जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, दिसंबर 22, 2012

मार्त्गीते !


  ॥ श्री हरि: ॥

मातर्गीते  !

      माता श्रीभगवदगीते ! अनन्त असीम गुणातीत विश्वातीत  विशुद्ध स्वतंन्त्र सत्-चित-आनंदरूप परब्रह्म की अभिन्न ज्योति ! विश्वलीला में प्रवृत सृजन-संहार-मूर्ती, नियंन्त्रण-कला निपुण, सर्वशक्तिमान, सर्वसंचालक गुणविशिष्ठ  भगवान्  की चिरसंगिनी ! अपनी विश्वातीत  सत्ता में नित्य अनन्त  रूप से स्थित रहते हुए भी विश्वलीला  में अपनी लीला से ही नयनाभिराम त्रिभुवनकमनीय पूर्णसत्व दिव्य नरदेह धारी भगवान्  की दैवी वाणी ! विश्व  में असंख्य प्राणियों के अंतर्गत भिन्न-भिन्न भावोसे अंशरूप में प्रतिभासित, अपनी ही माया से  लीला-हेतु-स्वरुप विस्मृत निन्द्रित-से प्रतीत होनेवाले सनातन चेतन आत्मा को लीला के लिए ही प्रबुद्ध करनेवाली दिव्य-दुन्दुभी ! सम्पूर्ण विश्व  के समस्त चेतनाचेतन पदार्थों में ग्रीष्म-वर्षा, शरद-वसन्त, शीत-उषण, पर्वत-सागर, स्वर्ण-लौष्ट, शिशु-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, देव-दानव, सुन्दर-भयानक, करूण-रौद्र, हास्य-क्रन्दन, जन्म-मृत्यु और सृष्टि -प्रलय आदि समस्त भावो में, सभी के अंदर से अपने नित्य सत्य केन्द्रिभूत सौन्दर्य और अखंडपूर्ण अस्तित्व को अभिव्यक्त करनेवाले विश्वव्यापी  भगवान्  की प्रकृत मूर्ती का बारंबार  करने वाली माँ ! तुझे बार बार नमस्कार है |

       माता ! तुझ दयामयी के विश्व में विद्यमान रहते हम विश्ववासियो की यह दुर्दशा क्यों हो रही है? स्वयं भगवान्  श्रीकृष्ण की वान्ग्मयी मूर्ती ! तू भगवान्  का हृदय  है, तू मार्गभ्रष्टो की पथ-प्रदर्शिका है, तू घन-अन्धकारमें दिव्य प्रखर प्रकाश है, तू गिरे हुए को उठाती है, चलनेवाले को विशेष गतिशील बनाती है, शरणागत का हाथ-पकड़ कर उसे परमात्मा के अभय चरणकमलो में पंहुचा देती है | ऐसी अद्भूत लीलामयी शांतिदायिनी  माता के रहते हम असहाय और अनाथ की भाँति क्यों दु:खी हो रहे है?
      
      देवी ! हमारा ही अपराध है | हमने तेरे स्वरुप को यथार्थ नहीं पहचाना | तेरी स्नेह-पूरित मुख-छवि को श्रद्धासमन्वित तर्कशून्य  सरल दृष्टी से नहीं देखा | इसी से भूल भुलैया में पड़ा है, इसी से तेरे अगाध आनंदबुद्धि में मतवाले की तरह कूद कर जोर से डुबकी लगाने में प्राण हिचकिचाते है; इसी से तेरे नित्य प्रज्वल्लित प्रचंड ज्ञानानल में अविद्या-राशी को फेक-कर फूक डालने में संकोच होता है | इसी से घर-घर में तेरी प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने पर भी विधि-संगत पूजा नहीं की जा सकती, इसी से निराधार अबोध मात्परायण  शिशु की भाँन्ति तेरे चरण-प्रान्त में हम अपने को लुटा नहीं देते, इसी से तेरी प्रेम मदिरा का पान कर तेरे मोहन-मन्त्र से मुग्ध होकर दिव्यानंद की दीवाने नहीं बन रहे है | अरे ! इसी से आज अमूल्य रत्न-राशि के हाथ में रहते भी हम शांति धन से शून्य दीन-हीन राह के भिखारी बने दारुण दाह से दग्ध हो रहे है |


नारायण                                    नारायण                            नारायण
शेष अगले ब्लॉग में !!!
भगवच्चर्चा, हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर, कोड ८२०, पेज ५६१