जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, अक्तूबर 31, 2013

प्रार्थना


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, द्वादशी, गुरूवार, वि० स० २०७०

प्रार्थना  
 

 हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो

तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ।।

 

तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो

यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ।।

 

हम महामूढ़  अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे

नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ।।

 

सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे

 सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ।।

 

तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है

है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ।।

 

हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है

अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ।।

 

इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा

फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ।।

 

हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा

हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा ।।   

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पद-रत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, अक्तूबर 30, 2013

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, एकादशी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
      माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

(राग जंगला-ताल कहरवा)

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

खूअ रिझान्नँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥

नाचूँगी, गाऊं गी, मैं फिर खूब मचान्नँगी हुड़दंग।
खूब हँसान्नँगी हँस-हँस मैं, दिखा-दिखा नित तूतन रंग॥

धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजान्नँगी सब अङङ्ग-

मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-‌उमंग।
आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्टस्न-कल्पना भङङ्गस्न॥

तुम्हें पिलान्नँगी मीठा रस, स्वयं रहँूगी सदा असङङ्गस्न।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङङ्गस्न॥

प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

खूअ रिझान्नँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पद-रत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   

मंगलवार, अक्तूबर 29, 2013

वर्णाश्रम धर्म -१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, दशमी, मंगलवार, वि० स० २०७०


जिज्ञासु के कर्तव्य एवं सबके धर्म

                         गत ब्लॉग से आगे…(अब तक सिद्ध ज्ञानी के धर्म कहे, अब जिज्ञासु के कर्तव्य बताते है ) जिस विचारवान को इन अत्यन्त दुखमय विषय-वासनाओं से वैराग्य हो गया है और मेरें भागवत-धर्मों से जो अनभिग्य है, वह किन्ही ‘विरक्त’ मुनिवर को गुरु जानकर वह  अति आदरपूर्वक भक्ति और श्रद्धा से तबतक उनकी सेवा-श्रुश्नामें लगा रहे जबतक की उसको ब्रह्मज्ञान न हो जाए; तथा उनकी कभी किसी से निंदा न करे । जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-इन छ: शत्रुओं को नहीं जीता, जिसके इन्द्रिय रुपी घोड़े अति प्रचंड हो रहे है, तथा जो ज्ञान और वैराग्य से शून्य है, तथापि दण्ड-कमण्डलु से पेट पालता है, वह  यति धर्म का घातक है और अपनी इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को, अपने को और अपने अंत:करण में स्थित मुझको ठगता है; वासना के वशीभूत हुआ वह इस लोक और परलोक दोनों और से मारा जाता है |
सबके धर्म


                       शान्ति और अहिंसा यति (सन्यासी) के मुख्य धर्म है, तप और ईश्वर-चिन्तन वानप्रस्थ के धर्म है, प्राणियों की रक्षा और यज्ञ करना गृहस्थ के मुख्य धर्म है तथा गुरु की सेवा ही ब्रह्मचारी का परम धर्म है ।

                ऋतुगामी गृहस्थ के लिए भी ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष और भूत-दया-ये आवश्यक धर्म है और मेरी उपासना करना तो मनुष्यमात्र का परम धर्म है ।   इस प्रकार स्वधर्म-पालन के द्वारा जो सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी भावना रखता हुआ अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, वह शीघ्र ही मेरी विशुद्ध भक्ति पाता है । हे उद्धव ! मेरी अनपायिनी (जिसका कभी हास नहीं होता, ऐसी) भक्ति के द्वारा वह सम्पूर्ण लोकों के स्वामी और सबकी उत्पति, स्थिती और लय आदि के कारण मुझ परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।

              इस प्रकार स्वधर्म-पालन से जिसका अन्तकरण निर्मल हो गया है और जो मेरी गति को जान गया है, ज्ञान-विज्ञान से संपन्न हुआ वह शीघ्र ही मुझको प्राप्त करलेता है । वर्णाश्रमचारियों के धर्म, आचार और लक्षण ये ही है; इन्ही का यदि मेरी भक्ति के सहित आचरण किया जाये तो ये परम नि:श्रेयस (मोक्ष) के कारण हो जाते है । हे साधो ! तुमने जो पुछा था की स्वधर्म का पालन भक्त किस प्रकार मुझको प्राप्त कर सकता है सो सब मैंने तुमसे कह दिया । (भागवत, एकादश स्कन्द)               

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!        

