माघ कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
भगवान् के प्रति कई भाव हो सकते हैं ! सर्व-साधारणके लिये सीधा सरल भाव है -- भगवान् के प्रति स्वामीका भाव ! 'भगवान् मेरे स्वामी, मैं उनका दास' -- यह सर्वथा एवं सर्वदा निर्दोष भाव है; इसमें कहीं भी पतनकी गुंजाइश नहीं है !
दूसरा भाव है -- भगवान् को अपना सखा मानना! यह भाव दास्य-भावसे ऊँचा है! इस भावमें मानसिक रूपसे सदा-सर्वत्र भगवान् के साथ रहे और भगवान् की लीलाका चिन्तन करे! इसमें भगवान् के बालस्वरूपका या पार्थसखारूपका चिन्तन करे!
तीसरा भाव है -- भगवान् को अपना बालक मानकर उनकी लीलाको देखे, अर्थात् भगवान् के प्रति वात्सल्यभाव ! भगवान् ने बालपनेमें जो-जो लीलाएँ की हैं, उन-उन लीलाओंका चिन्तन करे! बस, भगवान् की उन लीलाओंके प्रति मनमें अनुराग हो तथा उन्हें सर्वथा सत्य माने!
चोथा भाव है -- मधुर भाव, अर्थात् भगवान् को अपने प्रियतमरूपमें अनुभव करे ! 'गोपी-भाव' इसीका नाम है! गोपी-भावके कई स्तर हैं, जिनमें मन्जरी-भाव सर्वोत्तम है ! श्रीराधामाधव मन्जरीके इष्ट हैं और श्रीराधामाधवके सुखका आयोजन करना मन्जरीका जीवन ! मन्जरीपर श्री राधारानीकी सबसे बड़ी कृपा रहती है और इसीसे श्रीकृष्ण उसपर कृपा करनेके लिए सदा तत्पर रहते हैं!
इससे भी एक ऊँचा भाव है -- श्रीराधामाधवने मुझे अपनेमें विलीन कर लिया है, उनहोंने अपने अंगोंमें मुझे प्रवेश कर लिया है ! वहाँ पहले श्रीराधामाधवकी एकता अनुभव होती है, पीछे साधककी एकता हो जाती है !
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