नामके दस अपराध बतलाये गये हैं-
(१) सत्पुरुषों की निन्दा, (२) नामों में भेदभाव, (३) गुरु का अपमान, (४) शास्त्र-निन्दा, (५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना, (६) नामका सहारा लेकर पाप करना, (७) धर्म, व्रत, दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना, (८) अश्रद्धालु, हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना, (९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) 'मैं', 'मेरे' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।
यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो
उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम
का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण का वचन है —
नामापराधयुक्तानां
नामान्येव हरन्त्यघम्।
अविश्रान्तप्रयुक्तानि
तान्येवार्थकराणि च॥
नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता
है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को
समझकर जहाँ तक हो सके, नाम लेने में कदापि इस लोक और
परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये। यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार नाम-जप से कामना सिद्धि के सिवा अन्तःकरण की शुद्धि
होकर भगवद्भक्ति रूप विशेष फल भी मिलता है, परंतु नियम यही है कि जैसी कामना हो—सांगोपांग कर्म होनेपर—वैसा ही फल मिल
जाय। जो लोग भगवन्नाम का साधारण बातों में प्रयोग करते हैं वे वास्तव में भगवन्नाम
की अपार महिमा से सर्वथा अनभिज्ञ हैं या उसपर उनका विश्वास नहीं है। जो रत्न मूल्य
से अनभिज्ञ होगा वही उसे कांच मोल पर बेचेगा।
- परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर
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