देहाभिमान ही पाप है और यही सबसे बड़ी अपवित्रता है! या तो अपनेको ईश्वरका पवित्र अभिन्न अंश आत्मा मानो या उस प्राणेश्वर प्रभुका दास मानो, आत्मा तो पवित्र और बलवान है ही, प्रभुका दास भी स्वामीकी सत्तासे, मालिकके बलसे मालिकके समान ही पवित्र और बलवान बन जाता है!
ईश्वरकी कभी सीमा न बाँधों, वह अनिर्वचनीय है, साकार भी है, निराकार भी है तथा दोनोंसे विलक्षण भी है! भक्त उसे जिस भावसे भजता है, वह उसी भावमें प्रत्येक्ष है; यही तो ईश्वरत्व है!
ईश्वरका स्वरूप या सृष्टिरचनाके सिद्धान्तका निर्णय करनेके बखेड़ेमें न पड़कर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक किसी भी एक मार्गको पकड़कर आगे बढ़ना शुरू कर दो! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ोगे, रहस्य आप ही खुलता जायगा! चलना शुरू न कर, व्यर्थ ही निर्णयमें लगे रहोगे तो किसी-न-किसीके मतके आग्रही बनकर जीवनको लड़ाई-झगडेमें ही वर्थ खो दोगे, तत्त्वकी प्राप्ति शास्त्रार्थसे नहीं होती, गुरुदेवकी सेवा और उनके बतलाये हुए मार्गपर श्रद्धापूर्वक चलनेसे ही होती है!