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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रार्थना

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, द्वादशी, गुरूवार, वि० स० २०७० प्रार्थना        हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो । तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ।।   तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो । यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ।।   हम महामूढ़   अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे । नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ।।   सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे ।   सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ।।   तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है । है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ।।   हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है । अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ।।   इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा । फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ।।   हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा । हमको निज चरणों का न

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, एकादशी, बुधवार, वि० स० २०७०          माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो , रख लो संग। ( राग जंगला-ताल कहरवा) माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो , रख लो संग। खूअ रिझान्नँगी मैं तुमको , रचकर नये-नये नित ढंग॥ नाचूँगी , गाऊं गी , मैं फिर खूब मचान्नँगी हुड़दंग। खूब हँसान्नँगी हँस-हँस मैं , दिखा-दिखा नित तूतन रंग॥ धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजान्नँगी सब अङङ्ग- मधुर तुम्हारे , देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥ सेवा सदा करूँगी मनकी , भर मनमें उत्साह-‌उमंग। आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्टस्न-कल्पना भङङ्गस्न॥ तुम्हें पिलान्नँगी मीठा रस , स्वयं रहँूगी सदा असङङ्गस्न। तुमसे किसी वस्तु लेनेका , आयेगा न कदापि प्रसङङ्गस्न॥ प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें , उठती रहें अनन्त तरंग। इसके सिवा माँगकर कुछ भी , कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥ माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो , रख लो संग। खूअ रिझान्नँगी मैं तुमको , रचकर नये-नये नित ढंग॥ — श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी , पद-रत्नाकर पुस्

वर्णाश्रम धर्म -१०-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, दशमी, मंगलवार, वि० स० २०७० जिज्ञासु के कर्तव्य एवं सबके धर्म                          गत ब्लॉग से आगे …(अब तक सिद्ध ज्ञानी के धर्म कहे, अब जिज्ञासु के कर्तव्य बताते है ) जिस विचारवान को इन अत्यन्त दुखमय विषय-वासनाओं से वैराग्य हो गया है और मेरें भागवत-धर्मों से जो अनभिग्य है, वह किन्ही ‘विरक्त’ मुनिवर को गुरु जानकर वह   अति आदरपूर्वक भक्ति और श्रद्धा से तबतक उनकी सेवा-श्रुश्नामें लगा रहे जबतक की उसको ब्रह्मज्ञान न हो जाए ; तथा उनकी कभी किसी से निंदा न करे । जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-इन छ: शत्रुओं को नहीं जीता, जिसके इन्द्रिय रुपी घोड़े अति प्रचंड हो रहे है, तथा जो ज्ञान और वैराग्य से शून्य है, तथापि दण्ड-कमण्डलु से पेट पालता है, वह   यति धर्म का घातक है और अपनी इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को, अपने को और अपने अंत:करण में स्थित मुझको ठगता है; वासना के वशीभूत हुआ वह इस लोक और परलोक दोनों और से मारा जाता है | सबके धर्म                        शान्ति और अहिंसा यति (सन्यासी) के मुख्य धर्म है,

वर्णाश्रम धर्म -९-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७० सन्यासी के धर्म                 गत ब्लॉग से आगे … जो ज्ञाननिष्ठ विरक्त हो अथवा मेरा अहेतुक (निष्काम) भक्त हो, वह आश्रमादी को उनके चिन्होंसहित छोड़कर वेद-शास्त्रों के विधि-निषेध के बंधन से मुक्त होकर स्वछंद विचरे । वह अति बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान क्रीडा करे, अति निपुण होकर भी जड़वत रहे, विद्वान होकर भी उन्मत (पागल) के समान बात-चीत करे और सब प्रकार शास्त्र-विधि को जानकर भी पशु-वृति से रहे । उसे चाहिये की वेद-विहित कर्मकाण्डादि में प्रवृत न हो और उसके विरुद्ध होकर पाखण्ड अथवा स्वेछाचार में भी न लग जाये तथा व्यर्थ के वाद-विवाद में पड़कर कोई पक्ष   न ले बैठे । वह धीर पुरुष अन्य लोगों से उदिग्न न हो और न औरों को ही अपने में उदिग्न न होने दे; निन्दा आदि को सहन करके कभी चित में बुरा न माने और इस शरीर के लिए पशुओं के समान किसी से वैर न करे ।                                एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित है; जैसे एक ही चन्द्रमा के भिन्न-भिन्न जलपात्रों में अनेक प्रतिबिंब