सोमवार, अक्तूबर 28, 2013

वर्णाश्रम धर्म -९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७०

सन्यासी के धर्म
 

              गत ब्लॉग से आगेजो ज्ञाननिष्ठ विरक्त हो अथवा मेरा अहेतुक (निष्काम) भक्त हो, वह आश्रमादी को उनके चिन्होंसहित छोड़कर वेद-शास्त्रों के विधि-निषेध के बंधन से मुक्त होकर स्वछंद विचरे । वह अति बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान क्रीडा करे, अति निपुण होकर भी जड़वत रहे, विद्वान होकर भी उन्मत (पागल) के समान बात-चीत करे और सब प्रकार शास्त्र-विधि को जानकर भी पशु-वृति से रहे । उसे चाहिये की वेद-विहित कर्मकाण्डादि में प्रवृत न हो और उसके विरुद्ध होकर पाखण्ड अथवा स्वेछाचार में भी न लग जाये तथा व्यर्थ के वाद-विवाद में पड़कर कोई पक्ष  न ले बैठे । वह धीर पुरुष अन्य लोगों से उदिग्न न हो और न औरों को ही अपने में उदिग्न न होने दे; निन्दा आदि को सहन करके कभी चित में बुरा न माने और इस शरीर के लिए पशुओं के समान किसी से वैर न करे ।

                               एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित है; जैसे एक ही चन्द्रमा के भिन्न-भिन्न जलपात्रों में अनेक प्रतिबिंब पडते है, उसी प्रकार सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है । कभी समय पर भिक्षा न मिले तो दुःख न माने और मिलजाय तो प्रसत्र न हो; क्योकि दोनों ही अवस्थाएँ दैवाधीन है । प्राण-रक्षा आवश्यक है, इसके लिए आहारमात्र के लिए चेष्टा भी करे; क्योकि प्राण रहेंगे तो तत्व-चिन्तन होगा और उसके द्वारा आत्मस्वरूप को जान लेने से मोक्ष की प्राप्ति होगी |

                       विरक्त मुनि को चाहिये की दैववशात जैसा आहार मिल जाये-बढ़िया या मामूली, उसी को खा ले; इस प्रकार वस्त्र और बिछोना भी जैसा मिले, उसी से काम चला ले । ज्ञाननिष्ठ, परमहंस शौच, आचमन, स्नान तथा अन्य नियमों को भी शास्त्र-विधि की प्रेरणा से न करे, बल्कि मुझ ईश्वर के समान केवल लीलापूर्वक करता रहे । उसके लिए यह विकल्परूप#  प्रपंच नहीं रहता, वह तो मेरे साक्षात्कार से नष्ट हो चुका; प्रारब्धवश जबतक देह है, तब तक उसकी प्रतीति होती है । उसके पतन होने पर तो वह मुझमे ही मिल जाता हैं ।      

                                  #भगवान पतंजली ने योगदर्शन में विकल्प का यह लक्षण किया है-जिसमे केवल शब्द-ज्ञान ही हो, शब्द की अर्थरूप वस्तु का सर्वथा अभाव हो, वह विकल्प है । यह संसार भी-जैसा श्रुति भी कहती है शब्दजाल रूप ही है, वस्तुत: कुछ नहीं है; इसलिए इसे भी विकल्प कहा है ।.... शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

रविवार, अक्तूबर 27, 2013

वर्णाश्रम धर्म -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, रविवार, वि० स० २०७०

