जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शुक्रवार, दिसंबर 15, 2017

पदरत्नाकर

[ ४६ ]
तर्ज लावनीताल कहरवा

शुद्ध सच्चिदानन्द सनातन नित्यमुक्त जो परम स्वतन्त्र।
कर बन्धन स्वीकार उदरमें, हुए यशोदाके परतन्त्र॥
जिनके अतुल स्वरूप-सिन्धुके बिन्दु-बिन्दुमें विश्व अपार।
डूबे रहते नित्य, लाँघकर उसे कौन जा सकता पार ?
कभी नहीं हो सकता जिन असीमकी सीमाका निर्देश।
नित्य अनन्त पूर्ण चिदघनका नहीं प्राप्त हो सकता शेष॥
काम-क्रोध-लोभ-भय-क्रन्दन-बन्धनको वे कर स्वीकार।
दिब्य बना देते इनको, कर निज स्वरूपमें अङ्गीकार॥
नहीं कल्पना, नहीं भावना-माया-नाट्य, न दम्भ अनित्य।
है यह रसमयका शुचि पावन प्रेम-रस-सुधास्वादन सत्य॥
शुद्ध प्रेम-परवश हरिमें नित रहते साथ विरोधी धर्म।
इसीलिये होते उनके सब विस्मयभरे विलक्षण कर्म॥
ज्ञानी-मुक्त, सिद्ध-योगीकोई भी थाह नहीं पाते।
श्याम-रूप-संदोह-महोदधिमें वे सहज डूब जाते॥
मधुर दिव्य इस भगवद्‍-रसका वही परम रस ले पाते।
केवल प्रेमपूर्ण सर्वार्पण कर जो उनके हो पाते॥
इसीलिये सर्वार्पित-जीवन महाभाग वे गोपी-ग्वाल।
दिव्य रस-सुधास्वादन करते रहते हैं दुर्लभ सब काल॥
नहीं छोड़कर जाते व्रजको कभी रसिकवर वे नँदलाल।
निज-जन सबको सुख देते वे, करते रहते नित्य निहाल॥
उन प्रेमीजनके पवित्र पद-रज-कणको है अमित प्रणाम।

जिनके प्रेमाधीन हुए हरि करते लीला मधुर ललाम॥


-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार 


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