।' इनमें हरि शब्दका अर्थ है-'हरति योगिचेतांसीति हरिः' जो योगियोंके चित्तोंको हरण करता है वह हरि है। अथवा 'हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः। अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥' जैसे अनिच्छासे स्पर्श कर लेनेपर भी अग्नि जला देती है, इसी प्रकार दुष्टचित्तसे भी स्मरण किया हुआ जो हरि पापोंको हर लेता है उसे हरि कहते हैं। 'राम' शब्दका अर्थ है-'रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति रामः' जिसमें योगिगण रमण करते हैं, उसका नाम राम है, अथवा 'रमन्ते योगिनो ऽन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्म अभिधीयते॥' जिस अनन्त चिदात्मा परब्रह्ममें योगिगण रमण करते हैं वह है राम। 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है 'कर्षति योगिनां मनांसीति कृष्ण:' जो योगियोंके चित्तको आकर्षण करता है वह कृष्ण है। अथवा 'कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निवृत्तवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।' कृषि भू याने सत्तावाचक है और ण निर्वृत्तिवाचक है, इन दोनोंकी एकता होनेपर परब्रह्म कृष्ण कहलाता है।  ____________________________________________  पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति। तं होवाच नास्य विधिरिति।  सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मण: सलोकतां समीपतां सरूपतां सायुज्यतामेति ॥ ४ ॥ नारदजी ने फिर पूछा कि 'हे भगवान! इसकी क्या विधि है?' ब्रह्माजी ने कहा कि 'कोई विधि नहीं है। सर्वदा शुद्ध या अशुद्ध नामोच्चारण मात्र से ही सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है'॥४॥ यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटिर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति। स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। वृषलीगमनात् पूतो भवति। सर्वधर्मपरित्यागपापात्सद्यः शुचितामाप्नुयात्।  सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ५॥ 'ब्रह्माजी फिर कहने लगे कि 'यदि कोई पुरुष इन सोलह नामों के साढ़े तीन करोड़ जप कर ले तो वह ब्रह्म हत्या, स्वर्ण की चोरी, शूद्र स्त्री-गमन और सर्व धर्म त्याग रूपी पापों से मुक्त हो जाता है। वह तत्काल ही मुक्ति को प्राप्त होता है' ॥५॥

जपस्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि होजो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम 'जप' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारणउपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं

 विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः।

उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥

दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ हैउपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है।

जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप कहते हैं (परंतु यह कीर्तन नहीं है)। जिसमें जिह्वा और ओष्ठ तो हिलते हैंपरंतु शब्द अंदर ही रहता है वह उपांशु जप है और जिसमें न जीभ के हिलाने की आवश्यकता होती है और न होठ केवह मानसिक जप कहलाता है। उच्च स्वर से उपांशु उत्तम और उपांशु से मानसिक उत्तम है। यह जप की विधि हैकिसी भी देवता का कैसा ही मन्त्र क्यों न होयह विधि सबके लिये एक-सी है। परंतु भगवन्नाम-जप का तो कुछ विलक्षण ही फल होता है। यह नाम की अलौकिक महिमा है। दूसरे जपों में अनेक प्रकार के विधि-निषेध होते हैंशुद्धि-अशुद्धि का बड़ा विचार करना पड़ता हैपरंतु भगवन्नाम में ऐसी कोई बात नहीं।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

 

'अपवित्र होपवित्र होकिसी भी अवस्थामें क्यों न हो भगवान् पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करते ही बाहर और भीतर की शुद्धि हो जाती है।जल-मृत्तिका से केवल बाहर की ही शुद्धि होती है। परंतु भगवन्नाम अन्तर के मलों को भी अशेष रूप से धो डालता हैइसका किसी के लिये किसी अवस्था में भी कोई निषेध नहीं है।

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।

सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥

कलिसन्तरणोपनिषद् -में नाम-जप की विधि और उसके फल का बड़ा सुन्दर वर्णन हैपाठकों के लाभार्थ उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है।