सन्यासी के धर्म

                    गत ब्लॉग से आगे...सन्यासी को यदि वस्त्र धारण करने की आवश्यकता हो तो एक कौपीन और एक ऊपर से ओढने को बस, इतना ही वस्त्र रखे और आपत्काल को छोड़कर दण्ड और कमंडलु के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास न रखे । पहले देख कर पैर रखे, वस्त्र से छान कर जल पिए, सत्यपूत वाणी बोले और मन से भलीभाँती विचारकरकोई काम करे । मौन रूप वाणी का दण्ड, निष्क्रियतारूप शरीर का दण्ड और प्राणायामरूप मन का दण्ड ये तीनो दण्ड जिसके पास नहीं है, वह केवल बाँसका दण्ड ले लेने मात्र से (त्रिदण्डी) सन्यासी थोड़े ही हो जायेगा । जातिच्युत अथवा गोघातक आदिपतित लोगों को छोडकर चारो वर्ण की भिक्षा करे ।अनिश्चित सात घरों से माँगे, उनमे जो कुछ भी मिल जाये, उसी से सतुष्ट रहे । बस्ती के बाहर जलाशय पर जाकर जल छिड़क कर स्थल-शुद्धि करे और समय पर कोई आ जाये तो उसको भी भाग देकर बचे हुए सम्पूर्ण अन्न को चुपचाप खा ले (आगे के लये बचा कर न रखे) । जितेन्द्रिय, अनासक्त, आत्माराम, आत्मप्रेमी, आत्मनिष्ठ और समदर्शी होकर अकेला ही पृथ्वीतल पर विचरे ।    

              मुनि को चाहिये की निर्भय और निर्जन देश में रहे और मेरी भक्ति से निर्मल चित होकर अपने आत्मा का मेरे साथ अभेद-पुर्वक चिन्तन करे । ज्ञाननिष्ठ होकर अपने आत्मा के बंधन और मोक्ष का इस प्रकार विचार करे की इन्द्रिय-चान्चाल्तय ही बंधन है और उनका संयम ही मोक्ष है । इसलिए मुनि को चाहिये की छहों इन्द्रियों (मन एवं पाँच ज्ञानेन्द्रियों) को जीत कर समस्त क्षुद्र कामनाओं का परीत्याग करके अन्त:करण में परमानन्द का अनुभव करके निरंतर मेरी ही भावना करता हुआ स्वछंद विचरे ।

                   भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के यहाँ से ही ले; क्योकि शिलोच्छ-वृति से प्राप्त हुए अन्न के खाने से बुद्धि शीघ्र ही शुद्ध चित और निर्मोह हो जाने से (जीवन-मुक्तिकी)  सिद्धि हो जाती है ।     

                इस नाशवान द्रश्य-प्रपन्न्च को कभी वास्तविक न समझे; इनमे अनाशक्त रह कर लौकिक और परलौकिक समस्त कामनाओं (काम्य-कर्मों) से उपराम हो जाय । मन वाणी और प्राण का संघातरूप यह सम्पूर्ण जगत मायामय ही है-ऐसे विचार द्वारा अंत:करण में निश्चय करके स्व-स्वरूप में स्तिथ हो जाय और फिर इसका स्मरण भी न करे |.... शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

शनिवार, अक्तूबर 26, 2013

वर्णाश्रम धर्म -७-


।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०
 
वानप्रस्थ के धर्म
                               गत ब्लॉग से आगे...समयनुसार प्राप्त हुए वन्य कन्द-मूल आदि से ही देवताओं और पितरों के लिए चरु और पुरोडाश निकाले । वानप्रस्थ होकर वेद-विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे । हाँ, वेद-वेताओं के अदेशानुशार अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास और चतुर्मास्यादी को पूर्ववत करता रहे । इस प्रकार घोर तपस्या के कारण (मॉस सूख जानेसे) कृश हुआ वह मुनि मुझ तपोमय की आराधना करके ऋषि-लोकादीमें जाकर फिर वहाँ से कालान्तरमें मुझको प्राप्त कर लेता है । जो कोई इस अति कष्ट-साध्य मोक्ष-फलदायक तपको क्षुद्र फलों (स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि) की कामना से करते है, उससे बढकर मूर्ख और कौन होगा ।
                       
