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श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी  १५३ (राग भैरव-ताल कहरवा) श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ और अष्टस्न्दल कमल सुमन-समूह, मनोहर सौरभ मधु प्रवाह सुषमा-संयुक्त।  नव-पल्लव-विनम्र सुन्दर वृक्षावलिकी शोभासे युक्त॥  नव-प्रड्डुल्ल मजरी, ललित वल्लरियोंसे आवृत, द्युतिमान।  परम रय, शिव सुन्दर श्रीबृन्दावनका यों करिये ध्यान॥  उसमें सदा कर रहे चचल चचरीक मधुमय गुजार।  बढ़ी और भी, विकसित सुमनोंका मधु पीनेको झनकार॥  कोकिल-शुक-सारिका आदि खग नित्य कर रहे सुमधुर गान।  मा मयूर नृत्यरत, यों श्रीबृन्दावनका करिये ध्यान॥  यमुनाकी चचल लहरोंके जल-कणसे शीतल सुख-धाम।  ड्डुल्ल कमल-केसर-परागसे रजित धूसर वायु ललाम॥  प्रेममयी ब्रज-सुन्दरियोंके चचल करता चारु वसन।  नित्य-निरन्तर करता रहता श्रीबृन्दावनका सेवन॥  कल्पवृक्ष उस अरण्यमें सर्वकामप्रद एक कल्पतरु शोभाधाम।  नव पल्लव प्रवाल-सम अरुणिम, पत्र नीलमणि-सदृश ललाम॥  कलिका मुक्ता, प्रभा, पुज-सी पद्मराग-से फल सुमहान।  सब ऋतु‌एँ सेवा करतीं नित परम धन्य अपनेको मान॥  सुधा-बिन्दु-वर्षी उस पादपके नीचे वेदी सुन्दर।  स्वर्णमयी, उद्भासित जैसे दिनकर उदित मेरु-गिरिपर॥  मणि-निर्मित जगमग अति प्रा

नाथ मैं थारो जी थारो। (पद-रत्नाकर, पद-१३०)

नाथ मैं थारो जी थारो। चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थाँरो॥ बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो, थे ही मनै सुधारो। सुधरयो तो प्रभु सुधरयो थाँरो, थाँ सूँ कदे न न्यारो॥ बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ , आखर टाबर थाँरो। बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगङ्सी थाँरो ॥ थाँरो हूँ, थाँरो ही बाजूँ, रहस्यूँ थाँरो, थाँरो !!! आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥ मेरी बात जाय तो जाओ, सोच नहीं कछु न्हाँरो। मेरो बङो सोच योंं लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥ जचे जिस तराँ करू नाथ ! अब, मारो चाहै त्यारो। जाँघ उखाङयाँ लाज मारोगा, ऊँडी बात बिचरो॥ (पद-रत्नाकर, पद-१३०)

सेवा का महत्व

सेवा के बदले में मरने के बाद भी कीर्ति न चाहो। तुम्हें लोग भूल जायँ इसीमें अपना कल्याण समझो। काम अच्छा तुम करो, कीर्ति दूसरेको लेने दो। बुरा काम भूलकर भी न करो, परन्तु तुमपर उसका आरोप लगाकर दूसरा उससे मुक्त होता हो तो उसे सिर चढ़ा लो। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तुम्हारा वह सुखदायी मनचाहा अपमान तुम्हारे किये मुक्तिका दरवाजा खोल देगा।  (कल्याण-कुञ्ज-भाग-1-पेज-103)

आते हो तुम बार-बार प्रभु!!!!!!

(राग जैतकल्याण-ताल मूल) आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार। कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥ मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार। पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥ ’खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार। फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥ फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार। पर करुणामय ! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥ दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार। नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥ अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार। प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥

दो‌उ चकोर, दो‌उ चंद्रमा....... (shodash geet)

(दोहा) दो‌उ चकोर, दो‌उ चंद्रमा, दो‌उ अलि, पंकज दो‌उ। दो‌उ चातक, दो‌उ मेघ प्रिय, दो‌उ मछरी, जल दो‌उ॥ आस्रय-‌आलंबन दो‌उ, बिषयालंबन दो‌उ। प्रेमी-प्रेमास्पद दो‌उ, तत्सुख-सुखिया दो‌उ॥ लीला-‌आस्वादन-निरत, महाभाव-रसराज। बितरत रस दो‌उ दुहुन कौं, रचि बिचित्र सुठि साज॥ सहित बिरोधी धर्म-गुन जुगपत नित्य अनंत। बचनातीत अचिन्त्य अति, सुषमामय श्रीमंत॥ श्रीराधा-माधव-चरन बंदौं बारंबार। एक तव दो तनु धरें, नित-रस-पाराबार॥

प्रार्थनामें श्रद्धा-विश्वास

प्रार्थनामें श्रद्धा-विश्वास तो है ही,इनके बिना तो प्रार्थना होती ही नहीं,पर दो बातोंकी और आवश्यकता है-पहली इतना आर्तभाव,जो भगवान्‌ को द्रवित कर दे और दूसरी, भगवान्‌ की कृपालुतामें ऐसा परम विश्वास-कि प्रार्थना करनेमात्रकी देर है,प्रार्थना करते ही वह कृपालु माँ मुझे अपनी सुखद गोदमें ले ही लेगी।

(प्रभु को आत्मसमपण पेज-११ गीतावाटिका प्रकाशन)

  साध्कोंके लिये एक बहुत उत्तम उपाय है पमेश्वर के सामने आर्त होकर दीनभाव से हदय खोलकर रोना,यह साधन एकान्त में करने का है।सबके सामने करने से लोगों में उद्वेग होने और साधना के दम्भ रुप में परिणत हो जाने कि सम्भवना है। (प्रभु  को आत्मसमपण पेज-११ गीतावाटिका प्रकाशन)

साधकों के पत्र- page 78

भगवान् के स्वभावको देखकर सदा समुल्लसित पूर्ण आशान्वित,प्रसन्न रहना चाहिये।चाह, रुचि,स्पृहा, इच्छा, सब उनकी इच्छा में समा जायें। उनके मनकी होते देखकर चित्त सदा आन्नद सागरकी लहरें बना रहे। यही उनके दुर्लभ प्रेमप्राप्ति का परम श्रेष्ठ उपाय है।