जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

सोमवार, जनवरी 31, 2011

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी
 १५३
(राग भैरव-ताल कहरवा)
श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ और अष्टस्न्दल कमल
सुमन-समूह, मनोहर सौरभ मधु प्रवाह सुषमा-संयुक्त।
 नव-पल्लव-विनम्र सुन्दर वृक्षावलिकी शोभासे युक्त॥
 नव-प्रड्डुल्ल मजरी, ललित वल्लरियोंसे आवृत, द्युतिमान।
 परम रय, शिव सुन्दर श्रीबृन्दावनका यों करिये ध्यान॥
 उसमें सदा कर रहे चचल चचरीक मधुमय गुजार।
 बढ़ी और भी, विकसित सुमनोंका मधु पीनेको झनकार॥
 कोकिल-शुक-सारिका आदि खग नित्य कर रहे सुमधुर गान।
 मा मयूर नृत्यरत, यों श्रीबृन्दावनका करिये ध्यान॥
 यमुनाकी चचल लहरोंके जल-कणसे शीतल सुख-धाम।
 ड्डुल्ल कमल-केसर-परागसे रजित धूसर वायु ललाम॥
 प्रेममयी ब्रज-सुन्दरियोंके चचल करता चारु वसन।
 नित्य-निरन्तर करता रहता श्रीबृन्दावनका सेवन॥
 कल्पवृक्ष
उस अरण्यमें सर्वकामप्रद एक कल्पतरु शोभाधाम।
 नव पल्लव प्रवाल-सम अरुणिम, पत्र नीलमणि-सदृश ललाम॥
 कलिका मुक्ता, प्रभा, पुज-सी पद्मराग-से फल सुमहान।
 सब ऋतु‌एँ सेवा करतीं नित परम धन्य अपनेको मान॥
 सुधा-बिन्दु-वर्षी उस पादपके नीचे वेदी सुन्दर।
 स्वर्णमयी, उद्भासित जैसे दिनकर उदित मेरु-गिरिपर॥
 मणि-निर्मित जगमग अति प्राङङ्गण, पुष्प-परागोंसे उज्ज्वल।
 छहों ऊर्मियोंसे* विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल॥
 वेदीके मणिमय आँगनपर योगपीठ है एक महान।
 अष्टस्न्दलोंके अरुण कमलका उसपर करिये सुन्दर ध्यान॥

भगवान्‌ नन्दनन्दन
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
 दीप्तिमान निज दिव्य प्रभासे सविता-सम जो करुणा-कंद॥
 श्रीविग्रहका वर्ण नील-श्यामल, उज्ज्वल आभासे युक्त।
 कमल-नीलमणि-मेघ-सदृश कोमल, चिक्कण, रससे संयुक्त॥
 काले घुँघराले अति चिकने घने सुशोभित केश-कलाप।
 मुकुट मयूर-पिच्छका मनहर मस्तकपर हरता हृााप॥
 मधुकर-सेवित कल्पद्रुमके कुसुमोंका विचित्र श्‌ृङङ्गार।
 नव-कमलोंके कर्णड्डूल, जिनपर भौंरे करते गुजार॥
 चमक रहा सुविशाल भालपर गोरोचन का तिलक ललाम।
 चिा-विाहर धनुषाकार भ्रुकुटियाँ अतिशय शोभाधाम॥
 मुख-मण्डलकी कान्ति शरद-शशि-सदृश पूर्ण, अकलङङ्क, अतोल।
 नेत्र कमल-दल-से विशाल, निर्मल दर्पण-से गोल कपोल॥
 दीप्त रत्नमय मकराकृति कुण्डलकी किरणोंसे सविशेष।
 कीर-चचु-सम सुन्दर नासा हरती जन-मनका सब क?ेश॥
 अरुण अधर बन्धूक सुमन-से चन्द्र-कुन्द-जैसी मुसकान।
 समुख दिशा प्रकाशित करती दिव्य छटासे अति द्युतिमान॥
 बनके कोमल पल्लव-पुष्पोंसे निर्मित निर्मल नव-हार।
 मनहर शङ्ख-सदृश ग्रीवाकी शोभा बढ़ा रहे सुख-सार॥
कंधोंपर घुटनोंतक लटका पारिजात-पुष्पोंका हार।
 मा मधुप मँडराते उसपर करते मधुर-मधुर गुजार॥
 हार-रूप नक्षत्रोंसे शोभित वक्षःस्थल पीन विशाल।
 कौस्तुभमणिरूपी भास्कर है भासमान उसमें सब काल॥
 शुचि श्रीवत्स-चिह्न वक्षःस्थलपर, शुभ उन्नत सिंह-स्कन्ध।
 सुन्दर श्रीविग्रहसे निस्सृत विस्तृत विमल मनोहर गन्ध॥
 भुजा गोल, घुटनोंतक लंबी, नाभि गभीर चारु-बिस्तार।
 उदर उदार, त्रिवलि, रोमावलि मधुप-पंक्ति-सम शोभा-सार॥
 दिव्य रत्न-मणि-निर्मित भूषण श्रीविग्रहपर रहे विराज।
 अङङ्गद, हार, अँगूठी, कङङ्कण, कटि करधनी मनोरम साज॥
 दिव्य अङङ्गरागोंसे रजित अङङ्ग सकल माधुर्य-निवास।
 विद्युद्वर्ण पीत अबरसे आवृत रय नितबावास॥
 जङ्घा-घुटने उभय मनोहर, पिंडली गोलाकार सुठार।
 परम कान्तिमय उन्नत श्रीपादाग्रभाग सुषमा-‌आगार॥
 नख-ज्योति निर्मल दर्पण-सम, अरुण-वर्ण माणि?य-समान।
 अङङ्गुलि-दलसे परम सुशोभित उभय चरण-पङङ्कज सुख-खान॥
 अङङ्कुश-चक्र-शङ्ख-यव-पङङ्कज-वज्र-ध्वजा चिह्नोंसे युक्त।
 अरुण हथेली, तलवे सुन्दर करते जनको बन्धन-मुक्त॥
 शुचि लावण्य-सार-समुदाय-विनिर्मित सकल मधुर श्री‌अङङ्ग।
 अनुपम रूप-राशि करती नित अगणित मारोंका मद-भङङ्ग॥
 मुख-सरोजसे मुरली मधुर बजाते गाते नन्द-किशोर।
 दिव्य रागकी सृष्टिस्न् रहे कर आनन्दार्णव मुनि-मन-चोर॥
 मुरली-ध्वनिसे आकर्षित हो वनका जीव-जन्तु प्रत्येक।
 निरख रहा श्रीमुखको अपलक बार-बार भुवि मस्तक टेक॥
 गोप-बालक
हरि-सम-वय-विलास-गुण-भूषण-शील-स्वभाव-वेषधर गोप।
 चचल, बाहु नचानेमें अति निपुण, बढ़ाते अनुपम ओप॥
 घेरे खड़े श्यामको करते मन्द-मध्य-न्नँचे स्वर गान।

छेड़ रहे वंशी-वीणाकी उसके साथ मधुरतम तान॥
 नन्हे-नन्हे शिशु विमुग्ध सब हरिका सुन्दर रूप निहार।
 कटि-रशनाकी क्षुद्र घंटियाँ हैं कर रहीं मधुर झनकार॥
 बघनखके आभूषण पहने घूम रहे सब चारों ओर।
 मीठी अस्ड्डुट वाणीसे हैं भोले शिशु लेते चित-चोर॥