वर्णाश्रम धर्म -८-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, रविवार, वि० स० २०७० सन्यासी के धर्म                     गत ब्लॉग से आगे ... सन्यासी को यदि वस्त्र धारण करने की आवश्यकता हो तो एक कौपीन और एक ऊपर से ओढने को बस, इतना ही वस्त्र रखे और आपत्काल को छोड़कर दण्ड और कमंडलु के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास न रखे । पहले देख कर पैर रखे, वस्त्र से छान कर जल पिए, सत्यपूत वाणी बोले और मन से भलीभाँती विचारकरकोई काम करे । मौन रूप वाणी का दण्ड, निष्क्रियतारूप शरीर का दण्ड और प्राणायामरूप मन का दण्ड ये तीनो दण्ड जिसके पास नहीं है, वह केवल बाँसका दण्ड ले लेने मात्र से (त्रिदण्डी) सन्यासी थोड़े ही हो जायेगा । जातिच्युत अथवा गोघातक आदिपतित लोगों को छोडकर चारो वर्ण की भिक्षा करे । अनिश्चित सात घरों से माँगे, उनमे जो कुछ भी मिल जाये, उसी से सतुष्ट रहे । बस्ती के बाहर जलाशय पर जाकर जल छिड़क कर स्थल-शुद्धि करे और समय पर कोई आ जाये तो उसको भी भाग देकर बचे हुए सम्पूर्ण अन्न को चुपचाप खा ले (आगे के लये बचा कर न रखे) । जितेन्द्रिय, अनासक्त, आत्माराम, आत्मप्रेमी, आत्मनिष्ठ और समदर्शी होकर

वर्णाश्रम धर्म -७-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०   वानप्रस्थ के धर्म                                गत ब्लॉग से आगे...समयनुसार प्राप्त हुए वन्य कन्द-मूल आदि से ही देवताओं और पितरों के लिए चरु और पुरोडाश निकाले । वानप्रस्थ होकर वेद-विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे । हाँ, वेद-वेताओं के अदेशानुशार अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास और चतुर्मास्यादी को पूर्ववत करता रहे । इस प्रकार घोर तपस्या के कारण (मॉस सूख जानेसे) कृश हुआ वह मुनि मुझ तपोमय की आराधना करके ऋषि-लोकादीमें जाकर फिर वहाँ से कालान्तरमें मुझको प्राप्त कर लेता है । जो कोई इस अति कष्ट-साध्य मोक्ष-फलदायक तपको क्षुद्र फलों (स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि) की कामना से करते है, उससे बढकर मूर्ख और कौन होगा ।                         जब यह नियमपालन में असमर्थ हो जाय और बुढ़ापे से शरीर कापने लगे, तब अपने शरीर में अग्नियों को आरोपित करके, मुझमे चित लगाकर अर्थात मेरा स्मरण करता हुआ यह (अपने शरीर से प्रगट हुई ) अग्नि में शरीर को भस्म कर दे । यदि पुण्य-कर्म-विपाक से यदि किसीको अति दुखमय होने के कारण नरक-

वर्णाश्रम धर्म -६-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७० वानप्रस्थ के धर्म                                   गत ब्लॉग से आगे ...जो वानप्रस्थ होना चाहे, वह अपनी स्त्रीको पुत्रों के पास छोडकर अथवा अपने ही साथ रखकर शान्तचित से अपनी आयु के तीसरे भाग को वन में रहकर ही बिताये । वह वन में शुद्ध कन्द, मूल और फलों से ही शरीर निर्वाह करे, वस्त्र के स्थान पर वल्कल धारण करे अथवा तृण, पर्ण और मृगचर्मादी से काम निकल ले ।केश, रोम, नख, श्मश्रु (मूछ-दाढ़ी) और शरीर के मैल (मैल बढ़ने देने से तात्पर्य यही है की उबटन, तेल आदि न लगाये, साधारण मैल तो नित्य त्रिकाल स्नान करने से छूटता ही रहेगा । विशेष देहअभ्यास   से शरीर मले भी नहीं )   को बढ़ने दे, दन्तधावन न करे, जल में घुस कर नित्य त्रिकाल स्नान करे और पृथ्वी पर सोये ।                                     ग्रीष्म में पंचाग्नि तपे, वर्षामें खुले मैदान में रहकर अभ्रावकाश-व्रत का पालन करे तथा शिशिर-ऋतु में कन्ठ-पर्यन्त जल में डूबा रहे   इस प्रकार घोर तपस्या करे । अग्नि से पके हुए अन्नादि अथवा काल पाकर स्वयं पके हुए (फल आ

