जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, जनवरी 31, 2013

सद्गुरु -6-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण,पन्चमी,गुरुवार, वि० स० २०६९

January 31, 2013, Friday

 

सद्गुरु शिष्य के द्वारा यदि कोई पूजन चाहता है तो वह यही चाहता है | इसके विपरीत शिष्य की आत्मिक उन्नति का कुछ भी ख्याल न रख जो मान,बड़ाई के भूखे रहते है, केवल अपने पैर पुजवाने, आरती उतरवाने में जिसको प्रसन्नता होती है,वे कदापि सद्गुरु नही है | विशेषकर जो गुरु के आसन पर बैठ कर धन और स्त्री की इच्छा करते है उनसे तो बहुत ही सावधान रहना चाहिये |

भागवत में कहा है की सत्पुरुष धन और स्त्रियो के संगियो का संग भी दूर से त्याग दे | इसके विपरीत, जो अपने को सत्पुरुष मानते है और कहलाते हुए भी कामिनी-कान्न्चन में आसक्त रहते है, उनको साधु मानना बहुत ही जोखिम का काम है | कुछ वर्ष पूर्व गोरखपुर में एक विद्वान सन्यासी आये थे, वे आठ साल से सदगुरु की खोज में थे | खेद की बात है भाग्यवश उन्हें आरम्भ में ही बहुत कटु अनुभव हो गए, जिससे वे उस समय भी शंकाशील बनगए थे  और ‘दूध का जला छाछ का भी फूकं-फूँक कर  पीता है’ इस कहावत के अनुसार वे हर जगह केवल संदेह करते  और श्रधा छोड़ कर केवल परीक्षा के लिए जाते थे जिससे उनको यथार्थ का मिलना एक प्रकार से कठिन सा हो गया था, यहाँ तक की दैवी सम्पति के गुणों को भी वे कुछ-कुछ अव्यवहारिक मानने लगे थे | तथापि वे यथार्थ में बहुत ही सच्चे, सद्गुणी साधु प्रतीत होते थे |
 

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नित्यलीलालीन श्रधेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवत्चर्चा, पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर

बुधवार, जनवरी 30, 2013

सदगुरु -5-


|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ कृष्ण,तृतीया ,बुधवार, वि० स० २०६९
          तो बाहर से अच्छे बने  हुए दम्भी चालाक आदमी जीवन भर दम्भ रचकर लोगो को धोखे में डाले रख सकता है; परन्तु यदि उसके पास रहने और उसकी बात मानने, सुनने से अपने अन्दर कोई बुरा भाव पैदा नहीं पैदा हो तो उससे इतना अनिष्ट नही हो सकता; यदपि उसके संग से भी गिरने का भय रहता है |

सन्मार्ग मिलना तो असम्भव-सा ही है, परन्तु यदि कोई मनुष्य सच्ची ईश्वर-प्राप्ति की लालसा से ऐसे मनुष्य के फंदे में फस जाये, जो दम्भी हो और जिसके आचरण बाहर से पवित्र हो और जिसके संग से प्रकाश्य में कोई बुराई  न उत्पन्न होती हो तो परमात्मा उस सच्चे  मनुष्य की तब तक रक्षा करता है, जबतक की वह आसक्ति  के वश होकर दम्भ में सम्मलित नहीं होता |

जो लोग अपनी पूजा करवाते है, पूजा करने को कहते है,पूजा करनेवाले को अच्छा और न करनेवालो को अच्छा और न करवाने वालो को बुरा समझते है,अपनी पूजा के ही उपदेश करते है, ‘गोविन्द से गुरु’ ‘राम से राम के दास’ बड़े का उदहारण देकर अपने को भगवान से बड़ा बतलाकर शिष्यों की भक्ति खरीदना चाहते है, उनसे अवश्य सावधान रहना उचित हैं |

सद्गुरु वास्तव में अपनी पूजा नही चाहते | अवश्य ही उनके उच्च चरित्र, महान त्याग और विलक्षण सद्गुणों को देख कर लोगो के मन में उनके प्रति स्वयमेव पूज्यभाव उत्पन्न होता है, उनकी पूजा या भक्ति साधन में सहायक होती है, शिष्य उनसे उपकृत होकर, उनके उपदेशो से और चरित्रानुकरण से विशुद्ध हृदय होकर कृतज्ञता से उनके चरणों में लुट पढने की इच्छा करता है, उन्हें भगवान कहकर पुकारता है, परन्तु वास्तव में सद्गुरु की यथार्थ पूजा बाहरी उपकरणों से कभी नही हो सकती, उनकी सच्ची पूजा उनके आज्ञापालन और त्याग, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण आदि से अनुकरण से होती है |          