गोपीजन
गोपीजनसे घिरे श्यामका अब कीजिये मधुरतम ध्यान।
 अति मनहर ब्रज-सुन्दरियोंकी ोणीसे सेवित भगवान॥
 स्थूल नितबोंके बोझेसे जो हो रहीं थकित, अति श्रान्त।
 मन्थर गतिसे चलतीं वे गुरु वक्षःस्थलसे भाराक्रान्त॥
 कबरी गुँथी कर रही उनके रय नितब-देशका स्पर्श।
 रोम-राजि त्रिवलीयुत वक्षःस्थलसे सटी पा रही हर्ष॥
 देह-लता रोमाच-‌अलंकृत पाकर वेणु-सुधा रसराज।
 मानो प्रेमरूप पादप हो गया पल्लवित, मुकुलित आज॥
 परम मनोहर मोहनकी अति मधुर मोहिनी मृदु मुसकान।
 चन्द्रालोक-सदृश करती अनुरागाबुधिका वर्धित मान॥
 मानो उसकी तरल तरंगोंके कणरूपी शोभा-सार।
 गोप-रमणियोंके अङङ्गोंमें प्रकट चारु श्रमबिन्दु अपार॥
 परम मनोहर भ्रूचापोंसे वनमाली वर्षा करते।
 तीक्ष्ण प्रेम-बाणोंकी, उनसे तन-मनकी सुध-बुध हरते॥
 विदलित मर्मस्थल समस्त हैं, हु‌ए जर्जरित सारे अङङ्ग।
 मानो प्रेम-वेदना ड्डैली अति दुस्सह, बदले सब रंग॥
 परम मनोहर वेष, रूप-सुषमामृतका करनेको पान।
 लोलुप रहतीं व्रज-बाला‌एँ नित्य-निरन्तर तज भय-मान॥
 प्रणयरूप पय-राशि-प्रवाहिणि मानो वे सरिता अनुपम।
 अलस-विलोल-विलोचन उनके उसमें शोभित सरसिज-सम॥

कबरी शिथिल हु‌ई सबकी, तब गिरे प्रड्डुल्ल कुसुम-सभार।
 मधु-लोलुप मधुकर मँडऱाते, सेवा करते कर गुजार॥
 व्रज-बाला‌ओंकी मृदु वाणी स्खलित हो रही है उस काल।
 छाया मद प्रेमामृत-मधुका, रही न कुछ भी सार-सँभार॥
 चीर-वसन नीवीसे विश्लथ, उसका प्रान्तभाग सुन्दर।
 करता अर्चि-नितब प्रकाशित, लोल काचि उल्लसित अमर॥
 खसे जा रहे ललित पदाबुजसे मणिमय नूपुर भूपर।
 टूट-टूटकर बिखर रहे हैं, ड्डैल रहे सब इधर-‌उधर॥
 निकल रहा मुखसे सी-सी स्वर, किपत अधर सुपल्लव-लाल।
 श्रवणोंमें मणि-कुण्डल शोभित, छायी सुधा-रश्मि सब काल॥
 अलसाये लोचन दोनों अति शोभित नील-सरोरुह-सम।
 सुन्दर पक्ष्म-विभूषित मुकुलाकार दीर्घ अतिशय अनुपम॥
 श्वास-समीरण शुचि सुगन्धसे अधर-सुपल्लव हैं अलान।
 अरुण-वर्ण धन, मोहनके वे नित नूतन आनन्द-निधान॥
 प्रियतम-प्रिय पूजोपहारसे उनके कर-पङङ्कज कोमल।
 सदा सुशोभित रहते, ऐसा अतुलित वह गोपी-मण्डल॥
 अपने असित विशाल विलोल लोचनोंको ले व्रज-बाला।
 उन्हें बनाकर नील नीरजोंकी मानो सुन्दर माला॥
 पूज रहीं हरिके सब अङङ्गोंको, यों सेवा करतीं नित्य।
 छूट गये उनसे जगके सब विषय दुःखमय और अनित्य॥
 नानाविध विलासके आश्रय हैं प्रेमास्पद श्रीभगवान।
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियोंके लोचन हैं मधुप-समान॥
 प्रणय-सुधारस-पूर्ण मनोमोहक मधुकर वे चारों ओर।
 उड़-‌उडक़र मनहर मुख-पङङ्कज-विगलित रस मधु-पान-विभोर॥
 आस्वादन करते, पीते रहते, पाते आनन्द अपार।
 मानो नेत्ररूप मधुपोंकी माला हरिने की स्वीकार॥
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियाँ, परम प्रेम-‌आश्रय भगवान।
 निर्मल कामरहित मनसे यह करिये अतिशय पावन ध्यान॥

गाय, बछड़े और साँड़
अब उन भाग्यवती गायोंका, गोकुलका करिये शुभ ध्यान।
 जिनकी अपने कर-कमलोंसे सेवा करते हैं भगवान॥
 थकीं थनोंके विपुल भारसे मन्थरगतिसे जो चलतीं।
 बचे तृणाङङ्कुर दाँतोंमें न चबातीं, नहीं जरा हिलतीं॥
 पूँछोंको लटकाये देख रहीं श्रीहरिके मुखकी ओर।
 अपलक नेत्रोंसे घेरे श्रीहरिको वे आनन्द-विभोर॥
 छोटे-छोटे बछड़े भी हैं घेरे श्रीहरिको सानन्द।
 मुरलीसे अति मीठे स्वरमें गान कर रहे हरि स्वच्छन्द॥
 खड़े किये कानोंसे सुनते हैं वे परम मधुर वह गान।
 भरा दूध मुँहमें, पर उसको वे हैं नहीं रहे कर पान॥
 ड्डेनयुक्त वह दूध बह रहा उनके मुखसे अपने-‌आप।
 बड़े मनोहर दीख रहे हैं, हरते हैं मनका संताप॥
 अतिशय चिकनी देह सुगन्धित-युत वह गो वत्सोंका दल।
 सुखदायक हो रहा सुशोभित जिनका भारी गलकबल॥
 माधवके सब ओर उठाये पूँछ, नये श्‌ृङङ्गोंसे युक्त।
 करते हैं प्रहार आपसमें कोमल मस्तकपर भययुक्त॥
 लडऩेको वे भूमि खोदते नरम खुरोंसे बारंबार।
 विविध भाँतिके खेल कर रहे पुनः-पुनः करते हुंकार॥
 जिनकी अति दारुण दहाड़से क्षुध दिशा‌एँ हो जातीं।
 बृहत्‌्‌ ककुदसे भारी जिनकी चलते देह रगड़ खातीं॥
 दोनों कान उठाये सुनते मुरलीका रव साँड़ विशाल।
 महाभाग वे पशु, जो हरिका सङङ्ग पा रहे हैं सब काल॥

देवता, मुनि, योगी
गोपी-गोप और पशु‌ओंके घेरेसे बाहर मतिमान।
 सुर-गण विधि-हर-सुरपति आदिक करते ललित छन्द यश-गान॥