वर्णाश्रम धर्म -५-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, पन्चमी, गुरूवार, वि० स० २०७० गृहस्थ के धर्म              गत ब्लॉग से आगे ...जिस ब्राह्मण को अधिक अर्थकष्ट हो, वह या तो वणिक्-वृतिके द्वारा व्यापार आदि से उसको पार करे अथवा खडगधारण पूर्वक क्षत्रिय-वृति का अवलंबन करे; लेकिन किसी भी दशा में नीच-सेवा रूप श्र्व-वृति का आश्रय न ले । क्षत्रिय को यदि दारिद्रय से कष्ट हो तो या तो वैश्यवृति या मृगया (शिकार) और या ब्राह्मणवृति (पढ़ाने) से कालयापन करे किन्तु नीच-सेवा का आश्रय कभी न ले । इसी प्रकार आपतिग्रस्त वैश्य शूद्रवृति रूप सेवा का और शूद्रप्रतिलोम (उच्च वर्ण की स्त्री में नीच वर्ण के पुरुष से उत्पन्न ) जाति के कारू (धुना) आदि की चटाई आदि बुनने की वृतिका आश्रय ले ।(ये सब विधान आपतकाल के लिए ही है ) । आपति से मुक्त होने पर लोभ पूर्वक नीचवृति का आवलंबन कोई न करे |                 गृहस्थ पुरुष को चाहिये की वेदाध्यन्न, स्वधा(पितृ यज्ञ), बलिवैस्व्देव तथा अन्न-दानादि के द्वारा मेरे ही रूप देव, ऋषि, पितर और अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति पूजा करता रहे । स्वयं प्राप्त अथवा शुद्

वर्णाश्रम धर्म -४-

| । श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७० गृहस्थ के धर्म                   गत ब्लॉग से आगे ...जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहे, वह अपने अनुरूप निष्कलंक कुलकी तथा अवस्था में अपने से छोटी, अपने ही वर्ण की कन्या से विवाह करे अथवा अपने से नीचे-नीचेके वर्णों में से भी विवाह कर सकता है । यज्ञ करना, पढना और दान देना ये धर्म तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों के लिए विहित है ; किन्तु दान लेना, पढाना और यज्ञ कराना ये केवल ब्राह्मण ही करे । किन्तु प्रतिग्रह (दान लेना) तप, तेज और यश का विघातक है; इसलिए ब्राह्मण पढ़ाने और यज्ञ करानेसे ही जीवन का निर्वाह करे अथवा यदि इनमे भी (परावलंबन   और दीनता आदि) दोष दिखलाई दे तो केवल शिल्लोछ-वृति से ही रहे । यह अति दुर्लभ ब्राह्मण-शरीर क्षुद्र विषय भोग आदि के लिए नहीं है । इसके द्वारा तो यावजीवन कठिन तपस्या और अंत में अनन्त आनंदरूप मोक्ष का सम्पादन होना चाहिये । इसप्रकार संतोषपूर्वक शिल्लोछ-वृतिसे रहकर अपने अतिनिर्मल महान धर्म का निष्कामता से आचरण करता हुआ जो ब्राह्मणश्रेष्ठ सर्वतोभावेन मुझे आत्म-स

वर्णाश्रम धर्म -३-

| । श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग कार्तिक कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०   ब्रह्मचारी के धर्म                    गत ब्लॉग से आगे .. ग्रहस्थाश्रम में न जानेवाला ब्रह्मचारी स्त्रिँयों का दर्शन, स्पर्श, उनसे वार्तालाप तथा हँसी-मसखरी आदि कभी न करे तथा न किसी भी नर-मादा प्राणियों को विषय-रत होते दूर से भी देखे ।                     हे यदुकूलनंदन ! शौच, आचमन, स्नान, संध्योपासना, सरलता, तीर्थसेवन, जप, अस्प्रश्य, अभक्ष्य और आवच्य का त्याग; समस्त प्राणियों में मुझे देखना तथा मन, वाणी और शरीर-संयम ये धर्म सभी आश्रमों के है । इस प्रकार नैष्ठीक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला अग्नि के समान तेजस्वी होता है । तीव्र तप के द्वारा उसकी कर्म-वासना दग्ध हो जाने के कारण चित निर्मल हो जाने से वह मेरा भक्त हो जाता है और अंत में मेरे परम पद को प्राप्त होता है |                     यदि अपने इच्छित शास्त्रों का अध्ययन समाप्त कर चुकने पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा हो तो गुरु को दक्षिणा देकर उनकी अनुमति से स्नान आदि करे अर्थात समावर्तन-संस्कार करके ब्रह्मचर्य-आश्रम के उपर