(राग जैतकल्याण-ताल मूल)
आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
’खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥
आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
’खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥
टिप्पणियाँ