ईश्वर के विरह में रुन्दन स्वभावत: होना चाहिए | रोना और हँसना सीखना नहीं पड़ता | अत्यंत प्रिय के विछोह का अनुभव प्राणों को बरबस रुला देता है | अभी तो हमने संसार के सगे सम्बन्धियों को ही प्रिय मान रखा है | धन और भोगों के प्रति हमारा अधिक आकर्षण है | ऐसी दशा में भगवन के लिए हम व्याकुल कैसे हो सकते हैं ? हम जानते हैं और सदा देखते हैं कि संसार के धन- भोग क्षणभंगुर हैं - आज हैं , कल नहीं | इसी प्रकार यहाँ के सगे -सम्बन्धि यहाँ के भोग यहाँ तक कि यह शरीर भी मृत्यु के बाद साथ छोड़ देता है । प्रत्येक अवस्था में यदि कोइ साथ देता है तो वो है परम करुणामय भगवान। उनकी दया इतनी है कि वे सबको अपनी शरण में आने के लिये स्वयं पुकार रहे हैं। एक हम हैं , भगवान को पुकारना, उनके लिये रोना तो दूर रहा, उनके प्रिय आह्वानतकको नहीं सुनते या सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। जो हमारे आत्माके भी आत्मा हैं, प्रणों के भी प्राण हैं, जिनसे बढ़कर कोई प्रियतम नहीं है, वे हमसे दूर नहीं हैं। हम उन्हें प्राणमें भी निहार न सकें, अपने प्रेमाश्रुओंसे उनके चरण पखार न सकें-- यह कितने दु:ख की बात है। हमें यह विरह इसलिये मिला है कि हम प्रभु से मिलने के लिये रोयें, तड़्पें, अश्रुओंके मॊक्तिक हार से उनकी सादर अर्चना करें ,
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