वेदायास-परायण मुनिगण सुदृढ़ धर्मका कर अभिलाष।
 घेरेसे बाहर दक्षिणमें स्थित, विषयोंसे सदा उदास॥
 पृष्ठस्न्भागकी ओर खड़े सनकादि महामुनि योगीराज।
 अन्य मुमुक्षु समाधि-परायण जिनके, साधनके सब साज॥
 देवर्षि नारद
तदनन्तर आकाशस्थित देवर्षिवर्यका करिये ध्यान।
 ब्रह्मापुत्र नारद जिनका वपु गौर सुधाकर-शङ्ख-समान॥
 सकल आगमोंके जाता, विद्युत्‌्‌-सम पीत जटाधारी।
 हरि-चरणाबुजमें निर्मल रति जिनकी हैं अतिशय प्यारी॥
 सर्वसङङ्गका परित्याग कर जो हरिका करते गुण-गान।
 नित्य-निरन्तर श्रुतियुत नाना स्वरसे स्तुति करते मतिमान॥
 विविध ग्रामके ललित मूर्छनागणको जो अभिव्यजित कर।
 नित्य प्रसन्न कर रहे हरिको प्रेम-भक्ति-मणिके आकर॥
 ध्यानका फल
इस प्रकार जो काम-राग-वर्जित निर्मल-मति परम सुजान।
 नन्द-तनय श्रीकृष्णचन्द्रका प्रेमसहित करते हैं ध्यान॥
 उनपर सदा तुष्टस्न् रहते हरि, बरसाते हैं कृपा अपार।
 देते प्रेमदान अति दुर्लभ, जो समस्त सारोंका सार॥

 १५४
(राग बिलावल-तीन ताल)
कर नवनीत लियें नटनागर।
मधुर सरल सिसुभाव सखनि सँग निरतत निरवधि सर्वसुखाकर॥
 कटि कछनी मुरली मधु खोंसे, कुंचित केस मयूर-पिच्छधर।
 कठुला कण्ठ, बघनखा सोहत, बाजूबंद, हार-दुति मनहर॥
 मधुर नयन मोहत मुनि-जन-मन, कुंडल रत्न स्रवन अति सुंदर।
 तिलक भाल सुषमा अनुपम छबि जन-चकोर-दृग-हरन सुधाकर॥

 १५५
(राग काफी-ताल कहरवा)
कृष्ण-‌अङङ्ग-लावण्य मधुरसे भी सुमधुरतम।
 उसमें श्रीमुख-चन्द्र परम सुषमामय अनुपम॥
 मधुरापेक्षा मधुर, मधुरतम उससे भी अति।
 श्रीमुखकी मधु-सुधामयी, ज्योत्स्नामयि सुस्मिति॥
 इस ज्योत्स्ना-स्मिति मधुरका एक-‌एक कण अति मधुर।
 होकर त्रिभुवन व्याप्त जो बना रहा सबको मधुर॥
  १५६
(राग पीलू-तीन ताल)
सजल-जलद-नीलाभ तन, बदन-सरोज रसाल।
 पीत-बसन, सिखि-पिच्छ सिर मुकुट, तिलक बर भाल॥
 पग नूपुर, कुंडल श्रवन, कंठ हार-वनमाल।
 हाथ लि‌एँ मुरली मधुर, ललित त्रिभंगी लाल॥
 मुनि-मन-हर, जन-मन-सुखद, अपलक नैन बिशाल।
 ठाढ़े भोले भावमय मधुर बाल-गोपाल॥

 १५७
(राग काफी-ताल कहरवा)
मधुर मनोहर सुंदर अति सिखि-पिच्छ सुसोहत।
 मलयानिल सौं नाचि-नाचि सब के मन मोहत॥
 कुंतल चूर्न कपोल नाग-सिसु-सम सोभामय।
 कुंचित केस-कलाप मनहुँ मधुपावलि रसमय॥
 नील कमल बिकसित, मरकत मनि-सम मुख राजत।
 चंदन-चर्चित चिबुक बिंदु मृगमद सुबिराजत॥
 गजमुक्ता सुचि सुघर करन कुंडल-द्युति झलमल।
 नीरद-स्याम कपोल कलित आभा अति उज्ज्वल॥

करतल अरुनिम उभय मनहुँ स्थल-पद्म प्रस्ड्डुटित।
 तेहि बिच बेनु मृनाल मनहुँ राजत सुचि सुघटित॥
 नील बदन, उज्ज्वल मुक्ता-मनि, कौस्तुभ अरुनिम।
 कालिन्दी-सुरसरी-सरस्वति कौ सुभ संगम॥
 बैजयंति बनमाल जानु पर्जंत डुलति अति।
 चलत, करत जनु नृत्य मनोहर मधुर ललित गति॥
 कटि पट-पीत, च्नित किंकिनि, पग नूपुर की धुनि।
 करि मधु-सुधा-सुपरस मृतक मुनि-मन जीवित पुनि॥
 बिंब-बिडंबित अधर मधुर मुरली रस बरसत।
 मुनि-रिषि-‌अज-भव-‌इंद्र सकल जेहि लगि नित तरसत॥
 बिस्व अखिल अगनित मैं नहिं को‌उ मनुज-दनुज-सुर।
 जो न मोह एहि रूप अलौकिक निरखि पलक भर॥

 १५८
(दोहा)
नव-नीरद-नीलाभ तन, त्रिभुवन-मोहन रूप।
 मधुप-मद-हरन कृस्न घन कुंचित केस अनूप॥
 सिर चूड़ा, मनिमय मुकुट, मोरपिच्छ रमनीय।
 चंचल दृग-जुग चिाहर, भृकुटि कुटिल कमनीय॥
 मुरलि मधुर राजत अधर, कटि पट पीत ललाम।
 गुंजा-मुक्ता-बन-कुसुम माला गल अभिराम॥
 सच्चिन्मय सुषमा परम, भूषन-भूषन अंग।
 अनुपम मुख-छबि लखि लजत सत-सत कोटि अनंग॥
 राधा-धन, राधा-रमन, राधा-प्रानाधार।
 मुनि-मन-हर मोहन-चरन बंदौं बारंबार॥

 १५९
(राग काफी-ताल कहरवा)
सजल-जलद-नीलाभ श्याम तन परम मनोहर।
 गोरोचन-चर्चित तमाल-पल्लव-सम सुन्दर॥
 गोल भुजा आजानु प्रलिबत मद मनोज हर।
 कङङ्कण-केयूरादि विभूषित परम रय वर॥
 गुजावलि-परिवेष्टिस्न्त, सुमन विचित्र सुशोभित।
 चूड़ामण्डित रत्न-मुकुट शिखिपिच्छ नवल युत॥
 घुँघराली अलकावलि, नील कपोल सुचुिबत।
 कुण्डल-द्युति कमनीय गण्ड-‌आभापर उजलित॥
 बिबाफल-बन्धूक पुष्पके सुषमाहारी।
 अरुण अधरपर मधुर मुरलिका मजुल धारी॥
 हास्य मधुरतम त्रिभुवन-मोहन अति मुदकारी।
 नासा-‌अग्र सुराजित मुक्ता मणि-सहकारी॥
 बिंधे नेत्र गोपी-कटाक्ष-शरसे शोभित नित।
 जिनके भू-चालनसे गोपीगण उन्मादित॥
 सहज त्याग सब भोग निरन्तर सुख-सेवा-रत।
 श्यामा-श्याम-सुखैकवासना अति मन अतुलित॥
 रेखा-त्रय-राजित सुकण्ठमें खेल रही कल।
 स्वर-संयुत मूर्च्छना, राग-रागिनियाँ निर्मल॥
 कौस्तुभमणि देदीप्यमान विस्तृत वक्षःस्थल।
 दिव्य रत्न-मणि-हार, सुमन-माला शोभित गल॥
 कटि किङिङ्कणि मृदु मधुर शद घण्टिका-विकासित।
 अरुण चरण-नख दिव्य ज्योतिसे ब्रह्मा प्रकाशित॥
 मणिमय नूपुर चरण करत जग मोद-सुहासित।
 पीतवसन असमोर्ध्व ज्योतिमय देह सुलासित॥
अनुपम अङङ्ग-सुगन्ध दिव्य सुर-मुनि-मन-हारी।
 खड़े सुललित त्रिभङङ्ग कल्पतरु-मूल-विहारी॥
 साथ दिव्य-गुण-रूपमयी वृषभानु-कुमारी।
 सदा अभिन्न, परम आराध्या राधा प्यारी॥
 सखा-सुरभि-गोवत्स बन्धु-प्रिय माधव मनहर।
 नन्द-यशोदा-नन्दन विश्व-विमोहन नटवर॥
 हम सर्वथा अयोग्य, अनधिकारी, निकृष्टस्न्तर।
 सहज दयावश करो हमें स्वीकार, मुरलिधर !॥
 दो उन प्रेमी भक्तएंके भक्तएंकी पद-रज।
 जो सेवनरत नित्य प्रिया-प्रियतम-पद-पङङ्कज॥
 परम सुदुर्लभ, जिसे चाहते हैं उद्धव-‌अज।
 नहीं चाहते भुक्ति-मुक्ति, उस पद-रजको तज॥
  १६०
(राग आसावरी-तीन ताल)
जयति जय गोप्रेमी गोपाल।
ठाढ़े मधुर मनोहर कमल-सरोबर-तट नँदलाल॥
 नील स्याम उज्ज्वल आभा, कर मुरली गल बनमाल।
 रत्न-मयूर-मुकुट, कुंचित कच कृस्न, तिलक बर भाल॥
 पीत बसन, भूषित अँग भूषन, मोहन नैन बिसाल।
 अरुन कमल कर बाम सुसोभित, नूपुर चरन रसाल॥
 परस पा‌इ सुचि स्याम अंग सुखमग्र सुरभि ततकाल।
 रही अचल पाहन-मूरति-सी भूलि जगत-जंजाल॥