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मंगलवार, जनवरी 29, 2013

सद्गुरु -4-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण, द्वितीया,मंगलवार, वि० स० २०६९

 
भगवान ने कहा है -

‘जिसके मन में मान-मोह नहीं है, जिन्होंने आसक्ति के दोष पर विजयी प्राप्त कर ली है, जो नित्य परमात्मा के स्वरुप में स्तिथ रहते है, जिनकी लोकिक-परलोकिक कामनाएँ भली-भाँती  नष्ट हो गयी है, जो सुख-दुःख नामक द्वन्दो से सर्वथा छूट गए है, ऐसे बुद्धिमान पुरुष ही उस परमपद को प्राप्त होते है |’ (गीता १५|४)      

‘जिनकी बुद्धि परमात्म रूप हो गयी है, जिनका मन परमात्मरूप है, जिनकी निष्ठा केवल परमात्मा में ही है, जो केवल परमात्मा के ही परायण है, ऐसे ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए पुरुष ही अपुनारावृतिरूप परमगति को प्राप्त होते है |’ (गीता ५|१७)

भगवान ने इसी प्रकार के तत्वदर्शी ज्ञानियो की शरण में जाकर प्रणिपात,सेवा और निष्कपट प्रश्नों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपदेश दिया है |

इसके विपरीत जो कुछ भी नहीं जानने पर भी ‘सब जाननेवाले’ बनने का दम भरते है, जो ‘सोने की चिड़िया’ फ़साने के लिए सदा-सर्वदा ही मिथ्या मधुर भाषण और व्यवहार का जाल बिछाये रखते है, जो पूजा करनेके लिए पैर फैलाते तनिक भी संकुचित नहीं होते, जो धन लेकर कान में मन्त्र में फूकते है और ईश्वर-प्राप्ति की गैरंटी देते है, ‘बहुत ऊचे आकाश में उड़ने पर भी बाज की द्रिष्टी सड़े मॉस पर होती है |’ इसी तरह जो बहुत ऊची-ऊची वेदान्त और भक्ति की बात बनाते रहने पर भी अपनी पैनी नजर भक्तो के धन पर रखते है | जो पाप-द्रिष्टी से शिष्य की माता, बहिन या स्त्री की और घूरते है, जो युवती शिष्याओ के कानो में मन्त्र देते, उनसे एकान्त में मिलते और उनसे पूजा करवाते, जो मारण, मोहन,उच्चाटन और वशीकरण बतलाते है, जो चमत्कार दिखलाते है, जो अपने विरुद्ध मतवादीओ और स्वार्थ में बाधा पहुचाने वालो को धमकाने, मारने या उनका अनिष्ट करने का आदेश देते है और जो सत्ता के लिए आचर्य का पद ग्रहण किये रहते है; ऐसे गुरुओ से तो यथासाध्य बचना ही चाहिये | ऐसे लोग गुरु के वेश में शिष्य और संसार को धोखा देने वाले प्राय पाखण्डी ही होते है,स्वयं नरकगामी होते है और अनुययियो के लिए नरक का पथ साफ़ करते है |                       

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सोमवार, जनवरी 28, 2013

सद्गुरु -3-


|| श्री हरि: ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २०६९

सन्यासियों  और गृहस्थों में आज भी अनेक अच्छे साधक और महात्मा हैं | सच्चे ऋषियों का आज भी अभाव नहीं है, परन्तु वे प्राय: अप्रकट रहते हैं | प्रकट रहनेवालो को पहचानना भी बड़ा कठिन होता है; क्योंकि उनका बाहरी वेष तो कोई विलक्षण होता नहीं, जिससे लोग कुछ अनुमान कर सके |

