मकान मेरा है, चुनेके एक-एक कणमें मेरापन भरा हुआ है, उसे बेच दिया, हुण्डी हाथमें आ गयी,
इसके बाद मकानमें आग लगी! मैं कहने लगा, 'बड़ा अच्छा हुआ, रूपये मिल गए!'
मेरापन छुटते ही मकान जलनेका दुःख मिट गया! अब हुण्डीके कागजमें मेरापन है,
बड़े भारी मकानसे सारा मेरापन निकलकर जरा-से कागजके टुकड़ेमें आ गया!
अब हुण्डीकी तरफ कोई ताक नहीं सकता! हुण्डी बेच दी, रुपयोंकी थेली हातमें आ गयी!
इसके बाद हुण्डीका कागज भले ही फट जाय, जल जाय, कोई चिन्ता नहीं! सारी ममता थेलीमें आ गयी!
अब उसीकी सम्हाल होती है! इसके बाद रूपये किसी महाजनको दे दिए!
अब चाहे वे रूपये उसके यहाँसे चोरी चले जायँ, कोई परवाह नहीं!
उसके खातेमें अपने रूपये जमा होने चाहिए और उस महाजनका फर्म बना रहना चाहिए!
चिन्ता है तो इसी बातकी है कि वह फर्म कहीं दिवालिया न हो जाय! इस प्रकार जिसमे ममता होती है,
उसकी चिन्ता रहती है! यह ममता ही दुखोंकी जड़ है! वास्तवमें 'मेरा' कोई पदार्थ नहीं है!
मेरा होता तो साथ जाता! पर शारीर भी साथ नहीं जाता! झूठे ही 'मेरा' मानकर दु:खोंका बोझ लादा जाता है!
जिसकी चीज़ है, उसे सौंप दो! जगत् के सब पदार्थोसे मेरापन हटाकर केवल परमात्माको 'मेरा' बना लो!
फिर दु:खोंकी जड़ ही कट जायेगी!
फिर दु:खोंकी जड़ ही कट जायेगी!