 १६१
(राग देश-ताल मूल)
कर मुरली, कटि काछनी, कलित कमल-मुख-नैन।
 कृष्ण कलेवर, नीलमनि सरस सकल सुख-‌ऐन॥

बिहरत बृंदा-बिपिन बर करषत मन बरजोर।
 नित नूतन लीला ललित करत भुवन-मन-चोर॥
 बरसावत रस-‌अमिय मधु, जन-जन करत निहाल।
 ठाढ़े गो-तन तनु दि‌एँ गो-प्रेमी गोपाल॥

 १६२
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
कृष्ण-नील-द्युति तन सुन्दर अति, पीतवसन, उर मुक्ता माल।
 भव्य विभूषण भूषित, भाल तिलक शुचि, ललित त्रिभङङ्गी लाल॥
 पदतल-करतल अरुण मनोहर, कबु-कण्ठ, सिर मुकुट विशाल।
 जय जय भक्त-भीर-भजन, जन-मन-रजन, जय वेणु-गुपाल॥

 १६३
(राग देश-तीन ताल)
कालिंदी-तट ठाढ़े नटवर।
कदँब-मूल मृदु बेनु बजावत, गावत मिलि सखियन सँग सुंदर॥
 सिर सिखिपिच्छ मुकुटमनि-मंडित, अलकावलि अति लजवत मधुकर।
 पीत बसन, बन-कुसुम-माल गल, कटि किंकिनि, पग बाजत नूपुर॥
 ढोलक-झाँझ-सितार-सरंगी मधुर बजावत सखीं लि‌ऐं कर।
 जल-खग बन-पंछी सब मोहित, गौ सब मुग्ध सुनत मृदु-मधु-सुर॥

 १६४
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
जय जय ब्रजराज-तनय ब्रजबन-बिहारी।

 सोहत बर लकुटी कर, मोर-मुकुट मस्तकपर,  
    मुरली धर मधुर अधर, जमुना-तट-चारी।
 नील बदन पीत बसन, संग ग्वाल-गोपीजन,  
    मुनि-मन-हर मंद-हसन, गुंज-माल-धारी॥

भ्रमर करत मधुर गुंज, सुरभित तन कंज-पुंज,   
    बिहरत निकुंज-कुंज राधा-मन-हारी।
 निरतत नटबर-सुबेस, सोहैं सिर कुँचित केस,   
    हरत मदन-मद असेस गोपी-सुख-कारी॥
  १६५
(राग काफी-ताल कहरवा)
सजल-जलद-नीलाभ श्याम वपु मुनि-मन-मोहन।
 अमित शरद-शशि-निन्दक मुख मनहर अति सोहन॥
 कुचित कुन्तल कृष्ण अपरिमित मधुकर-मद-हर।
 रत्नमालयुत कमल-कुसुम शिखि-पिच्छ मुकुट बर॥
 चिा-विा-हर नयन, रत्न-कुण्डल श्रुति राजत।
 मुक्तामणि वनमाल विविध कल कण्ठ विराजत॥
 रत्नमयी मुँदरी, कङङ्कण, भुजबंद भव्य अति।
 वंशी धर कर-कज भर रहे सुर सुललित गति॥
 कटि पट पीत परम सुन्दर, पग नूपुर-धारी।
 मृदु मुसकान विचित्र नित्य ब्रज-विपिन-बिहारी॥

 १६६
(राग जंगला-ताल कहरवा)
नव किशोर नटवर मुरलीधर मधुर मयूर-मुकुटधर लाल।
 कटि पट पीत, करधनी कूजित, कुटिल भ्रुकुटि, मधु नयन विशाल॥
 अतुलनीय सौन्दर्य-निकेतन, द्विभुज, कण्ठ मणि-मुक्ता-माल।
 गोल कपोल अरुण नीलाभायुत, गोरोचन-तिलक सुभाल॥
 भूषण-भूषण अङङ्ग ललित अति, तन त्रिभङङ्ग सुषमा-‌आगार।
 मुख शरदिन्दु-सुभग, सुषमा-निधि, राधा-तन-मन-सुख-‌आधार॥
 देख रूप निज हु‌ए चमत्कृत मोहन मन्मथ-मन्मथ श्याम।
 जाग उठा तुरंत मनमें शुचि निज सौन्दर्यास्वादन-काम॥

 १६७
(दोहा)
छैल-छबीले लाडिले बर कालिंदी कूल।
 अरुनोत्पल आसन सुखद सोभित पीत दुकूल॥
 अधरनि धर मुरली मधुर मोहन मधुमय तान।
 लगे अलापन, मगन ह्वै, सहज भुलावन भान॥
 गैया नित की सहचरी ठाढ़ी दाहिनि ओर।
 नयन मूँदि रहे रसभरी मुरली-तान-विभोर॥
  १६८
(राग ईमन-तीन ताल)
कोटि-कोटि शत मदन-रति सहज विनिन्दक रूप।
 श्रीराधा-माधव अतुल शुचि सौन्दर्य अनूप॥
 मुनि-मन-मोहन, विश्वजन-मोहन मधुर अपार।
 अनिर्वाच्य, मोहन-स्वमन, चिन्मय सुख रस-सार॥
 शक्ति, भूति, लावण्य शुचि, रस, माधुर्य अनन्त।
 चिदानन्द सौन्दर्य-रस-सुधा-सिन्धु श्रीमन्त॥

