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सौन्दर्य-लालसा 2

सौन्दर्य-लालसा 2 नेत्रों की ही क्यों- प्रत्येक इन्द्रिय की दर्शन-स्पृहा बढ़ रही है। सभी अंग उनके मधुर मिलन की उत्कट आकांक्षा से आतुर हैं। बार-बार मिलने पर भी वियोग की-विरह की ही अनुभूति होती है। वे फिर कहती हैं- नदज्जलदनिःस्वनः श्रवणकर्षिसत्सिजिंतः सनर्मरससूचकाक्षरपदार्थभंगयुक्तिकः। रमादिकवरागनाहृदयहारिवंशीकलः स मे मदनमोहनः सखि तनोति कर्णस्पृहाम् ।।   ‘सखि! जिनकी कण्ठध्वनि मेघ-गर्जन के सदृश सुगम्भीर है , जिनके आभूषणों की मधुर झनकार कानों को आकर्षित करती है , जिनके परिहास-वचनों में विविध भावभगिमाओं का उदय होता रहता है और जिनकी मुरलीध्वनि के द्वारा लक्ष्मी आदि देवियों का हृदय-हरण होता रहता है , वे मदनमोहन मेरे कानों की श्रवणस्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’   कुरंगमदजिद्वपुःपरिमलोर्मिकृष्टांबनः स्वकांगनलिनाष्टके शशियूताब्जगन्धप्रथः। मदेन्दुवरचन्दनागुरुसुगन्धिचर्चार्चितः स मे मदनमोहनः सखि तनोति नासास्पृहाम्।। ‘ सखि! जिनके मृगमदविजयी श्री अंग की सौरभतरंगों से अंगनाएँ वशीभूत हो जाती हैं , जो अपने देहस्थित अष्टकमल (दो चरणकमल , दो करकमल , दो नेत्रकमल , एक नाभिकमल और ए