जब यह नियमपालन में असमर्थ हो जाय और बुढ़ापे से शरीर कापने लगे, तब अपने शरीर में अग्नियों को आरोपित करके, मुझमे चित लगाकर अर्थात मेरा स्मरण करता हुआ यह (अपने शरीर से प्रगट हुई ) अग्नि में शरीर को भस्म कर दे । यदि पुण्य-कर्म-विपाक से यदि किसीको अति दुखमय होने के कारण नरक-तुल्य इन लोकों से पूर्ण वैराग्य हो जाय तो आह्वानीयादी अग्नियों को त्याग करके संन्यास ग्रहण कर ले ।
 
           ऐसे विरक्त वानप्रस्थ को चाहिये की वेद-विधि के अनुसार (अष्टकाश्राद्ध और प्रजापत्य-यज्ञसे) यजन करके अपना सर्वस्व ऋत्व्विज को दे दे और अग्नियों को अपने प्राण में लय करके निरपेक्ष होकर स्वछंद विचरे । इस विचार से की ‘यह हमारे लोकको लाँघ कर परम-धाम को जायेगा’  स्त्री आदि के रूपसे देवगण ब्राह्मण के संन्यास लेते समय विघ्न किया करते है (अत: उस समय सावधान रहना चाहिये) |.... शेष अगले ब्लॉग में
 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
 

शुक्रवार, अक्तूबर 25, 2013

वर्णाश्रम धर्म -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

वानप्रस्थ के धर्म

                                  गत ब्लॉग से आगे...जो वानप्रस्थ होना चाहे, वह अपनी स्त्रीको पुत्रों के पास छोडकर अथवा अपने ही साथ रखकर शान्तचित से अपनी आयु के तीसरे भाग को वन में रहकर ही बिताये । वह वन में शुद्ध कन्द, मूल और फलों से ही शरीर निर्वाह करे, वस्त्र के स्थान पर वल्कल धारण करे अथवा तृण, पर्ण और मृगचर्मादी से काम निकल ले ।केश, रोम, नख, श्मश्रु (मूछ-दाढ़ी) और शरीर के मैल (मैल बढ़ने देने से तात्पर्य यही है की उबटन, तेल आदि न लगाये, साधारण मैल तो नित्य त्रिकाल स्नान करने से छूटता ही रहेगा । विशेष देहअभ्यास  से शरीर मले भी नहीं )  को बढ़ने दे, दन्तधावन न करे, जल में घुस कर नित्य त्रिकाल स्नान करे और पृथ्वी पर सोये ।
                                    ग्रीष्म में पंचाग्नि तपे, वर्षामें खुले मैदान में रहकर अभ्रावकाश-व्रत का पालन करे तथा शिशिर-ऋतु में कन्ठ-पर्यन्त जल में डूबा रहे  इस प्रकार घोर तपस्या करे । अग्नि से पके हुए अन्नादि अथवा काल पाकर स्वयं पके हुए (फल आदि) से निर्वाह करे । उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली से अथवा पत्थर से कुट ले या दाँतों से चबा-चबा कर खा ले ।  
                                     अपने उदर पोषण के लिए कन्द-मूलादी स्वयं ही संग्रह करके ले आये; देश, काल और बलको भली भाँती जानने वाला मुनि दुसरे के लाये हुए पदार्थ ग्रहण न करे (अर्थात मुनि इस बात को जानकर की अमुक पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, कितनी देरतक का खाने से हानिकारक न होगा और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल है-स्वयं ही कन्द-मूल-फल आदि का संचय करे; देश-कालादी से अनभिग्य अन्य जनों के लाये पदार्थों के सेवन से व्याधि आदि के कारण तपस्या में विघ्न होने की आशंका है) |.... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

गुरुवार, अक्तूबर 24, 2013

वर्णाश्रम धर्म -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, पन्चमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