 १६९
(राग शिवरजनी-ताल कहरवा)
शारदीय-पूर्णिमा-सुनिर्मल-स्निग्ध-सुधावर्षी द्युतिमान।
 ज्योत्स्ना-स्मित-समूह-विकसित शुचि शीतल अगणित चन्द्र महान॥
 जिनकी विश्व-मोहिनी अङङ्ग-द्युतिसे सब हो जाते लान।
 परमोज्ज्वल नीलाभ-श्याम वे अनुपम विमल-दीप्ति भगवान॥
 परमहंस-‌ऋषि-मुनि-मन-मोहन, गुरु-जन-मोहन मोहन रूप।
 श्रुति-सुराङङ्गना, स्वयं ब्रह्माविद्या मन-मोहन, परम अनूप॥
 विश्वनारि-मन, स्व-मन, शत्रु-मन मोहन, सर्वरूप-‌आधार।
 सौन्दर्यामृत-माधुर्यामृत-सागर लहराता सुख-सार॥

 १७०
(राग भैरवी-ताल कहरवा)
मोरपिच्छ सिर, कर्णिकार श्रुति, स्वर्णवर्ण तन पीताबर।
 पुष्पमाल गल, वैजयन्ति कल, नटवर वपु अतिशय सुन्दर॥
 मुरलि-छिद्र शुचि अधर-सुधा-रस भरत, करत लीला मनहर।
 प्रविशत वृन्दा-विपिन ग्वाल सब गावत ललित कीर्ति सुस्वर॥
  १७१
(राग माँड़-ताल कहरवा)
नित नूतन गुन-रूप-रस दिय बढ़त बिनु पार।
 राधा-जीवन मुरलिधर सुंदर स्याम उदार॥
  १७२
(राग तोड़ी-तीन ताल)
नित्य, अनन्त, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय, प्रेम-विजान-निधान।
 विश्वातीत-विश्वमय, निर्गुण-सगुण, रस-सुधा-सिन्धु महान॥
 अकल-सकल, सुर-मुनि-‌ऋषि-सेवित-चरण-सरोरुह श्रीभगवान।
 परम शरण्य, परम गुरु, करते जन प्रपन्नका अभय-विधान॥

 १७३
(दोहा)
उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ-विमान आकाश।
 मानो हैं हय चल रहे, हरि-पग-तल-रथ-रास॥
 दिव्य रत्नमणि-रचित अति द्युतिमय विमल विमान।
 चिदानन्दघन सत्‌्‌ सभी वस्तु-साज-सामान॥
 अतुल मधुर सुन्दर परम रहे विराजित श्याम।
 नव-नीरद-नीलाभ-वपु, मुनि-मन-हरण ललाम॥
 पीत वसन, कटि किंकिणी, तन भूषण द्युति-धाम।
 कण्ठ रत्नमणि, सौरभित सुमन-हार अभिराम॥

मोर-पिच्छ-मणिमय मुकुट, घन घुँघराले केश।
 कर दर्पण-मुद्रा वरद विभु-विजयी वर वेश॥
 शोभित कलित कपोल अति अधर मधुर मुसुकान।
 पाते प्रेम-समाधि, जो करते नित यह ध्यान॥

 १७४
(राग माँड़-ताल कहरवा)
रूप-सील-सौंदर्य-निधि महाभाव रसखान।
 स्याम-सुखी स्यामा अतुल राधा परम सुजान॥

 १७५
(राग भैरव-ताल कहरवा)
मधुर-सुमधुर, मधुर उससे भी, परम मधुर, उससे भी और-
 मधुर-मधुरतम, नित्य-निरन्तर वर्द्धनशील मधुर सब ठौर॥
 अङङ्ग-‌अङङ्ग माधुर्य-सुपूरित, मधुर अमृतमय पारावार।
 अखिल विश्व-सौन्दर्य, मधुर माधुर्य सकलका मूलाधार॥
 कनक-कमल-कमनीय कलेवर, सहज सौरभित मधुर अपार।
 नेत्रद्वय, मुख, नाभि, पदद्वय, हस्तद्वय द्युति-सुषमागार॥
 विविध वर्ण, सौरभ विचित्र युत अष्टस्न् कमल ये अति अभिराम।
 यों विकसित नव-कमल मिलितसे, अनुपम शोभा हु‌ई ललाम॥

 १७६
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
जय जय हरि-हृदया वृषभानु-सुकुमारी॥  
 बिजुरि बरन गौर बदन, सोहत तन नील बसन,  
     बिंब अधर मधुर हँसन, माधव-मन-हारी।
 सुषमामय अंग-‌अंग, लि‌एँ मधुर सखिन संग,  
     बिहरत भरि मन उमंग प्रियतम-सुखकारी॥

लोक-बेद-लाज त्यागि, त्यागि स्वजन महाभाग,  
     हरि-हित गावत बिहाग, डोलत मतवारी।
 प्रियतम-सुख-जल-सुमीन, निज-सुख-बांछा बिहीन,  
     गुननिधि, पै बनी दीन, राधिका दुलारी॥
  १७७
(राग सूहा-तीन ताल)
हरत मन-माधव कंचन-गोरी॥
राधा अनियारे-रतनारे लोचन सौं, कछु भौंह मरोरी।
 पग-पैंजनि, दो‌उ चरन महावर, करधनि-धुनि मनु मधु-रस घोरी॥
 दरपन कर, सोहत मुकता-मनि-हार हृदै, मृदु हँसनि ठगोरी।
 नैननि बर अंजन मन-रंजन, चिा-बिा-हर नित बरजोरी॥
 नील बसन, सरदिंदु बदन-दुति, बेंदी सेंदुर-केसर-रोरी।
 सहज मथत मन्मथ-मन्मथ मन दिय छटा वृषभानु-किसोरी॥

 १७८
(राग बागेश्री-ताल कहरवा)
अङङ्ग-‌अङङ्ग अप्रतिम अमित सौन्दर्य, अतुल माधुर्य महान।
 दिव्य पवित्र अङङ्ग-सौरभ, संतत शुचि अधर मधुर मुसकान॥
 नेत्र सुधावर्षिणी दृष्टिस्न्युत, चचलता, वक्रता विशाल।
 दीर्घ कृष्ण कच, सोह चन्द्रिका, वेणि-सुगुिफत मालति-माल॥
 सुकुमारता, सहज श्री-सुषमा, प्रियदर्शना, विलक्षण रूप।
 सहज सरलता परम बुद्धिमाा, सेवा-रति, धैर्य अनूप॥
 नित्य विरह-कातरता, मिलनोत्कण्ठा, नित्य-मिलन-‌अनुभूति।
 निरभिमानता, मान-रूपता, वामभावना, विमल विभूति॥
 विनयशीलता, शुचि विनम्रता, सर्वत्यागमयता अति पूत।
 करुणामयता, अति उदारता, कर्मकुशलता रस-सभूत॥
साधुभाव, सौशील्य परम, चापल्य मधुर, गाभीर्य अपार।
 गीत-वाद्य-शुचि-नृत्य-कुशलता, ललित अनन्त कला-‌आगार॥
 प्रिय-गुण-वर्णन-मुखरा अति, मन मौन, नित्य उद्दीपित भाव।
 स्व-सुख-कल्पनाशून्य सर्वथा, नित्य एक प्रियतम-सुख-चाव॥
 सहज प्रेम-प्रतिमा, पर निजमें नित्य प्रेमशून्यता-जान।
 आत्मनिवेदनमयता, पर है नहीं समर्पण-स्मृति-‌अभिमान॥
 सखी-सहचरी-प्रेमविवशता, सबमें गुण-महिमाका भान।
 सबके सुखमें सुखी सदा निज सुखका सहज त्याग निर्मान॥
 सौत-प्रियता-सेवा सुखमय प्रियतम-सुख-सपादन-जन्य।
 प्रियतम-वशीकरण गुणगणमय, परम त्यागमय जीवन धन्य॥
 रति, स्नेह अति, प्रणय, मान शुचि, पचम राग तथा अनुराग।
 सप्तम दुर्लभ भाव, प्रेम अष्टस्न्म अति महाभाव युत त्याग॥
 आठोंसे सपन्न, इन्हींकी अगली शुभ परिणतिसे युक्त।
 प्रियतम-महिषी-प्रेयसिगणमें प्रमुख सर्व-‌अर्पण-संयुक्त॥
 प्रेम-विवशता मधुर, नित्य अभिसार-प्रियता, प्रिय-स्मृति-लीन।
 नवनिकुजवासिनि, मधुभाषिणि, परमैश्वर्यमयी, शुचि दीन॥
 ममतामयी मधुकरी करती प्रिय-पद-कज मधुर-रस-पान।
 ’मैं अभिन्न प्रियतमा श्यामकी’-एक अनन्य अहंका भान॥

