नामसे प्रारब्धकर्म-नाश नात: परं कर्मनिबन्धकृन्तनं मुमुक्षतां तीर्थपदानुकीर्तनात्। न यत् पुनः कर्मसु सज्जते मनो रजस्तमोभ्यां कलिलं ततोऽन्यथा॥ ( श्रीमद्भागवत) ' जो लोग इस संसार-बन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं , उनके लिय तीर्थपाद भगवान् के नामसे बढकर और कोई साधन ऐसा नहीं है , जो कर्मबन्धनकी जड़ काट सके ; क्योंकि नामका आश्रय लेनेसे से मनुष्य का मन फिर सकाम कर्मों में आसक्त नहीं होता। भगवन्नामके अतिरिक्त दूसरे किसी प्रायश्चित का आश्रय लेनेपर मन रजोगुण और तमोगुण से ग्रस्त ही रहता है तथा उसके पापोंका भी पूर्णत: नाश नहीं हो पाता। ' यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः पतन् स्मरन् वा विवशो गृणन् पुमान्। विमुक्त कर्मार्गल उत्तमां गति प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः॥ ( श्रीमद्भागवत) ' मरणोन्मुख रोगी तथा गिरता या किसीका स्मरण करता हुआ मनुष्य विवश होकर भी जिन भगवान् नामका उच्चारण करके कर्मो की साँकल से छुटकारा पा उत्तम गतिको प्राप्त कर लेता है , उन्हीं भगवान् का कलियुग के मनुष्य पूजा नहीं करेंगे (यह कितने कष्टकी बात है)। ' नाम से मुक्ति और परमधामकी प्
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