जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

सोमवार, नवंबर 07, 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

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(राग बसंत-तीन ताल)
मैं तो सदा बस्तु हूँ उनकी, उनकी ही हूँ भोग्य महान।
 मेरी पीड़ा, मेरे सुखका इसीलिये उनको ही जान॥
 मेरे तनका घाव तथा मेरे मनकी जो व्यथा अपार।
 उसके सारे दुःख-दर्दका वही वहन करते हैं भार॥
 अगर किसी मेरे सद्‌गुणसे होता है उनको आह्लाद।
 तो वह सद्‌गुण भी है दिया उन्हींका अपना कृपा-प्रसाद॥
 जीवन उनका, मति उनकी, मन उनका, तन उनका ही धन।
 वे ही इन्हें सुरक्षित रखें तोड़ें-फोड़ें, मारें घन॥
 जैसे, जब, जो कुछ करवावें और नचावें थनन-थनन।
 कटु बुलवावें, गीत गवावें, कहलावें अति मधुर वचन॥
सुग्गा नहीं जानता कुछ भी अर्थ बोलता-’राधेश्याम’।
 जिसने उसे सिखाया है, उसका ही अर्थ जानना काम॥
 स्वयं मधुर संगीत सिखाकर सुनते, करते यदि यश-गान।
 वह यशगान उन्हींका अपना, करे किस तरह शुक अभिमान॥
 जीवनमें अपना मधु भर वे करें स्वयं उस मधुका पान।
 यों अपने सुखसे ही हों वे सुखी, व्यर्थ दे मुझको मान॥
 पर जब मेरा नहीं कहीं भी कुछ भी रहा पृथक्‌ अस्तित्व।
 तब सुख-मान सभी हैं उनके, क्योंकि सभी उनका कर्तृत्व॥
 मेरा यह ’सबन्ध’ श्यामसे, श्याम बने मेरे आकार।
 तन-मन-वचन, भोग्य-भोक्ता सब, वे ही हैं आधेयाधार॥
 यदि मेरा अपना कुछ भी हो, छिपा कहीं भी हो कुछ भाव।
 आग लगे उसमें इस ही क्षण, हो जाये अत्यन्ताभाव॥