 १७९
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगलबर एक तव, दो रूप।
पुतरी-नयन-तरंग-तोय-सम, भिन्न न भिन्न-स्वरूप॥
 सुभ्र चंद्रिका-चंद्र, दाहिकासक्ति-‌अनल सम एक।
 अति उदार बितरत स्वरूप-रस सहज, निभावत टेक॥

 १८०
(राग देश-तीन ताल)
दो‌ऊ सदा एक रस पूरे।
एक प्रान, मन एक, एक ही भाव, एक रँग रूरे॥
 एक साध्य, साधनहू एकहि, एक सिद्धि मन राखैं।
 एकहि परम पवित्र दिय रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं॥
 एक चाव, चेतना एक ही, एक चाह अनुहारै।
 एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै॥
  १८१
(राग खमाज-तीन ताल)
दुहुनि की प्रीति अनादि, अनोखी।
परम मधुर मूरति सनेह की, चिदानंदमय चोखी।
 मन-बचननि ते परे दिय दंपति अनादि अति सोहनि।
 पटतर नहिं को‌उ, भ‌ई, न हो‌इहै, जोड़ी मोहन-मोहनि॥
 प्रेमी-प्रेमास्पद दो‌उ नित ही, नित्य एक, द्वै देही।
 नित्य रास-रस-मा, मातारहित सुचारु सनेही॥
 ब्रज-निकुंज प्रगटे दो‌उ रसमय, रसिक जननि सुख-हेतु।
 करत नित्य लीला तहँ सुललित लोकोार रस-केतु॥
 सेवक मोहि करो दो‌उ रसनिधि, करि अति नेह अकारन।
 राखौ चरननि में नित अपुनें, करि बिष-बिषय-निबारन॥

 १८२
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
कृष्ण शक्तिमय, शक्ति राधिका-चिन्मय एक तव भगवान।
 नित्य, अनादि, अनन्त, अगोचर, अमल, अनामय, सत्य महान॥
 त्रिगुणरहित, भगवद्गुणमय, शुचि सच्चिन्मय आनन्द-शरीर।
 लीलामय, लीला, लीला-रत, दो तनु दिव्य नित्य अशरीर॥

 १८३
(राग पीलू-ताल कहरवा)
ह्ल१रू१२/६द्भवह सखि ! शशधर सुखद सुठार।  यह सखि ! शुभ्र ज्योत्स्ना-सार॥
वह सखि ! सूर्य ज्योति-दातार।  यह सखि ! द्युतिमा सूर्याधार॥
वह सखि ! अग्रि देवता ताप।  यह सखि ! शक्ति दाहिका आप॥
वह सखि ! सागर अति गभीर।  यह सखि ! जलनिधि जीवन नीर॥
वह सखि ! सुन्दर देह सुठाम।  यह सखि ! चेतन प्राण ललाम॥
वह सखि ! भूषण सुषमा-सार।  यह सखि ! स्वर्ण भूषणाधार॥
वह सखि ! अतुल-शक्ति बलवान।  यह सखि ! शक्तिमूल, बल-खान॥
वह सखि ! सदा सुवर्धन रूप।  यह सखि ! रूपाधार अनूप॥
वह सखि ! अलख निरजन तव।  यह सखि ! तवाधार महव॥
वह सखि ! मुनि-मोहन सुखधाम।  यह सखि ! स्वयं मोहिनी श्याम॥
वह सखि ! कला-कुशल रमनीय।  यह सखि ! स्वयं कला कमनीय॥
वह सखि ! अग-जग-सुख-‌आगार।  यह सखि ! तत्सुखकी भण्डार॥
 १८४
(राग पीलू-ताल कहरवा)
वह सखि ! नूतन जलधर अङङ्ग। यह सखि ! सुस्थिर बिजलि-तरंग॥
 वह सखि ! मरकत मणि अभिराम। यह सखि ! निर्मल हेम ललाम॥
 वह सखि ! तरुवर तरुण तमाल। यह सखि ! लतिका कनक रसाल॥
 वह सखि ! मधुकर रसिक उदार। यह सखि ! पद्मिनि रस-भण्डार॥
 वह सखि ! बिधुवर विभा-विभोर। यह सखि ! अपलक नयन-चकोर॥
 वह सखि ! प्रिया-सुखागत-प्राण। यह सखि ! प्रियतम-सुखकी खान॥

 १८५
(राग पीलू-ताल कहरवा)
रास-बिहारिनि राधिका, रासेस्वर नँद-लाल।
 ठाढ़े सुंदरतम परम मंडल रास रसाल॥

 १८६
(दोहा)
भावमयी श्रीराधिका, रसमय श्रीगोविंद।
 उभय उभय-मुख-कंज पै खिंचि रहे नैन-मिलिंद॥
 मधुर अधर मुरली धरे ठाढ़े स्याम त्रिभंग।
 राधा उर उमग्यौ सु-रस रोमांचित अँग-‌अंग॥
 नील-पीत-पट दुहुँन के भूषन-भूषन देह।
 होड़ लगी अति दुहुँन में बढ़त छिनहि छिन नेह॥
 मोर-मुकुट, सिर चंद्रिका, त्रिभुवन-मोहन रूप।
 करत परस्पर पान दो‌उ नित रस दिय अनूप॥

 १८७
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगल बर परम मधुर रमनीय।
सहज मार-रति-मद-मर्दन छबि ललित, कलित, कमनीय॥
 बदन-कमल नित सहज प्रड्डुल्लित, सरस मधुर मुसुकान।
 बरबस हरत मुनींद्र बिजित-मन बीतराग तपवान॥

 १८८
(राग खमाच-राग दादरा)
जयति जय जयति रस-भाव-जोरी।
नील घन स्याम अभिराम, मुनि-मन-हरन,   
     दुति करन ज्योति राधा किसोरी।
 पीत पट ललाम छबिधाम सुचि, नील-बरन,   
     स्वर्न-तन राजत, डारत ठगोरी॥
 स्याम-छबि निरखत अनिमेष राधा सतत,   
     स्तध मनु देखि ससधर चकोरी।

राधा-मुख-कमल लखि मा स्यामसुंदर-दृग-  
     भृंग रस-पान-रत अमिय घोरी॥
 सखियन अति भीर जुरी, जुगल रूप निरखन कौं,  
     रहीं सब चकित चित, तृनहि तोरी।
 राधिका-माधव द्वै लसत, मन बसत नित,  
     ह्वै रही प्रेमबस देह मोरी॥
  १८९
(दोहा)
परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-रूप।
 कालिंदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप॥
 सुधा-मधुर-सौंदर्य-निधि छलकि रहे अँग-‌अंग।
 उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग॥
 प्रगटत सतत नवीन छबि दो‌ऊ होड़ लगाय।
 हार न मानत जदपि, पै दो‌ऊ रहे बिकाय॥
 नित्य छबीली राधिका, नित छबिमय ब्रज-चंद।
 बिहरत बृन्दा-बिपिन दो‌उ लीला-रत स्वच्छंद॥