हरिः ॐ।

द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन कलिं सन्तरेयमिति ॥१॥

'द्वापर के समाप्त होनेके समय श्रीनारद जी ने ब्रह्माजी के पास जाकर पूछा कि 'हे भगवन्! मैं पृथ्वी की यात्रा करनेवाला कलियुग को कैसे पार करूं'॥ १ ॥

 स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्म सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं तच्छ्रुणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि।

भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निधूतकलिर्भवति ॥२॥

ब्रह्माजी बोले कि तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। सम्पूर्ण श्रुतियों का जो गूढ़ रहस्य हैजिससे कलि संसार से तर जाओगेउसे सुनो। उस आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण मात्र से ही कलि के पातकों से मनुष्य मुक्त हो सकता है॥२॥

नारदः पुनः पप्रच्छ। तन्नाम किमिति। स होवाच हिरण्यगर्भः।

 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

इति षोडशकं नाम्नां कलि कल्मषनाशनम । नात: परतरोपाय सर्ववेदेषु दृष्यते॥

इति षोडशकलावृतस्य पुरुषस्य आवरणविनाशनम्।

ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति॥३॥

'श्री नारदजी ने फिर पूछा कि 'वह भगवान का नाम कौन-सा है?' ब्रह्मा ने कहावह नाम है-

 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥*

'इन सोलह नामों के उच्चारण करनेसे कलि के सम्पूर्ण पातक नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों में इससे श्रेष्ठ और कोई उपाय नहीं देखने में आता। इन सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का आवरण (अज्ञान का परदा) नष्ट हो जाता है और मेघों के नाश होने से जैसे सूर्य-किरण समूह प्रकाशित होता है वैसे ही आवरण के नाश से ब्रह्म का प्रकाश हो जाता है'॥ ३॥

____________________________________________

इस मंत्र में भगवान के तीन नाम हैं हरिराम और कृष्ण।इनमें हरि शब्दका अर्थ है-'हरति योगिचेतांसीति हरिः' जो योगियोंके चित्तोंको हरण करता है वह हरि है। अथवा 'हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः। अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥' जैसे अनिच्छासे स्पर्श कर लेनेपर भी अग्नि जला देती हैइसी प्रकार दुष्टचित्तसे भी स्मरण किया हुआ जो हरि पापोंको हर लेता है उसे हरि कहते हैं। 'रामशब्दका अर्थ है-'रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति रामः' जिसमें योगिगण रमण करते हैंउसका नाम राम हैअथवा 'रमन्ते योगिनो ऽन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्म अभिधीयते॥जिस अनन्त चिदात्मा परब्रह्ममें योगिगण रमण करते हैं वह है राम। 'कृष्णशब्द का अर्थ है 'कर्षति योगिनां मनांसीति कृष्ण:' जो योगियोंके चित्तको आकर्षण करता है वह कृष्ण है। अथवा 'कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निवृत्तवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।कृषि भू याने सत्तावाचक है और ण निर्वृत्तिवाचक हैइन दोनोंकी एकता होनेपर परब्रह्म कृष्ण कहलाता है।

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 पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति। तं होवाच नास्य विधिरिति।

 सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मण: सलोकतां समीपतां सरूपतां सायुज्यतामेति ॥ ४ ॥

नारदजी ने फिर पूछा कि 'हे भगवान! इसकी क्या विधि है?' ब्रह्माजी ने कहा कि 'कोई विधि नहीं है। सर्वदा शुद्ध या अशुद्ध नामोच्चारण मात्र से ही सालोक्यसामीप्यसारूप्य और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है'॥४॥

यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटिर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति। स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। वृषलीगमनात् पूतो भवति। सर्वधर्मपरित्यागपापात्सद्यः शुचितामाप्नुयात्।

 सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ५॥

'ब्रह्माजी फिर कहने लगे कि 'यदि कोई पुरुष इन सोलह नामों के साढ़े तीन करोड़ जप कर ले तो वह ब्रह्म हत्यास्वर्ण की चोरीशूद्र स्त्री-गमन और सर्व धर्म त्याग रूपी पापों से मुक्त हो जाता है। वह तत्काल ही मुक्ति को प्राप्त होता है॥५॥

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 

पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर

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