जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2013

उन्नति का स्वरुप -7-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से आगे.....जिस यूरोपकी उन्नति पर हम मोहित है, उसकी उन्नति के परिणाम में एक तो धन-जन और शान्ति-सुख का ध्वंशकारी महायुद्ध हो गया और दुसरेकी अन्दर-ही-अन्दर तैयारी हो रही है | पता नहीं, यह अन्दर का भयानक बिस्फोटक कब फूट उठे | विज्ञान में उन्नत जगत का वैज्ञानिक अविष्कार गरीबो का सर्वस्व नाश करने और अल्पकाल में ही बहुसंख्यक मनुष्यों की हत्या करने का प्रधान साधन बन रहा है | पेट्रीट्रयोजीम और देशप्रेम-पर-देशदलन का नामान्तरमात्ररह गया है | राष्ट्रसेवा पर-राष्ट्रके अहितचिंतन और संहारके रूप में बदल गयी है, उन्नति के मिथ्या मोह-पाश में आबद्ध मनुष्य आज रक्तपिपासु हिसंक पशु के भाँती एक-दुसरे को खा डालने के लिए कमर कसे तैयार है ! एक पाश्चात्य सज्जन से बड़े मार्मिक शब्दों में आज की उन्नत सभ्यता का दिग्दर्शन कराया है | वह कहते है

“To be dignified is the glory of civilization, to suppress natural laughter, and smile instead, is grand; to Put the best side out and to conceal the natural; to pretend to be greater or better than we are; to think more of our looks, walk, manners, clothing and the wealth. We have robbed the poor of- this is civilization.

To turn away from one poorly clad, not deigning an answer to a civil question; to look coldly in the eye of a stranger, without speaking when accosted because you have not been introduced, this is dignity, this is fashionable; to murder each other without enmity- this is to be civilized.

The earth is drenched with human gore and her fair fields are rich with the bone dust of humanity. The glory of one nation is the destruction of another.” ..शेष अगले ब्लॉग में   
     
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, फ़रवरी 27, 2013

उन्नति का स्वरुप -6-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, द्वितीया, बुधवार, वि० स० २०६९



गत ब्लॉग से आगे....
.कुछ समय पूर्व डॉ० जान माट नामक अमेरिकन सज्जन मैसूर में होने वाले विश्व-छात्र-फेडरेशनके सभापति बनकर अमेरिका से भारत में आये थे | उन्होंने महात्मा गाँधीजी से विभिन्न विषयों पर बात कीं | बातचीत के प्रसंगमें ही महात्मा जी ने कहा की मैं ईश्वरप्रार्थना करने को कहूँगा |’ इस पर डॉ० माट ने पूछा -

यदि इससे उनको लाभ नही पंहुचा अर्थात उनकी प्रार्थना नहीं सुनी गयी तो ?’

म०- तब वह उनकी प्रार्थना ही नहीं कही जाएगी | वह तो उनकी मौखिक प्रार्थना हुई, प्रार्थना तो वह है जिसका असर हो |

डॉ०- हमारे युवकोंके साथ यही तो कठिनाई है, विज्ञान और दर्शनशास्त्र की शिक्षाओ ने उनकी सारी धारणाओं को नष्ट कर दिया है |

म०-  यह तो इसी कारण है की वे विश्वाश को बुद्धि की चेष्टा समझते है, आत्मा का अनुभव नहीं | बुद्धि हमलोगों को जीवनक्षेत्रमें कुछ दूर तक ले जा सकती है, परन्तु अन्त में वह मौके पर धोखा दे देती है | विश्वाश के कारणों की उत्पत्ति होती है | जिस समय हम चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार दिखायी पड़ता है एवं हमारी बुद्धि बेकाम हो जाती है, उस समय विश्वास ही हमारी रक्षा को आता है | यही वह विश्वास है, जिसकी हमारे नवयुवकों को आवश्यकता है और यह तभी प्राप्त होता है जब की बुद्धि के गर्व को बिलकुल चूरकर ईश्वर की इच्छाओ पर अपने को पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय |

पूज्य महात्माजी का यह कथन अक्षरश: सत्य और सदा स्मरण रखने योग्य है | मौके-बेमौके बुद्धि के बेकाम हो जाने पर ईश्वरीय विश्वास ही रक्षक होता है | ईश्वरीय विश्वास के बल से रक्षित पुरुष ही ऐसी बात कह सकता है | परन्तु आजके इस उन्नतिशील जगत की स्थिति क्या है ? जो लोग आज अपने को उन्नत या उन्नति-पथारूढ़ समझते है , उनके हृदयमें यथार्थ में क्या बात है ? अपने-अपने हृदयको टटोलकर देखिये | खेद है ईश्वर को मानना तो दूर, आज के उन्नत मानवों का हृदय तो मोह से इतना अभिभूत हो गया है की अपनी उन्नति-अवनति के यथार्थ स्वरुप को समझने की भी शक्ति प्राय: जाती रही है | बुद्धि सूक्ष्म होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी की अब तक उसका पता नहीं लगता | इसी से राग-द्वेष के विषैले भावो से प्रेरित होकर आज का मनुष्य-समाज परस्पर ध्वंशात्मक चेष्टा और क्रिया कर रहा है तथा उसी में अपनी उन्नति मान रहा है |..शेष अगले ब्लॉग में    

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, फ़रवरी 26, 2013

उन्नति का स्वरुप -5-


श्रीहरिः ॥
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०६९


गत ब्लॉग से आगे.....
एक सज्जन ने बहुत विद्याअध्ययन किया, शास्त्रों की खूब आलोचना की, धड़ा-धड़ परीक्षायें पास की, नाम के साथ उपाधियों के बहुत से अक्षर जुड़ गए, शास्त्रार्थो में बड़े-बड़े प्रसिद्ध पण्डितोंको परास्त किया, व्याखानोंसे आकाश गूंजा दिया, परन्तु विद्या का और विद्वान होनेपर प्रतिष्ठा का अभिमान बढ़ गया, अनेक प्रकार से तर्कजालो में फसकर उसका मन श्रद्धा और विश्वास से हीन हो गया | परमात्मा की कोई परवा नहीं, तर्क और पांडित्य से परमात्माकी सिद्धि-असिद्धि करने लगा | शास्त्र उसके मनोविनोद की सामग्री बन गए | ईश्वर की दिल्लगी उड़ाने लगा और पूरा यथेच्छारी बन गया | दूसरी और एक अशिक्षित ग्रामीण है, उसने एक भी परीक्षा पास नहीं की, उसके नाम से भी लोग अपरिचित है, अच्छी तरह बोलना भी नहीं जानता, परन्तु जिसका सरल हृदय विश्वास और श्रधा से भरा है, जो नम्रता से सबका सत्कार करता है, प्रेमपूर्वक परमात्मा का नाम स्मरण करता है, ईश्वर को जगत का नियन्ता समझकर पाप करने में डरता है, और परम सुहृदय तथा परम पिता समझकर प्रेम तथा भक्ति करता है, परम दयालु समझ कर अपने को उनका दासानुदास समझता है | प्रेम से कभी हँसता है, कभी रोता है और आनन्द से चुपचाप अपना शान्त जीवन बिताता है | बतलाइये, इनदोनों में किसकी उन्नति हो रही है ?

जो लोग अपनी राग-द्वेषयुक्त क्षुद्र अनिश्चयात्मका बुद्धि की कसौटीपर ईश्वर के स्वरुप को कसना चाहते है, उन्हें ईश्वर में कभी विश्वास नहीं हो सकता | जो बुद्धि राग-द्वेष से दूषित है, काम-क्रोध का आगार बनी हुई है, शरीर को ही आत्मा समझती है, उस बुद्धि के निर्णयके अनुसार ईश्वर को चलाने की कामना करना और उसी निर्णय में ईश्वर का इश्वरत्व या अईश्वरत्व सिद्ध करने जाना कितना बड़ा अज्ञान है? यह स्मरण रखना चाहिये कि सरल विश्वास और श्रद्धा विना ईश्वरीय ज्ञान कभी नहीं हो सकता  |
....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, फ़रवरी 25, 2013

उन्नति का स्वरुप -4-


|| श्रीहरिः ||
                        आज की शुभ तिथि-पंचांग
              माघ शुक्ल पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २०६९
                            