 १९०
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगल छबि हरति हिये की पीर।
कीर्ति-कुँअरि ब्रजराज-कुँअर बर ठाढ़े जमुना-तीर॥
 कल्पबृक्ष की छाँह, सुसीतल-मंद-सुगंध समीर।
 मुरली अधर, कमल कर कोमल, पीत-नील-दुति चीर॥
 मुक्ता-मनिमाला, पन्ना गल, सुमन मनोहर हार।
 भूषन बिबिध रत्न राजत तन, बेंदी-तिलक उदार॥
 स्रवननि सुचि कुंडल झुर झूमक झलकत ज्योति अपार।
 मुसुकनि मधुर अमिय दृग-चितवनि बरसत सुधा-सिंगार॥

 १९१
(राग पीलू-तीन ताल)
सोहत जुगल राधे-स्याम।
नील नीरद स्याम, गोरी राधिका अभिराम॥
 पीत बसन सुनील तन पर लसत सोभा-धाम।
 नील सारी अति सुसोभित गौर देह ललाम॥
 उभय अनुपम रूप-निधि, सृङङ्गार के सृङङ्गार।
 सील-गुन-माधुर्य-मंडित अतुल, सुषमागार॥
 दिय देह, सुमन अलौकिक सुचि सदा अबिकार।
 सर्ब, सर्बातीत, निरगुन, सकल गुन आधार॥
 प्रकृति-गत, नित प्रकृतिपर, रस दिय पारावार।
 एक नित जो, बने नित दो करत नित्य बिहार॥
 करत अति पावन परस्पर प्रेममय यौहार।
 स्व-सुख-बांछा-रहित पूरन त्यागमय आचार॥
  १९२
(राग भूपाली-तीन ताल)
स्याम-स्यामा सुषमाके सागर।
कोटि काम-रति मोहन सोहन नव-नागरि नट-नागर॥
 कल कमनीय किसोर-बयस दो‌उ स्याम-गौर सुख-‌आगर।
 मधुर-मधुर मुसुकात परसपर निरखत छबि नित जागर॥
  १९३
(राग हमीर-तीन ताल)
बिराजत रासेस्वरि-रसराज।
गौर-स्याम तन नील-पीत पट सजे मनोहर साज॥
 चंचल चपल नैन की चितवनि चित उपजावत मोद।
 मधुर बचन रसभरे परस्पर कहि-कहि करत बिनोद॥
 कलित केलि कमनीय अलौकिक रस-‌आनंद अनूप।
 पल-पल बढ़त भाव-माधुरि सुचि, विकसत नव-नव रूप॥

 १९४
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
सोहत सुठि स्याम संग राधा रस-भीनी।
 राधा-मन लीन-स्याम, राधा हरि-लीनी॥
 सुभग नील-स्याम बदन, राधा हेम रंगी।
 पीत बसन सुंदर, नव नील पट सुरंगी॥
 अंग बरन आपस के दिय बसन धारी।
 मोर-मुकुट सोहत सिर, चंद्रिका उज्यारी॥
 अधरनि पै दो‌उन के मृदुल हँसी छा‌ई।
 दो‌ऊ ही दो‌उन के अनुपम सुखदा‌ई॥
 रास-रसराज स्याम, रासेस्वरि राधा।
 सुंदर अभिराम स्याम, नित ललाम राधा॥
  १९५
(राग बिहाग-तीन ताल)
बनहिं बन रस ढरकावत डोलैं।
राधा-माधव अंसनि कर धरि मधुरी बानी बोलैं॥
 स्याम-मेघ राधा-दामिनि नित नव रस-निर्झर खोलैं।
 बिहरत दो‌उ रसमा परस्पर, अमिय प्रेमरस घोलैं॥
 रसपूरित भुवि खग-मृग-तरु-सर-सरिता करत किलोलैं।
 उमग्यौ मधु-रस-निधि अगाध, अति उछलत बिबिध हिलोलैं॥

 १९६
(राग परज-ताल कहरवा)
लता-निकुज मध्य माधव धर नटवर वेश रहे सुविराज।
 विधुबदनी पिय-हियकी रानी राधा रही अङङ्कमें राज॥
 निरख मुख-कमल मधुप बने हरि-नयन कर रहे मधु-रस-पान।
 प्रेम मधुर पुलकित तन, विगलित हृदय, रसिक रसराज महान॥

 १९७
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
राधा-माधव माधव-राधा छाये देश-काल सब ओर।
 नाच रही राधा मतवाली, मुरली टेर रहे मन-चोर॥
 देखो, सुनो सदा सबमें सर्वत्र भरे दोनों रस-धाम।
 मधुर मनोहर मूरति, मुरली-ध्वनि बरसाती सुधा ललाम॥
 लीला-लीलामय ही है सब, लीला-लीलामय सर्वत्र।
 लीला-लीलामय ही रहते, करते लीला विविध विचित्र॥
 नित्य मधुर दर्शन, सभाषण, स्पर्श मधुर नित नूतन भाव।
 नित नव मिलन, नित्य मिलनेच्छा, नित नव रस आस्वादन चाव॥
  १९८
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
कलित कल्पतरु-कुंज सुगंधित सुमनावलि-मंडित कमनीय।
 अवतारावलि-‌अंबुज-दल मनि-रत्न-रचित आसन रमनीय॥
 सुख पहुँचावन हेतु परस्पर सजे सकल अँग सुंदर साज।
 मधुर मनोहर राधा-माधव एकहि दो बन रहे बिराज॥
 सील-सँकोच-भरी मुख-छबि पर छलकि रह्यौ हिय-रस कौ भाव।
 बोल न निकसत मुख दो‌उन कैं, उमगि उठ्यो बोलन कौ चाव॥
 अति सुंदर माधुर्य-सुधानिधि, अखिल-रसामृत-सिंधु अपार।
 जय रसमयि राधा, जय माधव रसिक-सिरोमनि परम उदार॥

 १९९
(राग आसावरी-तीन ताल)
रसमयी संग रसिक-बर राज।
किसलय-सुमन-बल्लरी-बिरचित रहे निकुंज बिराज॥
 अमित अनंत तरंगित स्यामल नील-नीरधर अंग।
 रास-बिलास-कला-कौसल-निधि ठाढ़े ठसक त्रिभंग॥

हेम-बरनि, सुखकरनि लाडिली ललित रही नित संग।
 मानौ बारिद-बिजुरी बिलसित नील-पीत नव रंग॥
 बिबिध बिधान बिभाव-भावमय मधुमय रसमय रास।
 मधुर अधर धर मुरलि मनोहर राग-सुराग बिकास॥

 २००
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
स्थिर बिजली सँग चंचल जलधर रस बरसत अनिवार।
 कांचन मनि-गन मध्य महामरकतमनि नंद-कुमार॥
 कनकलता अनेक सुस्पर्सित सुचितम तरुन तमाल।
 कमलिनि दल महँ मुग्ध मधुप सम राजत श्रीनँदलाल॥
 गोपीजन अगनित महँ सोभित प्रति गोपी के ग्यान।
 एक-‌एक सँग बिलसत, नित प्रिय रसिक-मुकुट रसवान॥