यह सब होते हुए भी श्रद्धा को मन में पूरा स्थान देते हुए भी, आजकल के समय में बहुत ही सावधानी के आवश्यकता है | आज अवतारों, जगत-गुरुओ, विश्वउपदेशको (वर्ल्ड टीचर्स), सदगुरुओ, ज्ञानियो, योगिराजो और भक्तों की आज देश में हाट लग रही है | ऐसे कई  व्यक्तिओ के नाम तो यह लेखक ही जानता है, जिनकी खुल्लमखुल्ला अवतार कहकर पूजा की जाती है और उसको स्वीकार करते है | पता नहीं ईश्वर के कितने अवतार एक साथ ही देश में कैसे हो गये? आश्चर्य तो यह है कि एक अवतार दुसरे अवतार को मानने के लिए तैयार ही नहीं है | ऐसी स्तिथी में ये अवतार वास्तव में क्या वस्तु है ? इस बात को प्रत्येक विचारशील पुरुष सोच सकते हैं | गुरु तो गाँव-गाँव और गली-गली में मिल सकते है, सब कुछ गुरुचरणों में अर्पण करने मात्र से ही ईश्वरप्राप्ति की गैरंटी देने वाले गुरुओ की कमी नहीं है; ऐसे हजारो नहीं, लाखों गुरु होंगे; परन्तु दुःख है कि इन गुरुओ की जमात से उद्धार शायद ही किसी का होता है |

सद्गुरु तो  वह है जो शिष्य के मन का अनन्त कोटिजन्म-संचित अज्ञान हरण करता है, जो शिष्यों को सन्मार्ग पर लगाता है , जो उसके हृदय में परमात्मा के प्रति सच्चे प्रेम के भावो का विकास करवा देता है | जो अपनी नही, परन्तु परमात्मा की सर्वव्यापी सर्वभूत स्थित परमात्मा की पूजा का पाठ पढ़ता है, जो शिष्य को यथार्थ में दैवी सम्पति के गुणों से विभूषित देखना चाहता है, जो निरन्तरइस प्रयत्न में लगा रहता है कि शिष्य किसी प्रकार से भी कुमार्ग में न जाने पावे , जो पद-पद पर उसे सावधान करता है और कुपथ्य से बचाता है, जो त्याग और सदाचार सिखाता है, जो निर्भय होकर विश्वरूप भगवान की सेवा करना बतलाता है, जो स्वयं अमानी होकर शिष्य को मान रहित होना और स्वयं काम,क्रोध,लोभ से छूटकर शिष्य को उनसे बचनासिखाता है एवं जो अपने बाहर भीतर के सभी आचरणों को ऐसा स्वाभाविक पवित्र रखता है, जिसका अनुकरण कर शिष्य का हृदय पवित्रतम  बन जाता है | वास्तव में ऐसा ही पुरुष परमात्मा को पा सकता है और दूसरो को भी परमात्मा की प्राप्ति के पथ पर आरूढ़ करवा सकता है |

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नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवच्चर्चा , पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर

रविवार, जनवरी 27, 2013

सद्गुरु -2-



|| श्री हरि: ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

पौष शुक्ल, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २०६९


इसमें सन्देह नहीं की यदि सद्गुरु प्राप्ति की अति-तीव्र इच्छा हो तो स्वयं परमात्मा सद्गुरु रूप से प्रगट होकर मुमुक्षु साधक को साधनपथ प्रदर्शित कर कृतार्थ कर सकते है | खोज मन से होनी चाहिये और होनी चाहिये केवल तत्वज्ञ पुरुष को प्राप्तकर स्वयं तत्व समझने के पवित्र उदेश्य से; परीक्षा या कौतूहल के लिए नहीं; क्योकि सच्चे संत न तो परीक्षा दिया करते है, न परीक्षा में उत्तीर्ण होकर जगत में मान प्रतिष्ठा  प्राप्त करने या प्रतिभाशाली व्यक्तिओ उन्हें शिष्य बनाने की इच्छा रखते है | जो श्रधा से उनकी शरण होता है, उसी के सामने वे उसके अधिकारनुसार रहस्य प्रगट किया करते है | गोपनीय रहस्य अतपस्क, अश्रद्धालु, तार्किक, दोषानवेषणकारी, नास्तिक और कौतूहल प्रिय मनुष्य के सम्मुख प्रगट करने में न तो कोई लाभ है और न साधु-सुधीजन प्रगट किया करते है | भगवान ने स्वयं श्रीमुख से अधिकार की मीमांसा कर दी है