गृहस्थ के धर्म

             गत ब्लॉग से आगे...जिस ब्राह्मण को अधिक अर्थकष्ट हो, वह या तो वणिक्-वृतिके द्वारा व्यापार आदि से उसको पार करे अथवा खडगधारण पूर्वक क्षत्रिय-वृति का अवलंबन करे; लेकिन किसी भी दशा में नीच-सेवा रूप श्र्व-वृति का आश्रय न ले । क्षत्रिय को यदि दारिद्रय से कष्ट हो तो या तो वैश्यवृति या मृगया (शिकार) और या ब्राह्मणवृति (पढ़ाने) से कालयापन करे किन्तु नीच-सेवा का आश्रय कभी न ले । इसी प्रकार आपतिग्रस्त वैश्य शूद्रवृति रूप सेवा का और शूद्रप्रतिलोम (उच्च वर्ण की स्त्री में नीच वर्ण के पुरुष से उत्पन्न ) जाति के कारू (धुना) आदि की चटाई आदि बुनने की वृतिका आश्रय ले ।(ये सब विधान आपतकाल के लिए ही है ) । आपति से मुक्त होने पर लोभ पूर्वक नीचवृति का आवलंबन कोई न करे |

                गृहस्थ पुरुष को चाहिये की वेदाध्यन्न, स्वधा(पितृ यज्ञ), बलिवैस्व्देव तथा अन्न-दानादि के द्वारा मेरे ही रूप देव, ऋषि, पितर और अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति पूजा करता रहे । स्वयं प्राप्त अथवा शुद्ध वृति के द्वारा उपार्जित धन से तथा अपने द्वारा जिनका भरण-पोषण होता हो, उन लोगो को कष्ट न पहुचाकर न्याय-पूर्वक यज्ञादि शुभ कर्म करता रहे । अपने कुटुम्ब में ही आसक्त न हो जाय, बड़ा कुटुम्बी होकर प्रमादवश भगवद-भजन को न भुलाये बुद्धिमान विवेकी को उचित है की प्रयत्क्ष प्रपंच के सामान स्वर्गादी को भी नाशवान जाने । यह पुत्र-स्त्री-कुटुम्ब आदि का संयोग मार्ग में चलने वाले पथिकों के संयोग के सामान आगमापायी है । निंद्रावश होने पर स्वप्न के समान जन्म-जन्मान्तर में ऐसे नाना संयोग-वियोग होते रहते है ।ऐसा विचार करके मुमुक्षु पुरुष को चाहिये की घर में अतिथि के समान ममता और अहंकार से रहित होकर रहे, असक्तिव्श उसमे लिप्त न हो जाये ।

                            गृह्स्थोचित कर्मो के द्वारा मेरा यजन करता हुआ मेरी भक्ति से युक्त होकर चाहे घर में रहे, चाहे वानप्रस्थ होकर वन में बसे अथवा पुत्रवान हो तो (स्त्री के पालन-पोषण का भार पुत्र को सौपकर) सन्यास ले ले । किन्तु जो गृह में आसक्त है, पुत्रैश्ना और वितैष्णा से व्याकुल है, स्त्री-लम्पट, लोभी और मंदमति है, वह मूढ़ ‘मै’ और ‘मेरा’ इस मोह बन्धन में बंध जाता है । वह सोचता है ‘अहो ! मेरे माता-पिता बूढ़े है, स्त्री बाला (छोटी अवस्था की) है, बाल-बच्चे है; मेरे बिना ये अति दीन, अनाथ और दुखी होकर कैसे जियेंगे? इस प्रकार गृहासक्ति से विक्षिप्त-चित हुआ यह मूढ़-बुद्धि विषय भोगो से कभी तृप्त नहीं होती और इसी चिंता में पड़ा रह कर एक दिन घोर-अन्धकार में पडता है |.... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!        