 २०१
(राग बिहाग-तीन ताल)
बिराजित स्यामा-स्याम निकुंज।
गौर-स्याम बदनारबिंद अनुपम सुषमा-सुख-पुंज॥
 घुँघराली अलकावलि बिथुरी छा‌ई कलित कपोल।
 बाँर्‌ईं बाँह स्याम की सोभित स्यामा-कंठ अतोल॥
 दोनों के दृग बने मधुप दोनों के बदन-सरोज।
 करत परस्पर प्रान सुधा-रस, लाजत अमित मनोज॥
 प्रेम भरी सुचि सखी-मंजरीं ठाढ़ी सब चहुँ पास।
 निरखि मनोहर मधुर जुगल छबि हिय अति भर्‌यौ हुलास॥

 २०२
(राग देश-तीन ताल)
मिले श्याम-श्यामा दोनों तब उमड़ा अतिशय प्रेम।
 मरकत मणिसे लिपटा जैसे-रसमय उज्ज्वल हेम॥
 कनकलतासे घिरा मनोहर मानो तरुण तमाल।
 नव-जलधरसे मानो बिजली स्वर्णिम मिली रसाल॥
 मानो हु‌आ सरस सरसिजका मधुकरसे मधु सङङ्ग।
 अति आनन्दित दोनों ही, तन पुलकित प्रेम-तरंग॥
 दोनों ही दोनोंको करते प्रेम-रसामृत-दान।
 एक हो रहे थे दो, अब फिर एक हु‌ए मतिमान॥

 २०३
(राग आसावरी-ताल कहरवा)
गौर सुभग शशि अमित दीप्ति शुचि, श्याम पराजित-‌अमित-‌अनंग।
 दिव्य सलिल पूरित घन शोभित श्याम, दिव्य विद्युत्‌्‌के संग॥
 अंग-‌अंग विकसित तरंग नित, नव-माधुर्य सुधारस सार।
 कलित कुसुम सौरभित मनोहर, झूल रहे दोनों उर-हार॥
 कुटिल भृकुटि, चंचल दृग करते नित्य परस्पर आकर्षण।
 दो बन पृथक्‌ प्रगाढ़ प्रेमवश करते नित्य प्रेमवर्षण॥
 दोनों दोनोंके नित प्रेमी, दोनों दोनोंके शुचि प्रेष्ठस्न्।
 दोनों दोनोंको नित देते, सहज प्रेम-सुख-रस अति ोष्ठस्न्॥
 दोनोंमें है परम त्यागकी पराकाष्ठस्नसे पर-त्याग।
 दोनों दोनोंके सुसेव्य प्रिय, दोनों शुचि सेवक बड़भाग॥
 रमणी-रमण कौन है, इसका नहीं कहीं कुछ भी है जान।
 रमण-हीन नित रमण निरन्तर, सहज रुचिर रति रय महान॥
 दोनोंके चरणारविन्दपर न्यौछावर नित मन-मति-प्राण।
 दोनों बने रहें नित मेरे, नित्य-प्रिय प्राणोंके प्राण॥

रविवार, जनवरी 30, 2011

नाथ मैं थारो जी थारो। (पद-रत्नाकर, पद-१३०)

नाथ मैं थारो जी थारो।
चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थाँरो॥
बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो, थे ही मनै सुधारो।
सुधरयो तो प्रभु सुधरयो थाँरो, थाँ सूँ कदे न न्यारो॥
बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ , आखर टाबर थाँरो।
बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगङ्सी थाँरो ॥
थाँरो हूँ, थाँरो ही बाजूँ, रहस्यूँ थाँरो, थाँरो !!!
आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥
मेरी बात जाय तो जाओ, सोच नहीं कछु न्हाँरो।
मेरो बङो सोच योंं लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥
जचे जिस तराँ करू नाथ ! अब, मारो चाहै त्यारो।
जाँघ उखाङयाँ लाज मारोगा, ऊँडी बात बिचरो॥
(पद-रत्नाकर, पद-१३०)

सेवा का महत्व

सेवा के बदले में मरने के बाद भी कीर्ति न चाहो। तुम्हें लोग भूल जायँ इसीमें अपना कल्याण समझो। काम अच्छा तुम करो, कीर्ति दूसरेको लेने दो। बुरा काम भूलकर भी न करो, परन्तु तुमपर उसका आरोप लगाकर दूसरा उससे मुक्त होता हो तो उसे सिर चढ़ा लो। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तुम्हारा वह सुखदायी मनचाहा अपमान तुम्हारे किये मुक्तिका दरवाजा खोल देगा। 
(कल्याण-कुञ्ज-भाग-1-पेज-103)

शनिवार, जनवरी 29, 2011

आते हो तुम बार-बार प्रभु!!!!!!


(राग जैतकल्याण-ताल मूल)
आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
’खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥

गुरुवार, जनवरी 27, 2011

दो‌उ चकोर, दो‌उ चंद्रमा....... (shodash geet)

(दोहा)

दो‌उ चकोर, दो‌उ चंद्रमा, दो‌उ अलि, पंकज दो‌उ।
दो‌उ चातक, दो‌उ मेघ प्रिय, दो‌उ मछरी, जल दो‌उ॥
आस्रय-‌आलंबन दो‌उ, बिषयालंबन दो‌उ।
प्रेमी-प्रेमास्पद दो‌उ, तत्सुख-सुखिया दो‌उ॥
लीला-‌आस्वादन-निरत, महाभाव-रसराज।
बितरत रस दो‌उ दुहुन कौं, रचि बिचित्र सुठि साज॥
सहित बिरोधी धर्म-गुन जुगपत नित्य अनंत।
बचनातीत अचिन्त्य अति, सुषमामय श्रीमंत॥
श्रीराधा-माधव-चरन बंदौं बारंबार।
एक तव दो तनु धरें, नित-रस-पाराबार॥

प्रार्थनामें श्रद्धा-विश्वास

प्रार्थनामें श्रद्धा-विश्वास तो है ही,इनके बिना तो प्रार्थना होती ही नहीं,पर दो बातोंकी और आवश्यकता है-पहली इतना आर्तभाव,जो भगवान्‌ को द्रवित कर दे और दूसरी, भगवान्‌ की कृपालुतामें ऐसा परम विश्वास-कि प्रार्थना करनेमात्रकी देर है,प्रार्थना करते ही वह कृपालु माँ मुझे अपनी सुखद गोदमें ले ही लेगी।

(प्रभु को आत्मसमपण पेज-११ गीतावाटिका प्रकाशन)

 

साध्कोंके लिये एक बहुत उत्तम उपाय है पमेश्वर के सामने आर्त होकर दीनभाव से हदय
खोलकर रोना,यह साधन एकान्त में करने का है।सबके सामने करने से लोगों में
उद्वेग होने और साधना के दम्भ रुप में परिणत हो जाने कि सम्भवना है।

(प्रभु  को आत्मसमपण पेज-११ गीतावाटिका प्रकाशन)

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

साधकों के पत्र- page 78

भगवान् के स्वभावको देखकर सदा समुल्लसित पूर्ण आशान्वित,प्रसन्न रहना चाहिये।चाह, रुचि,स्पृहा, इच्छा, सब उनकी इच्छा में समा जायें। उनके मनकी होते देखकर चित्त सदा आन्नद सागरकी लहरें बना रहे। यही उनके दुर्लभ प्रेमप्राप्ति का परम श्रेष्ठ उपाय है।