गत ब्लॉग से आगे.....
एक बड़े उच्च वर्ण का मनुष्य है, रोज घंटो नहाता है,शरीर को खूब मल-मल कर धोता है, तिलक और दिखावटी पूजा में घंटो बिता देता है, किसी को कभी स्पर्श नहीं करता, बड़ा नामी धर्मात्मा  कहलाता है, परन्तु अपने वर्ण या जाति के अभिमानवश राग-द्वेष से प्रेरित होकर दूसरे अपने-ही-जैसे मनुष्य से घृणा करता है, उसे बुरा-भला कहता हैं, सबको अपने से नीचा समझता  है | परमपिता परमात्मा की दूसरी सन्तान से द्रोह कर परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन करता है और जिसके मन में ढोंग समाया हुआ है | दूसरी और एक नीच वर्ण का मनुष्य है, परन्तु उसका हृदय भगवद्भक्ति से भरा है, वह बड़े प्रेम से रामनाम लेता है | अपना सब कुछ भगवान का समझता है, कभी किसी की बुराई नहीं करता और अपने को सबसे नीचा समझकर सबकी सेवा करना ही अपना धर्म समझता | बतलाइये, इनमे कौन यतार्थ उन्नति कर रहा है ?

एक मनुष्य जिसे कोई बड़ा अधिकार प्राप्त है, सैकड़ो मनुष्य जिससे सलामी भरते है, हजारो जिससे कांपते है और जी हुजुर’ ‘जी सरकारके नाम से संबोधन करते है; पर जो राग-द्वेषवश अपने अधिकार का दुरूपयोग करता है, स्वार्थवश अन्याय करता है, न्याय-अन्याय का विचार त्यागकर मनमानी करता है और पद-गौरवमें पागल होकर हर किसी का आपमान कर बैठता है | दूसरी और एक मनुष्य जिसको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, जो बात-बात में दुत्कारा जाता है पर जिसका मन स्वच्छ सलिल की भाँती निर्मल है, जिसके हृदय में हिंसा-द्वेष को स्थान नहीं है, जो ईश्वर की भक्ति करता है और उससे सबका भला मानता है | बतलाइये, इनमे कौन सा उन्नति का पथिक है? ....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

उन्नति का स्वरुप -3-


|| श्रीहरिः ||
                            आज की शुभतिथि-पंचांग
                 माघ शुक्ल चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २०६९
                                         
गत ब्लॉग से आगे.....
एक मनुष्य बड़ा ईश्वरभक्त या देश भक्त कहलाता है, स्थान-स्थान में उपदेश देता फिरता है, आचार्य या नेताकी हैसीयत से सर्वत्र पूजा जाता है, जगह-जगह मान या मानपत्र प्राप्त करता है, हजारों-लाखों नर-नारी उसके दर्शन करने और भाषण सुनने को लालायित रहते है, पर यह सब कुछ वह राग-द्वेष से प्रेरित मान प्राप्त करने या धन कमाने के लिए कर रहा है | अपनी भडकीली वक्तृताओ से अल्पबुद्धि और अनुभवरहित लोगो को उतेजित और पथभ्रष्ट कर उनको इस लोक और परलोक में दु:खी बना देता है | दूसरी और एक सीधा-सादा ईश्वरभक्त व्यक्ति है, जिसको कोई पूछता-जानता भी नहीं, जो चुप-चाप अपने भगवान के सामने रोता है | जो अपने सामर्थ्यानुसार चुपचाप शरीर, मन, वाणी से, रोटीके एक सूखे टुकड़ेसे, चूलू भर पानीसे, बीमारी की हालत में सेवा से, सद्-व्यवहारसे और सच्चे सन्मार्गकी शिक्षा से जनता की सेवा करता है या एकान्त में बैठ कर, जनता की आँखों से ओझल होकर चुपचाप भगवद्भजन ही करता है | बतलाइये इन दोनों में कौन उन्नत है ?

एक तंदरुस्त आदमी रोज अखाड़े में जाकर कुश्ती लड़ता है | बात-की-बात में चाहे जिसे पछाड़ देता है, इसलिए बल संग्रह करता है की वह राग-द्वेष वश जिनको अपना शत्रु समझता है, उन्हें पछाड़ सके | अपने शरीर-बल के अभिमान से किसी को कुछ समझता ही नहीं, शक्ति के बलपर दूसरो के मन में भय उत्पन्न करने और भोग-भोगने में ही लगा रहता है | दूसरी और एक कोढ़ी मनुष्य है, शरीर अत्यन्त अशक्त हो रहा है, लोग उससे घृणा करते हैं, परन्तु उसका अन्त:करण प्रेम से पूर्ण है, वह सदा सर्वदा सबका हित चाहता है, किसी से द्वेष नहीं करता, जो कुछ मिल जाता है, उसे ही खाकर एक कोने में पड़ा ईश्वर का स्मरण करता रहता है | बतलाइये, इन दोनों में आप किसको उन्नति के पथ पर आरूढ़ समझते है ? ....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!