जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शुक्रवार, मई 08, 2020

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं-

(१) सत्पुरुषों की निन्दा, (२) नामों में भेदभाव, (३) गुरु का अपमान, (४) शास्त्र-निन्दा, (५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना, (६) नामका सहारा लेकर पाप करना, (७) धर्म, व्रत, दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना, (८) अश्रद्धालु, हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना, (९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) 'मैं', 'मेरे' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।

 

यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण  का वचन है —

नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्।

अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥

नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके, नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये। यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार नाम-जप से कामना सिद्धि के सिवा अन्तःकरण की शुद्धि होकर भगवद्भक्ति रूप विशेष फल भी मिलता है, परंतु नियम यही है कि जैसी कामना हो—सांगोपांग कर्म होनेपर—वैसा ही फल मिल जाय। जो लोग भगवन्नाम का साधारण बातों में प्रयोग करते हैं वे वास्तव में भगवन्नाम की अपार महिमा से सर्वथा अनभिज्ञ हैं या उसपर उनका विश्वास नहीं है। जो रत्न मूल्य से अनभिज्ञ होगा वही उसे कांच मोल पर बेचेगा।


 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 
            पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर

 


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