बुधवार, अक्तूबर 23, 2013

वर्णाश्रम धर्म -४-


|श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०

गृहस्थ के धर्म

                  गत ब्लॉग से आगे...जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहे, वह अपने अनुरूप निष्कलंक कुलकी तथा अवस्था में अपने से छोटी, अपने ही वर्ण की कन्या से विवाह करे अथवा अपने से नीचे-नीचेके वर्णों में से भी विवाह कर सकता है ।

यज्ञ करना, पढना और दान देना ये धर्म तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों के लिए विहित है; किन्तु दान लेना, पढाना और यज्ञ कराना ये केवल ब्राह्मण ही करे । किन्तु प्रतिग्रह (दान लेना) तप, तेज और यश का विघातक है; इसलिए ब्राह्मण पढ़ाने और यज्ञ करानेसे ही जीवन का निर्वाह करे अथवा यदि इनमे भी (परावलंबन  और दीनता आदि) दोष दिखलाई दे तो केवल शिल्लोछ-वृति से ही रहे । यह अति दुर्लभ ब्राह्मण-शरीर क्षुद्र विषय भोग आदि के लिए नहीं है । इसके द्वारा तो यावजीवन कठिन तपस्या और अंत में अनन्त आनंदरूप मोक्ष का सम्पादन होना चाहिये । इसप्रकार संतोषपूर्वक शिल्लोछ-वृतिसे रहकर अपने अतिनिर्मल महान धर्म का निष्कामता से आचरण करता हुआ जो ब्राह्मणश्रेष्ठ सर्वतोभावेन मुझे आत्म-समर्पण करके अनासक्तभाव से अपने घर में ही रहता है, वह अंत में परमशान्ति रूप मोक्ष-पद को प्राप्त करता है ।

                       जो कोई मेरे आपतिग्रस्त ब्राह्मण भक्त का कष्ट से उद्धार करते है, उनको में भी समुद्र में डूबते हुए को नौका के समान शीघ्र ही सम्पूर्ण विपतियों से बचा लेता हूँ |

                    धीर और विचारवान राजा को चाहिये की पिता के समान सम्पूर्ण प्रजा की और स्वयं अपनी भी उसी प्रकार आपति से रक्षा करे जिस प्रकार यूथपति गजराज अपने यूथ के अन्य हाथियों और स्वयं अपने आप को भी (अपनी ही बुद्धि और बल-विक्रम से) विपतियों से बचाता है । ऐसा धर्मपरायण नरपति इस लोकमें सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त होकर अन्त्समय में सूर्य-सदर्श  प्रकाशमान  विमान पर बैठ कर स्वर्गलोक को जाता है और वहाँ इंद्र के साथ सुख-भोग करता है |.... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!        

मंगलवार, अक्तूबर 22, 2013

वर्णाश्रम धर्म -३-


|श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
ब्रह्मचारी के धर्म

                   गत ब्लॉग से आगे ..ग्रहस्थाश्रम में न जानेवाला ब्रह्मचारी स्त्रिँयों का दर्शन, स्पर्श, उनसे वार्तालाप तथा हँसी-मसखरी आदि कभी न करे तथा न किसी भी नर-मादा प्राणियों को विषय-रत होते दूर से भी देखे ।

                    हे यदुकूलनंदन ! शौच, आचमन, स्नान, संध्योपासना, सरलता, तीर्थसेवन, जप, अस्प्रश्य, अभक्ष्य और आवच्य का त्याग; समस्त प्राणियों में मुझे देखना तथा मन, वाणी और शरीर-संयम ये धर्म सभी आश्रमों के है । इस प्रकार नैष्ठीक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला अग्नि के समान तेजस्वी होता है । तीव्र तप के द्वारा उसकी कर्म-वासना दग्ध हो जाने के कारण चित निर्मल हो जाने से वह मेरा भक्त हो जाता है और अंत में मेरे परम पद को प्राप्त होता है |

                    यदि अपने इच्छित शास्त्रों का अध्ययन समाप्त कर चुकने पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा हो तो गुरु को दक्षिणा देकर उनकी अनुमति से स्नान आदि करे अर्थात समावर्तन-संस्कार करके ब्रह्मचर्य-आश्रम के उपरान्त ग्रहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे अथवा विरक्त हो तो संन्यास ले ले ।इस प्रकार एक आश्रम को छोड़कर अन्य आश्रम को अवश्य ग्रहण करे; मेरा भक्त होकर अन्यथा आचरण कभी न करे अर्थात निराश्रम रहकर स्वछंद व्यवहार में प्रवृत न हो |.... शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!