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वर्णाश्रम धर्म -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

वानप्रस्थ के धर्म

                                  गत ब्लॉग से आगे...जो वानप्रस्थ होना चाहे, वह अपनी स्त्रीको पुत्रों के पास छोडकर अथवा अपने ही साथ रखकर शान्तचित से अपनी आयु के तीसरे भाग को वन में रहकर ही बिताये । वह वन में शुद्ध कन्द, मूल और फलों से ही शरीर निर्वाह करे, वस्त्र के स्थान पर वल्कल धारण करे अथवा तृण, पर्ण और मृगचर्मादी से काम निकल ले ।केश, रोम, नख, श्मश्रु (मूछ-दाढ़ी) और शरीर के मैल (मैल बढ़ने देने से तात्पर्य यही है की उबटन, तेल आदि न लगाये, साधारण मैल तो नित्य त्रिकाल स्नान करने से छूटता ही रहेगा । विशेष देहअभ्यास  से शरीर मले भी नहीं )  को बढ़ने दे, दन्तधावन न करे, जल में घुस कर नित्य त्रिकाल स्नान करे और पृथ्वी पर सोये ।
                                    ग्रीष्म में पंचाग्नि तपे, वर्षामें खुले मैदान में रहकर अभ्रावकाश-व्रत का पालन करे तथा शिशिर-ऋतु में कन्ठ-पर्यन्त जल में डूबा रहे  इस प्रकार घोर तपस्या करे । अग्नि से पके हुए अन्नादि अथवा काल पाकर स्वयं पके हुए (फल आदि) से निर्वाह करे । उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली से अथवा पत्थर से कुट ले या दाँतों से चबा-चबा कर खा ले ।  
                                     अपने उदर पोषण के लिए कन्द-मूलादी स्वयं ही संग्रह करके ले आये; देश, काल और बलको भली भाँती जानने वाला मुनि दुसरे के लाये हुए पदार्थ ग्रहण न करे (अर्थात मुनि इस बात को जानकर की अमुक पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, कितनी देरतक का खाने से हानिकारक न होगा और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल है-स्वयं ही कन्द-मूल-फल आदि का संचय करे; देश-कालादी से अनभिग्य अन्य जनों के लाये पदार्थों के सेवन से व्याधि आदि के कारण तपस्या में विघ्न होने की आशंका है) |.... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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