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |

न चासुश्रवे वाच्यं न च मां योअभ्य्सूयति ||
       
‘यह जो परम गुप्त रहस्य तुझ अत्यन्त प्रिय मित्र को मैंने बतलाया है इसे तपरहित, भक्ति रहित, सूनना न चाहने वाले और मेरी (भगवान) की निन्दा करने वाले लोगो को भूल कर भी न बतलाना |’ इससे यह सिद्ध होता है की यथार्थ संत-महात्मा पुरुष अधिकारी की परीक्षा किये बिना गुह्य रहस्य प्रगट नहीं करते | अपने को साधारण मनुष्य बतला कर ही पिण्ड छुटा लिया करते है | लोग उन्हें असाधारण माने, यह तो उनकी चाह होती नहीं और असली बात बतलाने का वे अधिकारी पाते नहीं, इसलिए स्वयं अनजान-से बन जाते है और वास्तव यह सत्य ही है की ईश्वर का यथार्थ तथ्य ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा जानता भी कौन हैं ? अतएव तीव्र मुमुक्षा और श्रधा को साथ रखकर सद्गुरु की अन्वेषण करने से सद्गुरु की प्राप्ति अवश्य हो सकती, इसमें कोई सन्देह नहीं |

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नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवत्चर्चा, पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर

शनिवार, जनवरी 26, 2013

सद्गुरु -1-


|| श्री हरि: ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ  शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०६९


गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरु: साक्षातपरम्  ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ||


भारतीय साधना में गुरु-शरणागति सर्वप्रथम हैं | सद्गुरु की कृपा बिना साधना का यथार्थ रहस्य समझ में नहीं आ सकता |केवल शास्त्रों और तर्कों से लक्ष्य तक नहीं पंहुचा जा सकता | अनुभवी सद्गुरु साधनपथ के अन्तराय, उससे बचने के उपाय और साधन मार्ग का उपादेय पाथेय बतलाकर शिष्य को लक्ष्य तक अनायास ही पहुँचा देते है | इसलिये श्रुतियो से लेकर वर्तमान समय के संतो की वाणी तक सभी में एक स्वर से सद्गुरु की शरण में उपस्थित होकर अपने अधिकार के अनुसार उनसे उपदेश प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करने का आदेश दिया है | सभी संतो ने मुक्तकंठ से गुरु महिमा का गान किया है | यहाँ तक की गुरु और गोविन्द  दोनों के एक साथ मिलने पर पहले गुरु को ही प्रणाम करने की विधि बतलाई गयी है; क्योकि गुरु कृपा से ही गोविन्द के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है | गुरु की महिमा अवर्णनीय है | वे पुरुष धन्य हैं - बड़े ही सौभाग्यवान है जिन्हें सद्गुरु मिले और जिन्होंने अपना जीवन उनके आज्ञा पालन के लिए सहर्ष उत्सर्ग कर दिया |

वास्तव में यथार्थ पारमार्थिक साधन सद्गुरु की सन्निधि में ही संभव हैं | कृपालु गुरु के कर्णधार हुए बिना साधन-तरणी का विषय-समुद्र की नभोव्यापिनी उत्ताल-तरंगो से बच कर उस पार तक पहुच जाना नितान्त असम्भव है | इसलिये प्रत्येक साधक को सद्गुरु की खोज करनी चाहिये और ईश्वर से आर्तभाव से प्रार्थना करनी चाहिये की जिसमे इश्वरानुग्रह से सद्गुरु की प्राप्ति हो जाये; क्योकि वास्तविक संत-महात्मा भगवत्कृपा से ही प्राप्त होते है |

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नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवत्चर्चा, पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर

शुक्रवार, जनवरी 25, 2013

सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय -3-


॥ श्री हरि: ॥

आज की शुभ तिथि पंचांग
पौष शुक्ल, चतुर्दशी,शुक्रवार, वि० स० २०६९

भोगों की आस्था वाले जीव में तीन चीजे अवश्यमेव रहती है निरन्तर चित अशान्त रहता है और अशान्ति है तो सुख कहाँ ? अशान्तस्य कुत: सुखम (गीता २ | ६६)  | ऐसे ही दुःख भी रहता है और भोगों की आस्था मन में है तो पाप बने बिना नहीं रहेगा | जहाँ-जहाँ भोगो पर विश्वास है,वहा-वहाँ अशान्ति और दुःख है ही | फिर वहाँ किसी-न-किसी रूप में थोडा-बहुत पाप बनता ही है | यह हम सबके जीवन का अनुभव है |

