धन, सम्पत्ति या मित्रोंको पाकर अभिमान न करो, जिस परमात्माने तुम्हें यह सब कुछ दिया है उसका उपकार मानो !
भक्त वही है जिसका अन्तः करण समस्त पाप-तापोंसे रहित होकर केवल अपने इष्टदेव परमात्माका नित्य-निकेतन बन गया है !
भक्तका ह्रदय ही जब पापोंसे शुन्य होता है, तब उसकी शारीरिक क्रियाओंमें तो पापको स्थान ही कहाँ है ? जो रात-दिन पापमें लगे रहकर भी अपनेको भक्त समझते हैं, वे या तो जगत् को ठगनेके लिये ऐसा करते हैं अथवा स्वयं अपनी विवेक-हीन बुद्धिसे ठगे गए हैं !
भक्त और साधु बनना चाहिये, कहलाना नहीं चाहिये ! जो कहलानेके लिये भक्त बनना चाहते हैं, वे पापोंसे ठगे जाते हैं ! ऐसे लोगोंपर सांसे पहला आक्रमण दम्भका होता है !
भक्ति अपने सुखके लिये हुआ करती है, दुनियाको दिखलानेके लिये नहीं, जहाँ दिखलानेका भाव है, वहाँ कृत्रिमता है !
भगवान् की ओरसे कृत्रिम मनुष्यको कोपका और अकृत्रिमको करुणाका प्रसाद मिलता है l कोपका प्रसाद जलाकर, तपाकर उसे शुद्ध करता है और करुणाका प्रसाद तो उस शुद्ध हुए पुरुषको ही मिलता है!
अपने विरोधीको अनुकूल बनानेका सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसके साथ सरल और सच्चा प्रेम करो ! वह तुमसे द्वेष करे, तुम्हारा अनिष्ट करे तब भी तुम तो प्रेम ही करो ! प्रतिहिंसाको स्थान दिया तो जरूर गिर जाओगे !