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सत्संग के बिखरे मोती

सत्संग के बिखरे मोती

सत्संग के बिखरे मोती

सत्संग के बिखरे मोती

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,

षोडश गीत

(१३) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग वागेश्री-तीन ताल) राधे ! तू ही चित्तरंजनी, तू ही चेतनता मेरी। तू ही नित्य आत्मा मेरी, मैं हूँ बस, आत्मा तेरी॥ तेरे जीवनसे जीवन है, तेरे प्राणोंसे हैं प्राण। तू ही मन, मति, चक्षु, कर्ण, त्वक्‌, रसना, तू ही इन्द्रिय-घ्राण॥ तू ही स्थूल-सूक्ष्म इन्द्रियके विषय सभी मेरे सुखरूप। तू ही मैं, मैं ही तू बस, तेरा-मेरा सबन्ध अनूप॥ तेरे बिना न मैं हूँ, मेरे बिना न तू रखती अस्तित्व। अविनाभाव विलक्षण यह सबन्ध, यही बस, जीवन-तत्त्व॥                                        (१४) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग वागेश्री-तीन ताल) तुम अनन्त सौन्दर्य-सुधा-निधि, तुममें सब माधुर्य अनन्त। तुम अनन्त ऐश्वर्य-महोदधि, तुममें सब शुचि शौर्य अनन्त॥ सकल दिव्य सद्‌गुण-सागर तुम लहराते सब ओर अनन्त। सकल दिव्य रस-निधि तुम अनुपम, पूर्ण रसिक, रसरूप अनन्त॥ इस प्रकार जो सभी गुणोंमें, रसमें अमित असीम अपार। नहीं किसी गुण-रसकी उसे अपेक्षा कुछ भी किसी प्रकार॥ फिर मैं तो गुणरहित सर्वथा, कुत्सित-गति, सब भाँति गँवार। सुन्दरता-मधुरत