भोगो पर आस्था, भोग पर विश्वास और भोगो में आसक्ति यदि है तो अशान्ति, दुःख और पाप ये तीन चीजे उसे मिलेंगी और आगे जाकर इसका फल होगा :-
नरकेअनियतं  वास:’ (गीता १|४४),
प्रसक्ता: काम भोगेषु पतन्ति नरकेसुचो’ (गीता १६ |२६)
जो काम और भोगो में आसक्त है, वे अशुचि नरकों में गिरेंगे | यह जीवन का परिणाम है | यह नहीं चाहिये तो भगवान् में आस्था करो | भगवान् पर विश्वास करो | शरणागत हो जाओ, तब तुरंत अशान्ति मिट जायेगी | तुरंत दुःख मिट जायेंगे और जीवन में पाप होगा ही नही | सब भगवान् की सेवा होगी | यहाँ सुख से रहे, शान्ति से रहे, निष्पाप रहे और उसका फल होगा भगवान् के चरणों की प्राप्ति | मुक्ति की प्राप्ति, भोग की प्राप्ति, भगवान् के दिव्यलोक की प्राप्ति, उनकी सेवा की प्राप्ति, कुछ भी नाम दे | यह दोनों चीजे हमारे सामने है और ये दोनों चीजे हम मानव-देह में कर सकते है | उसे करने की शक्ति भगवान् ने हमे दी है | अब अपना विचार, अपनी रुचि, अपनी इच्छा, अपना ज्ञान काम आता है | इसलिए जिसको जो रुचिकर हो, वैसा ही करे |         

 श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, कल्याण अंक,वर्ष ८६,संख्या १०,पृष्ट  संख्या ९४०  ,गीताप्रेस, गोरखपुर

गुरुवार, जनवरी 24, 2013

सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय -2-


।। श्री हरि: ।।

आज की शुभ तिथि पंचांग
 पौष शुक्ल, त्रयोदशी,वीरवार, वि० स० २०६९


भगवान ही कालस्वरुप है, अनादी है । जब सृष्टी का सृजन होता है तो पहले भगवान काल का स्मरण करते है । एकोअहम बहु स्यामकाल भगवान का स्वरुप है और यह निरन्तर चलता है । सब चीजें रुक जायेंगीं, लेकिन काल नहीं रूकेगा । समय व्यतीत होना बंद नहीं होगा । ये काल देवता रुकेंगे नहीं । मौत आ ही जायेगी ।चाहे हम रोते रहे या हँसते रहे । चाहे अपने मन में कलपते रहे, चाहे मन में संतोष करके रहे । काल तो मानेगा नहीं और मृत्यु आ जाएगी । मृत्यु आई कि यहाँ का सब समाप्त हो जायेगा ।

हम पहले कहीं तो थे । किसी-न-किसी जगह हम पहले थे । चाहे कुत्ता,बिल्ली हों, चाहे देवता हों, आदमी हों,वहाँ हमारा परिवार होगा ही । हमे क्या आज उसकी चिन्ता है ? आज उसका स्मरण करते है क्या ? यदि कोई बता दे कि पहले तुम्हारा वह परिवार था, तब कहेंगे रहा होगा । अब तो यह है ।यही हाल यहाँ भी होगा । यहाँ से जब मर जायेंगे तो जैसे उसको भूल गये, वैसे ही इसको भी भूल जायेंगे । सम्बन्ध टूट जायेगा । इसलिये यहाँ से सम्बन्ध पहले से तोड़ कर भगवान से जोड़ ले और भगवान के नाते इसकी सेवा करे । सेवा करने में आपत्ति नहीं है, परन्तु भोगों में आस्था करके, भोगो में विश्वास करके, भोगों की प्राप्ति में सुख-दुःख की कल्पना करके हम रहेंगे तो जीवन में तीन चीजे मिलेंगी अशान्ति, दुःख और पाप ।

 शेष अगले ब्लॉग में...

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....  

नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, कल्याण अंक,वर्ष ८६,संख्या १०,पृष्ट संख्या ९३९ ,गीताप्रेस, गोरखपुर